इस देश की आत्मा राज्यसत्ता में नहीं वरन् धार्मिक आस्थाओं में थी। जब राज्य सत्ताओं पर संकट आया और परकीयों ने राजाओं को पराजित कर राज्य नष्ट कर दिए, तब जनता इन आध्यात्मिक महापुरुषों की शरण में चली गयी और वे ही समाज के मार्गदर्शक और सच्चे उद्धारक बन गए। इन सन्तों ने हिन्दू धर्म के ‘‘सर्व-समावेशी एवं सर्वजन-हितकारी’’ मौलिक सिद्धान्तों के प्रकाश में समाज का परिष्कार करने का दायित्व संभाल लिया।
भारतीय समाज की आध्यात्म के प्रति रुचि ने यहां के लोगों का मन दुनिया से कुछ भिन्न बनाकर रखा है। सभी के अन्दर ईश्वरांश की अनुभूति के कारण इस देश में प्राणिमात्र के प्रति मनुष्य के दृष्टिकोण को एक अलग प्रकार से प्रस्तुत किया गया। ईश्वर-आराधना के लिए जीवन के अन्दर शुचिता-पवित्रता-दयालुता एवं परमार्थ जैसे सद्गुणों को आवश्यक माना गया तथा कहा गया कि ईश्वर प्राप्ति का मार्ग कोई भी क्यों न हो, व्यक्तिगत जीवन का आचरण श्रेष्ठ होना चाहिए। इसी कारण समाज जीवन में सद्गुणों तथा सद्प्रवृ8िायों के प्रति प्रबोधन करने वाले आध्यात्मिक लोगों की अखण्ड श्रृंखला अवतरित होती रही।
इस आध्यात्म साधना में लीन संतजनों की प्रेमासिक्त-वाणी हजारों-लाखों लोगों को इनका अनुयायी बना देती है। अपनी सरलता, सहजता तथा सभी के प्रति प्रेम-पूर्ण व्यवहार के कारण समाज-जनों को इनके निकट बैठने में शान्ति का अनुभव होता है। समाज इनके प्रति श्रद्धा और प्रेम के साथ ही भक्तिभाव से इनका अनुसरण भी करता है। ईश्वरानुराग में डूबे हुए इन लोगों को ही हम भक्त या सन्त कहकर पुकारते हैं। इनका जीवन भक्ति, करुणा, ममता, सेवा एवं सरलता आदि की प्रतिमूर्ति जैसा दिखने के कारण इनके अनुयायी इनके प्रति अनन्य समर्पण भाव रखते हैं।
वैदिक काल की समाज व्यवस्था में सामाजिक भेदभाव का कोई उल्लेख तक नहीं है। वेद, उपनिषद्, गीता आदि ग्रन्थों में अस्पृश्य शब्द खता भी नहीं। वैदिक ऋ षि यही कामना करते हैं कि समाज के सभी लोग मिलकर कार्य करें तथा सभी के मन की प्रसन्नता का सभी निरन्तर स्मरण करें। वैदिक ऋ षि सम्पूर्ण मानव समाज को सुखी और निरोगी देखना चाहते हैं और कहते हैं-‘‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:’’। यह सुन्दर व्यवस्था हजारों वर्ष तक चलती रही तथा भारत ने समाज जीवन के सभी क्षेत्रों में विलक्षण उन्नति की।
