‘‘सैनिक विप्लव नहीं, समूची जन क्रांति थी 1857 का स्वातंत्र्य समर’’
समुत्कर्ष समिति द्वारा मासिक विचार गोष्ठी के क्रम में ‘‘1857 का स्वातंत्र्य समर’’ विषयक 50 वीं मासिक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया । इस अवसर पर समुत्कर्ष पत्रिका के मई अंक का विमोचन भी किया गया । गोष्ठी में अपने विचार रखते हुए वक्ताओं ने स्पष्ट किया कि 1857 में सैनिक गदर नहीं वरन अंग्रेजों के विरुद्ध भारतवासियों के दमित आक्रोश की जनाभिव्यक्ति हुई थी।
चापेकर बंधुओ के बलिदान का पुण्य स्मरण के साथ विषय प्रवर्तन करते हुए समुत्कर्ष पत्रिका के सम्पादक रामेश्वर प्रसाद शर्मा ने कहा कि लॉर्ड कैनिंग के गवर्नर-जनरल के रूप में शासन करने के दौरान ही 1857 ई. की महान् क्रान्ति हुई थी। इस क्रान्ति का आरम्भ 10 मई, 1857 ई. को मेरठ से हुआ, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों पर फैल गई। इस क्रान्ति की शुरुआत तो एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई, परन्तु कालान्तर में उसका स्वरूप बदल कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह के रूप में हो गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया।
क्रांति की घटनाओं पर प्रकाश डालते हुए सेल्स टेक्स अधिकारी ओ पी भट्ट ने कहा कि दस मई 1857 को मेरठ सैनिक छावनी से बगावत की शुरूआत पैदल सेना की ओर से की गयी थी। जो दिल्ली को आजाद कराने के बाद कानपुर, लखनऊ, झांसी, इलाहाबाद, जगदीशपुर (बिहार), बरेली, फैजाबाद, आजमगढ़, फतेहपुर सहित पूरे देश में फैल गयी थी। स्वतंत्रता संग्राम को देश व्यापी बनाने के लिए कुंवर सिंह,बहादुर शाह जफर, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मी बाई , नाना साहेब पेशवा, लियाकत अली, राव तुलाराम,अजीमुल्ला खां आगे आये। वस्तुतः 1857 की क्रांति भारत के कुछ हिस्सो से निकाल कर कश्मीर से श्रीलंका, गुजरात से म्यांमार , नेपाल और भूटान तक फैल गयी थी।
1857 का स्वतंत्रता संघर्ष शताब्दियों से शोषित, प्रताड़ित एवं उपेक्षित भारतीय जन-समूह की स्वतंत्रता प्राप्ति की तीव्र उत्कंठा का प्रतीक है। 1857 ई. में हुए इस विद्रोह के सम्पूर्ण घटनाक्रम पर सूक्ष्म दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जाता है कि यह एक राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत स्वतंत्रता संघर्ष था। इस क्रांति में क्रुद्ध सिपाहियों के साथ-साथ अंग्रेजों के अत्याचार से क्षुब्ध जनसाधारण ने भी सक्रिय रूप से भाग लिया था। परिणामतः सैनिकों के साथ-साथ बड़े पैमाने पर आम नागरिक भी अंग्रेजों कि क्रूरता का निशाना बने थे स इसलिए, इसे मात्र ‘सैनिक विद्रोह’ की संज्ञा देना युक्तिसंगत नहीं होगा।
साहित्यकार तरुण कुमार दाधीच ने कहा कि वस्तुतः 1857 के इसस्वातंत्र्य संग्राम को प्रदीप्त करने वाली दिव्य तत्त्व थे स्वधर्म व स्वराज्य। अपने प्राणप्रिय धर्म पर भयंकर, विधातक व नितान्त कपट-पूर्ण आक्रमण हो रहे हैं, इस तथ्य को समझकर ही स्वधर्म रक्षण हेतु श्दीन-दीनश् की गर्जना आरम्भ हुई थी। अपने निसर्ग प्रदत्त स्वातंत्र्य को कपटपूर्ण ढंगों से छीने जाने के प्रयासों और राजकीय दासता की लोह श्रृंखलाओं को प्रिय मातृभूमि के कंठ में डाले जाने के विधातक प्रयत्नों को असफल कर स्वराज्य प्राप्ति की पावन इच्छा की पूर्ति हेतु इस दास्य श्रृंखला पर किये गये प्रचण्ड प्रहार ही इस क्रांति का मूल थे।
हरिदत्त शर्मा ने कहा कि सन् 1857 के संघर्ष के बाद कम्पनी के स्थान पर जब ब्रिटिश जाति का भारत पर शासन हो गया और ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, ब्रिटिश जाति अपने शासन को मजबूत और भारतीयों के हितों का अपहरण तथा उनके आत्माभिमान का हनन करने लगी। जब शासकों में अथवा राज-सत्ता में भ्रष्टाचार फैलता है, तब देश के लोगों में स्वार्थपरता की मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि वे दूसरों के दुःख की तनिक भी परवाह नहीं करते -शोषण अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है तब क्राँति का होना अनिवार्य हो जाता है। ऐसे में दामोदर चापेकर व उनके छोटे भाई बालकृष्ण चापेकर ने गर्वनर मिस्टर रैण्ड व लैफटिनेन्ट कर्नल आर्यस्ट का वध कर माँ भारती का सर गर्व से ऊपर उठाया। वहीँ सबसे छोटे वासुदेव चापेकर ने भरी अदालत में मुखबिरी करने वाले गद्दार द्रविड को मौत की सजा दी। दामोदर चापेकर को दिनांक 18 अप्रेल 1898, वासुदेव चापेकर को 8 मई, 1899 व बालकृष्ण चापेकर को 12 मई, 1899 को फाँसी दे दी गई। तीनों भाई हँसते-हँसते फाँसी के तख्ते पर चढ़ गये।
गोष्ठी में कवि निर्मलचंद, राजेश भी अपने विचार व्यक्त किये । समुत्कर्ष के सहसम्पादक गोविन्द शर्मा ने आभार व्यक्त किया।