श्री गुरु गोविन्द सिंह जी वस्तुतः सर्वंशदानी कर्मयोगी थे। योद्धा-सैनिक और संत दोनों की आत्मा उनमें समाहित थी। जन-सेवा, धर्म-साधना एवं वीरोचित कर्म से राष्ट्र रक्षा करते हुए वे समाज सुधारक एवं राष्ट्रनायक के आसन पर आरूढ़ हुए थे। वे संसार के रंगमंच पर उस स्थान पर आसीन थे, जहाँ वे वीरों को शूरवीर दिखाई पड़ते थे तो भक्तों को समाज सुधारक गुरु।
श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपनी वाणियों, शिक्षाओं एवं कृतित्व के माध्यम से केवल भारतीय संस्कृति पर हो रहे प्रहारों को ही नहीं रोका अपितु आतताइयों का सफलतापूर्वक प्रखर प्रतिरोध कर दासता की जंजीरें तोड़ने में भी योगदान दिया। एक महाबलिदानी, योद्धा और मानवता को सहज प्रेम करने वाला गुरुजी जैसा नायक विश्व में दूसरा नहीं दिखता। उनके अनुपम प्रकाश ने भारत माता का आंचल दिव्य आलोक से आलोकित कर दिया था।
औरंगजेब की मजहबी कट्टरता ने देश में सारे समाज को युद्ध की विभीषिका में ढ़केल दिया था। अपने बचाव में भारतीय समाज ने जो लड़ाईयां लड़ीं वे संघर्ष सत्ता के साम्प्रदायिक चरित्र के विरुद्ध थे। उनकी पटकथा मुगलों के अत्याचारों ने लिखी थी। तभी तो गुरु गोविन्द सिंह जी जैसे धर्म ध्वजावाहक को सैनिक शासक बनने को मजबूर होना पड़ा था, मजहबी आतताइयों का दबाव न होता तो मानवता, भ्रातृत्व के इस रक्षक को साधना की भूमि से उतर कर धर्म-रक्षा के लिए रणभूमि में क्यों आना पड़ता ? स्वार्थ सिद्धि के लिए उन्होंने कोई लड़ाई नहीं लड़ी। उन्होंने राष्ट्रीयता को उठाकर धर्म भावना तक, सेवा को समाज निर्माण तक एवं जाति व्यवस्था के अनेकत्व को समतामूलक एकत्व तक पहुँचाकर एक समरस समाज निर्मित कर दिखाया।
श्री गुरु गोविन्द सिंह जी का जीवन संघर्ष, त्याग बलिदान और मानवता की सेवा की अनूठी गाथा है। उनके सम्पूर्ण जीवन वंाग्मय में धर्म, संस्कृति और राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने वंश को न्योछावर करने का विश्व में दुर्लभतम उदाहरण है, आक्रान्ताओं के भय से त्रस्त समाज को जाग्रत करने वाली प्रबल हंुकार है और समाज के सभी वर्गों के लिए समत्व और ममत्व भरी आत्मीय द्दष्टि भी है।