किन्तु दृश्य जगत में कुछ भी स्थिर नहीं, सभी कुछ बदलता है। समय के थपेड़ों से अच्छी से अच्छी व्यवस्थाएं टूट जाती हैं या विकृत हो जाती हैं। काल का चक्र बड़ा निर्दयी है। विश्व पटल की अनेक समुन्नत संस्कृतियां धूल-धूसरित होकर काल के गाल में समा गईं किन्तु हिन्दू समाज गिरकर पुन: उठा। विगत १५०० वर्षों के आक्रमणों में ऐसा अनेक बार लगा कि सब कुछ समाप्त हो गया किन्तु हिन्दू समाज अन्धकार और निराशा को चीरता विश्वपटल पर हर बार प्रदीप्त होकर उठा। बाह्य आक्रमणकारियों से संघर्ष के समय अनेक प्रयासों के बाद भी संस्कारित और संगठित समाज जीवन का ताना बाना बिखर गया। उस समय धन, धर्म और जीवन सभी कुछ असुरक्षित हो गया। महिलाएं पर्दे में चली गयीं और बाल विवाह प्रारंभ हो गए। जिन्होंने इन आक्रमणकारियों के विरुद्ध डटकर संघर्ष किए थे, उनके ऊपर भीषण अत्याचार का कहर टूट पड़ा। संघर्षशील हिन्दू जातियां प्रताडि़त की गईं और इनका सामाजिक स्तर भी गिरता चला गया।
प्रथमत: इस देश में गोमांस खाने वाले यवन ही अस्पृश्य माने गए। आगे चलकर गोहत्या करने वाले और गोमांस खाने वाले तुर्क, अफगान, मुगल, अंग्रेज, फिरंगी आदि सभी को अस्पृश्य कहा गया। धीरे-धीरे हिन्दू समाज में सम्मान प्राप्त संघर्षशील गोंड़, पासवान, सोनकर, वाल्मीकि, दु:साध आदि लोग अनुसूचित जातियों में सम्मिलित कर दिए गए। यह हिन्दू समाज का दुर्भाग्यशाली समय था। विधर्मियों से बचते समय अनेक प्रकार की सामाजिक वर्जनाओं के कारण अनेक जाति-उपजातियां जन्म लेने लगीं। विगत एक हजार वर्ष में एक हजार से अधिक जातियों का निर्माण हो गया। अनेक प्रकार के जातिगत भेदभावों ने भी जन्म ले लिया और स्पृश्य-अस्पृश्य भाव ने सामाजिक विकृतियों को वीभत्स स्वरूप दे दिया।
यह एक कठिन काल था। एक ओर तो बाहरी आक्रमणकारियों से समाज को बचाना और दूसरी ओर सामाजिक विकृतियों के विरुद्ध संघर्ष करना। यह वह समय था, जब भारत के अंदर धार्मिक महापुरुषों की एक महान परम्परा का उदय सम्पूर्ण देश में एक साथ हुआ। देश के सभी प्रान्तों में ये सन्त भक्ति-भाव लेकर खड़े हो गए और उन्होंने किसी भी प्रकार के सामाजिक भेदभाव को मानने से इन्कार कर दिया। इन आध्यात्मिक महापुरुषों ने सम्पूर्ण समाज में भक्तिभाव का जागरण कर उसे संगठित किया। मुस्लिम आक्रमणकारियों के विरुद्ध समाज को एकजुट कर स्वराज्य की स्थापना का अति महत्वपूर्ण कार्य इन संतों ने किस प्रकार किया, यह इस देश की अनोखी घटना थी।
भगवान बुद्ध की सामाजिक आध्यात्मिक क्रांति ने विश्व के अनेक देशों में अपनी सफलता की ध्वजा फहरा दी। भगवान बुद्ध के पश्चात चौरासी ‘‘सिद्धों’’ की (ई.सं ६००-११०० तक) एक महान् परम्परा हम देखते हैं, जो जातिगत भेदभाव, वर्ण-व्यवस्था तथा व्यर्थ के कर्मकाण्डों में विश्वास नहीं करते। ब्राह्मण कुलोत्पन्न आचार्य सिद्ध सरहपा नालन्दा विश्वविद्यालय के आचार्य एवं विलक्षण विद्वान थे किन्तु शूद्र महिला से विवाह करने तथा शूद्रों को शिष्य बनाने में ‘‘सिद्ध सरहपा’’ को कोई संकोच नहीं हुआ।
भारत के ऊपर इस्लाम का आक्रमण भारतीय इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना थी। स8ाा पर अधिकार करने के पश्चात वे विजित समाज को किसी भी प्रकार से इस्लाम मत में लाने के लिए कटिबद्ध थे। मंदिरों को नष्ट कर देना उनके लिए पुण्य का कार्य था और वहां आचरण-दोष महत्वहीन था। इस्लाम के इस आक्रमण के विरुद्ध संघर्ष के लिए सर्वप्रथम नाथयोगी (ई.स. १०००-१६००) आगे आए। महान योगी गोरखनाथ की शिष्य परम्परा के हजारों साधु (योगी) सम्पूर्ण देश में फैल गए। उन्होंने सभी जातिगत भेद-भावों को तिरस्कृत कर दिया। योग की शिक्षा देने वाले इन योगियों ने शिव-भक्ति का भाव जगाया तथा उस समय बहिष्कृत कही जाने वाली अनेक जातियों को न केवल अपना शिष्य बनाया वरन् इस्लाम में जाने से रोक भी लिया।
भारत का मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन
दक्षिण के शैव-भक्त नायन्मार (ई.स. ३००-१२००) सन्तों ने जातिगत दीवारों को मान्यता देने से मना कर दिया। वैष्णव सन्त श्रीरामानुजाचार्य (ई.स. १०१६-११३७) ने शूद्र गुरुओं को श्रद्धापूर्वक गुरु रूप में स्वीकार किया। दक्षिण भारत के ही १८ वैष्णव-भक्त आलवारों से प्रेरणा पाकर श्रीरामानुजाचार्य वेदान्त-भावित-भक्ति को लेकर उत्तर भारत की ओर चल दिए। श्रीरामानुजाचार्य ने आध्यात्म को नयी परिभाषा दी और ईश्वर प्राप्ति हेतु ‘‘सर्वे प्रपत्ते अधिकारणो मता:’’ अर्थात् भक्ति का अधिकार सभी को है कहकर, सर्वजन-सुलभ-सरल मार्ग ‘‘भक्ति’’ के द्वार सभी के लिए खोल दिए।
श्रीरामानुजाचार्य के शिष्य वैष्णव-भक्ति का संदेश लेकर उत्तर-भारत की ओर बढ़ चले। काशी के स्वामी रामानन्द तथा महाराष्ट्र के सन्त ज्ञानेश्वर ने अपने सहयोगी संतों एवं नाथ-योगियों के साथ मिलकर वैष्णव-भक्ति का सुंदर समन्वय खड़ा कर दिया। इसी ‘‘योग-भक्ति’’ मिश्रित नई आध्यात्म धारा को आगे चल कर संत-परम्परा कहा गया। देखते ही देखते सम्पूर्ण भारत वर्ष के एक कोने से दूसरे कोने तक विद्युत की चमक की तरह समस्त अन्धकार और निराशा को चीरता हुआ यह ‘‘भक्ति-आन्दोलन’’ प्रगट हो गया। हजारों भक्त तथा सन्त इस्लाम से समाज की सुरक्षा करने तथा समाज के अन्दर घर कर गई कुरीतियों तथा बुराइयों के विरुद्ध अलख जगाने में जुट गए।
समाज जागरण का आधार ईश्वरीय भक्ति
ये संत और भक्त समाज के स्वविवेक का जागरण तथा भक्ति का आह्वान कर रहे थे। भक्ति के सहारे इन संतों ने सभी के अन्दर एक ब्रह्म की प्रतीती करते हुए मानव-मानव के मध्य भेदभाव करने वाली सभी बातों को मानने से इंकार कर दिया। सभी ईश्वर के जन हैं, तब कौन बड़ा और कौन छोटा? कौन स्पृश्य, कौन अस्पृश्य? मनुष्य-मनुष्य के मध्य भेद करने वाले शास्त्रों, मान्यताओं तथा व्यवस्थाओं का उन्होंने निषेध किया तथा हीनभाव से ग्रस्त हिन्दू समाज के हृदय में एक नव-स्फूर्ति का संचार कर दिया।
काशी के स्वामी रामानन्द
काशी के स्वामी रामानन्द (ई.स. १२९९-१४४८) ने भक्ति में जाति के महत्व को अस्वीकार कर एक नई परम्परा खड़ी कर दी। ‘‘जाति-पांति पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई’’ कहकर सभी जाति के लोगों को अपने निकट एकत्रित कर राम के प्रति भक्ति की प्रेरणा दी। उनके शिष्यों में संत कबीरदास, संत रैदास, संत धन्ना आदि तथाकथित पिछड़ी जातियों से आये थे तथा उन्होंने ही सर्वाधिक प्रतिष्ठा भी पाई। भक्तिभाव में डूबे कबीर जुलाहा थे और स्वयं को ‘‘राम का कु8ाा’’ कहने में वे लजाये नहीं। संत रैदास चर्मकार थे किन्तु ‘‘प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी’’ कहते हुए उन्होंने अपने आपको प्रभु से अलग नहीं होने दिया। संत तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस तथा हनुमान चालीसा जैसी कालजयी रचनाएं समाज के सभी वर्गों को देकर सामाजिक भेदभावों को समाप्त करने का चिरस्मरणीय प्रयास किया।
लोक-भाषाओं में आध्यामिक दर्शन
स्वामी रामानन्द ने लोक भाषाओं में भक्ति-साहित्य लिखने की नयी प्रेरणा दी। कुछ ही वर्षों में देश की सभी लोक-भाषाओं में लिखने वाले सैकड़ों भक्त खड़े हो गए। इसके पूर्व भक्ति-साहित्य की रचना सामान्य मान्यता के अनुसार संस्कृत में ही होती थी। सभी जातियां इस भक्ति-आन्दोलन के साथ जुड़ती चली गयीं।
वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, ब्राह्मण ग्रन्थ आदि सभी धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में ही थे। भक्ति की प्रबलधारा ने इस सभी ग्रंथों को सामान्य-जन की लोकभाषाओं में अनुवादित करके ‘‘सर्वजन-सुलभ’’ कर दिया। प्रभु की महिमा केवल संस्कृत में ही लिखी जाएगी, यह मिथक टूट चुका था।
भक्ति आन्दोलन का देशव्यापी स्वरुप –
इस्लाम के आक्रमणों को सर्वाधिक क्रूरता के साथ झेलने वाले पंजाब में महाराष्ट्र के संत नामदेव (ई.स. १२७०-१३५०) ग्राम-ग्राम घूमते हुए भक्ति जागरण कर रहे थे। निर्मल ईश्वर-भक्ति का यह व्यापक प्रचार आगे चलकर महान सिख-संत परम्परा के रूप में प्रकट हुआ। श्री गुरु नानक देव (ई.स. १४६९-१५३९) ने भगवद्-भक्ति के साथ ही सामूहिक-संगत, सामूहिक पंगत, तथा सामूहिक ठहरने की व्यवस्थाओं (गुरुद्वारों) का चलन प्रारंभ कर दिया तथा अपने अनुयायियों में सभी प्रकार के सामाजिक भेद-भावों को समाप्त कर दिया। उन्होंने कहा- ‘‘जाणह जोत न पूछहू जाति’’ अर्थात् व्यक्ति की जाति का विचार छोडक़र उसके अन्दर के ईश्वर का अनुभव करो। गुरु गोविंद सिंह ने हिन्दू समाज के भेद-भावों को समाप्त कर (ई.स. १६९९ में) ‘‘खालसा पंथ’’ का गठन किया, जिसने इस्लाम की अत्याचारी शक्ति का दृढ़तापूर्वक सामना ही नहीं किया वरन् उन्हें उचित पाठ भी पढ़ाया। यह सिख संत ही थे जो भगवद्-भक्ति के साथ सेना भी सजा रहे थे। यह ईश्वर-भक्ति और सैन्य-शक्ति का विचित्र संयोग पंजाब में विकसित हो रहा था और इसको खड़ा करने वाली संत-शक्ति ही थी।
महाराष्ट्र के अग्रगण्य संत नामदेव (ई.स. १२७०-१३५०), संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत तुकाराम ने पण्ढरपुर के वि_ल (विष्णु भगवान) की निर्गुण-भक्ति प्रारंभ की और वि_ल-वि_ल का जो संकीर्तन प्रारंभ किया तो लाखों लोग उनके अनुगामी होकर वारकरी (तीर्थयात्रा) करने के लिए पण्ढरपुर जाने लगे। देखते ही देखते ग्राम-ग्राम में समाज का नेतृत्व करने वाले संत चोखमेला, संत गोरा, संत राका, संत जनाबाई, संत बंका, संत नरहरि आदि ने व्यापक प्रसिद्धि पायी और वे सभी तथाकथित पिछड़ी जातियों के ही थे। सम्पूर्ण महाराष्ट्र एक अद्भुत क्रांति से आह्लादित हो उठा।
आगे चलकर जिस हिन्दू साम्राज्य की स्थापना हम शिवाजी महाराज तथा समर्थ गुरु रामदास के नेतृत्व में देखते हैं, उसकी अलख सैकड़ों वर्ष पूर्व महाराष्ट्र में इन सन्तों द्वारा जगायी जा चुकी थी। अपराजेय मुस्लिम साम्राज्य को समाप्त करने के लिए गांव-गांव में लाखों युवक ‘‘हर-हर महादेव’’ का जयकार लगाते हुए स्वराज्य स्थापना के लिए मचल उठे। कर्नाटक से अफगानिस्तान की सीमा तक पुन: हिन्दू साम्राज्य खड़ा हो गया। इसकी नींव में भक्ति के ही स्वर मुखरित हो रहे थे। कर्नाटक की विशाल संत परम्परा में श्री अल्लम प्रभु, भक्त बसवेश्वर, वैराग्यनिधि अक्क महादेवी, श्री मध्वाचार्य, संत पुरंदरदास, संत कनकदास आदि सभी ने जातिगत भेदभाव से दूर रह कर समाज रचना के प्रयास जारी रखे। इन्होंने सभी वर्गों- जातियों को सम्मान दिया। स्वामी विद्यारण्य ने हरिहर राय और बुक्क राय को लेकर पुन: हिन्दू सेना को गठित किया और मुस्लिम आक्रांताओं को पराजित कर ‘‘विजयनगर साम्राज्य’’ की स्थापना की। आगे चलकर विजयनगर का हिन्दू साम्राज्य सैकड़ों वर्ष तक अपने वैभव के साथ दक्षिण भारत में खड़ा रहा।
तमिलनाडु तो भक्ति की धरती ही थी, वहीं से भक्ति का प्रवाह सम्पूर्ण देश में प्रवाहित हुआ। आलवार तथा नायन्मार सन्तों में अनेक शूद्र वर्ण के थे किन्तु अनेक ब्राह्मण सन्तों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण कर अपने आपको धन्य माना। भक्त नम्मलवार शूद्र थे किन्तु उनके तमिल ग्रन्थ ‘‘प्रबन्धम्’’ को वेद के समकक्ष मान्यता मिली हुई है। तमिल के महान सन्त तिरुवल्लुवर जुलाहा थे। उनके ग्रन्थ ‘‘तिरुक्कुल’’ की कविताएं ‘‘कुरल’’ नाम से विश्वविख्यात हो गयीं।
आन्ध्र के श्रीकृष्णमाचार्य (१३वीं शताब्दी) ने भक्ति-साहित्य की रचना तेलुगु भाषा में प्रारम्भ की। आन्ध्र प्रदेश के भक्त अन्नमाचार्य, वीर ब्राहमेन्द्र स्वामी तथा सन्त वेमना आदि ने सभी को समान समझने की धारणा को ही बल दिया। निर्वस्त्र जंगल में रहने वाले संत वेमना को आन्ध्र का कबीर कहा जाने लगा। आन्ध्र की ही महान मोल्ला ने तेलुगु में रामायण लिखकर अभूतपूर्व प्रसिद्धि प्राप्ति की।
ओडिशा की पंचसखा परंपरा (१५वीं-१६वीं शताब्दी) के भक्तों तथा भक्त भीम भोई ने सामाजिक भेदभाव मिटाने के लिए नए आयाम प्रस्तुत किए। पंचसखा परम्परा के वैष्णवभक्तों में चार शूद्र तथा केवल एक ही ब्राह्मण थे, किन्तु सभी ने भक्ति-जागरण के साथ ही सभी की समानता हेतु धार्मिक मान्यता प्रदान की।
बंगाल के नदिया जिले के विद्वान-भक्त चैतन्य महाप्रभु (ई.स. १४८५-१५३३) ने कृष्ण-भक्ति के प्रचार-प्रसार हेतु दो बार देश-भर की यात्रा की। यह संन्यासी केवल भक्ति की ही भिक्षा मांगता घूमता था। श्री चैतन्य महाप्रभु ने सैकड़ों वर्ष पूर्व मुस्लिम आक्रमणों से नष्ट हुए वृंदावन को पुन: खोज निकाला। ‘‘हरि बोल, हरि-बोल’’ कहकर कीर्तन करने वाले चैतन्य महाप्रभु ने वनवासी, गिरिवासी, ग्रामवासी, नगरवासी, चाण्डाल, ब्राह्मण आदि सभी को भक्ति के संकीर्तन में सराबोर कर दिया।
श्रीचैतन्य महाप्रभु का एक ही मंत्र था ‘‘जेई भजे सेई बड़ो, अभक्त हीन क्षार, कृष्ण भजने नहीं जाति कुल विचार’’। अर्थात् जो कृष्ण को भजता है वही बड़ा है, जो भजन नहीं करता वह हीन है। कृष्ण की भक्ति में जाति अथवा कुल का कोई भी विचार करना व्यर्थ है। इस प्रकार चैतन्य महाप्रभु ने अस्पृश्य कहे जाने वाले लाखों लोगों को अपने कृष्ण-भक्ति आंदोलन से जोड़ लिया। अनेक जातियाँ उनके संकीर्तन के साथ एकरूप हो गयीं। सैकड़ों मुसलमान भी उनके शिष्य हो गए।
उन्नीसवीं शताब्दी में कोलकाता में काली मंदिर के पुजारी श्रीरामकृष्ण परमहंस विलक्षण क्षमताओं के साथ अवतरित हुए। जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए संकल्पबद्ध संन्यासियों की टोली निर्माण करने का कार्य यह काली मंदिर का पुजारी कर रहा था। श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने पिछड़े, गरीब, अस्पृश्य कहे जाने वालों को ईश्वर का साक्षात् अवतार कहकर पुकारा। इस प्रकार मनुष्य की सेवा को ही ईश्वर की सेवा मानने वाले सैकड़ों संन्यासी खड़े हो गए। इन संन्यासियों ने जातिगत विषमताओं एवं सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जमकर संघर्ष किया।
बंगाल के ही स्वामी प्रणवानंद ने नमशूद्र परिवारों में जाकर भोजन करने में कोई संकोच नहीं किया तथा भारत सेवा संघ का निर्माण कर सैकड़ों संन्यासियों को हिन्दू समाज के संस्कार हेतु लगाया। असम के श्रीमंत शंकरदेव (ई.स. १४४९-१५६९) एवं श्री माधवदेव ने कृष्ण-भक्ति को ही अपने कार्य का आधार बनाया तथा समाज की विषमताओं को दूर कर मूर्ति तथा मंदिर के स्थान पर ग्राम-ग्राम में नामघरों की स्थापना कर डाली। इन नामघरों में सम्पूर्ण प्रांत के लोग एक साथ कृष्ण भक्ति के भजन गाते थे, उसी का परिणाम है कि आज असम में जातिगत भेदभाव को कोई स्थान नहीं है।
कन्याकुमारी से कश्मीर तक तथा गुजरात, महाराष्ट्र से लेकर असम और मणिपुर की घाटियों तक ईश्वर भक्ति की उ8ााल तरंगे उठने लगीं। इस भक्ति का तात्विक आधार और स्वर एक ही था, ‘‘भगवद् भक्ति तथा मानव-प्रेम’’ ईश्वर-भक्ति के साथ-साथ इन संतों ने सामाजिक कुरीतियो को तोडक़र नई समाज-व्यवस्था देने का संकल्प लिया और मनुष्य-मनुष्य के मध्य भेद-भाव करने वाली प्रत्येक दीवार को ध्वस्त करने का प्रयास किया।
हिन्दू समाज की सभी जातियों यथा महार, कुंभार, छीपी, माली, धुनियां, चर्मकार, धोबी, कोरी, जुलाहा, सुनार, तेली, क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण आदि जातियों के सन्त भक्ति-भाव से आगे आए और उन्हें व्यापक सम्मान भी प्राप्त हुआ।
महिलाओं को सम्मानजनक स्थान –
इस भक्ति-आंदोलन ने स्त्री, पुरुष के मिथ्या भेद को न केवल अस्वीकार कर दिया वरन् अनेक महिला संतों को सम्मानजनक स्थान भी दिलाया। भक्ति-भाव में डूबी बीबी नाच्चियार मुसलमान होते हुए भी श्रीरामानुजाचार्य के साथ दक्षिण के मेलुकोट मंदिर में आ गयीं और आज उनकी समाधि भी उसी मंदिर में बनी हुई है। वैष्णव-भक्त आलवारों में अण्डाल ने विलक्षण प्रसिद्धि पायी।
आयु से छोटी संत मुक्ताबाई के आध्यात्मिक अभंगों ने संत ज्ञानेश्वर के दु:ख और निराशा को दूर कर दिया। मीरा की निर्मल कृष्ण-भक्ति के पद लोक-कण्ठ में समा गए और मीरा विष पीकर भी अमर हो गयीं। समर्थ गुरु रामदास की अनुयायी सैकड़ों महिलाएं विविध मठों की मठाधिपति बनीं। घर-घर बर्तन साफ करने वाली जनाबाई वारकरी मत की श्रेष्ठ संत बन गयीं।
कर्नाटक की अक्क महादेवी ने ‘‘अनुभव मण्डप’’ में सभी को समान माना। कश्मीर की प्रसिद्ध संत लल्लेश्वरी मेहतर जाति की थीं और शास्त्रार्थ में वे अपने गुरु से भी आगे निकल गईं। आन्ध्र प्रदेश में सन्त माल्ला की तेलुगु रामायण ने रामभक्ति की धूम मचा दी। तमिलनाडु की ओव्वैयार, महाराष्ट्र की वहिणाबाई, जनाबाई, कान्होपात्रा; उ.प्र. में स्वामी रामानन्द की शिष्याएं पद्मावति एवं सुरसरि बाई, बाबरी पंथ की बाबरी साहिबा; राजस्थान की सहजोबाई और दयाबाई, गुजरात की लीरलबाई आदि सैकड़ों महिला संतों ने इस भक्ति-आंदोलन में अनेक प्रकार के सामाजिक विरोधों के बावजूद भक्ति-जागरण एवं लोक-समन्वय का कार्य जारी रखा।
मुस्लिम संतों का उदय
संतों एवं भक्तों के पवित्र एवं त्यागपूर्ण जीवन से सभी प्रभावित हो रहे थे तो मुसलमान कैसे दूर रह जाते! हजारों मुसलमान इन संतों के शिष्य बनकर हरि-गुण गाने लगे। भक्त रसखान ने कृष्ण-भक्ति में मथुरा को ही अपना घर बनाया और औरंगजेब की भतीजी ताज बीबी गोवर्धन के मंदिर में बैठकर पूजा अर्चना में लग गयी। विरक्त रहीम ने चित्रकूट की शरण ली और भगवान राम, कृष्ण की भक्ति में रम गए। सन्त रज्जब, कारेबेग, दीनदरवेश, रोहल, शाहअली कादर, कामल साहब जैसे मुस्लिम संतों की एक बड़ी श्रृंखला है जो नजीर अकबराबादी की तरह ‘‘कृष्ण मुरारी की बोलो जय’’ में मगन थे। इन मुसलमानों को यहां एक अनिर्वचनीय सुख मिल रहा था। ‘‘भक्ति’’ अपने सर्व-समावेशी रूप के साथ सभी के अन्तर्मन में अपनी पैठ बना रही थी।
परकीय सत्ता के सम्मुख सर नहीं झुकाया –
ईश्वर के प्रति इन संतों का विश्वास अविचलित था। ईश्वर-भक्ति ने इनके अन्दर एक विलक्षण शक्ति का संचार कर दिया। मुसलमानों के अत्याचार विरुद्ध ये सन्त डटकर खड़े हो गए। पंजाब के गुरु अर्जुनदेव को जहांगीर ने मुसलमान बनाने का प्रयास किया तो सभी प्रकार के अत्याचार सहते हुए वे शहीद हो गए किन्तु उन्होंने इस्लाम मत स्वीकार नहीं किया। सन्त तुलसीदास को मनसबदारी देने के लिए जब अकबर का आमंत्रण पहुंचा, तब उन्होंने अकबर के दरबार में आने से मना कर दिया। गुरु तेगबहादुर ने भी सर कटाना स्वीकार किया किन्तु इस्लाम स्वीकार नहीं किया। संत गुरु गोविन्द सिंह ने अपने शिष्यों की सेना सजा कर लम्बे संघर्ष की घोषणा कर दी। समर्थ गुरु रामदास ने अपने शिष्यों से कहा ‘‘मारिता मारिता ध्यावे राज्य आपुले’’ अर्थात् संघर्ष करते-करते स्वयं का बलिदान करें किन्तु अपना राज्य प्राप्त करें।
भारतीय धर्मसभा के वाहक ये संत, भक्त तथा धार्मिक महापुरुष, भगवद्भक्ति का सहारा लेकर समाज जीवन को सभी बुराइयों, विषमताओं तथा कुरीतियों के विरुद्ध धावा बोल रहे थे; भक्तिभाव को जगाते हुए हिन्दू समाज को इस्लाम के शासन के विरुद्ध शारीरिक एवं मानसिक रूप से सन्नद्ध करते थे तथा मानवीय जीवन के श्रेष्ठतम पहलुओं को समाज के सम्मुख रखकर जीवन की शुचिता-पवित्रता तथा त्यागमयी सद् वृतियो को प्रोत्साहित करते रहे। आवश्यकता पडऩे पर समाज का पुरुषार्थ जगाकर वे सेना भी सजाते दिखते हैं।
सम्पूर्ण देश में तीर्थयात्राएं करते हुए ये संत और भक्त देश की सांस्कृतिक एवं वैचारिक एकता और अखण्डता को हजारों वर्ष से अक्षुण्ण बनाए हुए हैं। अपने विविध रूपों के साथ देशभर में समय-समय पर परिस्थितियों की आवश्यकतानुसार विकसित होने वाली यह परम्परा अखण्ड है, निरन्तर है तथा शाश्वत है। अध्यात्म प्रेरित महान विभूतियों की यह ‘‘अनन्य-साधारण-परम्परा ’’ हिन्दू समाज के चिरंजीवी होने का आधार है।
डॉ. कृष्ण गोपाल