यूँ तो सदैव से ही ‘राष्ट्रवाद’ जनसाधारण की चर्चाओं से लेकर अकादमिक विमर्श के केंद्र में रहता है किंतु, वर्तमान समय में राष्ट्रवाद की चर्चा जोरों पर है। राष्ट्रवाद का जिक्र बार-बार आ रहा है। राष्ट्रवाद को ‘उपसर्ग’ की तरह भी प्रयोग में लिया जा रहा है, यथा- राष्ट्रवादी लेखक, राष्ट्रवादी संगठन, राष्ट्रवादी विचारक, राष्ट्रवादी राजनीतिक दल, राष्ट्रवादी नेता, राष्ट्रवादी मीडिया इत्यादि। ऐसे में आम जनमानस की रुचि यह जानने-समझने में बहुत बढ़ गई है, आखिर ये राष्ट्रवाद है 1या? एक सामान्य व्यक्ति बार-बार भ्रमित हो जाता है, 1योंकि देश में एक वर्ग ऐसा है जो भारतीय राष्ट्रवाद पर पश्चिम के राष्ट्रवाद का रंग चढ़ा कर लोगों के मन में उसके प्रति चिढ़ पैदा करने के लिए योजनाबद्ध होकर लंबे समय से प्रयास कर रहा है। राष्ट्रवाद के प्रति नकारात्मक वातावरण बनाने में बहुत हद तक यह वर्ग सफल भी रहा है।
भारत में बुद्धिजीवियों का एक वर्ग ऐसा है, जो हर विषय को पश्चिम के चश्मे से देखता है और वहीं की कसौटियों पर कस कर उसका परीक्षण करता है। राष्ट्रवाद के साथ भी उन्होंने यही किया। राष्ट्रवाद को भी उन्होंने पश्चिम के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया। जबकि भारत का राष्ट्रवाद पश्चिम के राष्ट्रवाद से सर्वथा भिन्न है। पश्चिम का राष्ट्रवाद एक राजनीतिक विचार है। चूँकि वहाँ राजनीति ने राष्ट्रों का निर्माण किया है, इसलिए वहाँ राष्ट्रवाद एक राजनीतिक विचार है। उसका दायरा बहुत बड़ा नहीं है। उसमें कट्टरवाद है, जड़ता है। इसके विपरीत हमारा राष्ट्र संस्कृति केंद्रित रहा है। भारत के राष्ट्रवाद की बात करते हैं तब ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की तस्वीर उभर कर आती है। विभिन्नता में 5ाी एकात्म। एकात्मता का स्वर है- ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’।
राष्ट्रवाद की अवधारणा को समझने के लिए सबसे पहले लार्ड मेकाले एवं उसके मानसपुत्रों की सिखाई हुई असत्य तथ्यों और बातों को भूलना उचित होगा। दरअसल, भारतीय दृष्टि में राष्ट्रवाद की अवधारणा संकुचित नहीं, बल्कि वृहद है। यह ‘सर्वसमावेशी’। सबका साथ-सबका विकास। सब साथ आएँ। इसलिए हमारे पूर्वजों ने ‘वसुधैव कुटु6बकम्’ की बात की। वहीं, यूरोप द्वारा परिभाषित और प्रस्तुत ‘राष्ट्रवाद’ अत्यंत संकुचित है।
‘‘शासन का एक ही धर्म होना चाहिए कि राष्ट्र ही सर्वोपरि है। संविधान ही सर्वोत्कृष्ट धर्मग्रंथ है। यह राष्ट्र इस देश की १३५ करोड़ की आबादी का अपना है और यही संगठित शक्ति हमारी जनार्दन है। और जनार्दन की सेवा ही हमारा भाग्य है। लोकशाही का मूलमंत्र भी यही है और इससे इतर चलना पाप का कारण है।’’ जिस दिन भारत के राजनीतिक दल और उसके खेवनहार इस नेक रास्ते पर चलना प्रारंभ कर देंगे, उस दिन से ही ना इनके रास्ते में चुनाव आयोग आएगा और ना ही इनके पीठ पर न्यायालय की चाबुक पड़ेगी।
हम आज वैचारिक मंथन के दौर से गुजर रहे हैं। आजादी के तत्काल बाद स8ाा जिस वर्ग के हाथ में आई उस पर वापमंथी विचारधारा हावी थी। इस कारण धर्म-निरपेक्षता की आड़ में भारतीय संस्कृति और स5यता को ही जड़ों से काटने का सिलसिला शुरू हो गया। रामायण और महाभारत को मिथक मानने वाले वेदों तक पहुँचने से ही घबराते थे। अपनी सुविधा के लिए इस वर्ग ने देश के इतिहास को भी अपनी सुविधा अनुसार लिखना व पढ़ाना शुरू कर दिया। आजादी के सात दशक बाद देश एक बार फिर अपने अतीत से जुडक़र भविष्य का निर्माण करने में लगा है।
देश का बहुमत समाज आज पुन: अपनी जड़ों से जुड़ रहा है। तुष्टिकरण की राह पर चलने वाले इस समाज में आ रहे सकारात्मक बदलाव को लेकर घबरा रहे हैं और इसी कारण आजादी से पहले और आजादी के बाद के राष्ट्रवाद की तुलना कर समाज में आ रहे बदलाव का विरोध कर रहे हैं। गाँधी और अरविंद या उन जैसे अन्य नेताओं के होते हुए भी वीर सावरकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तुष्टिकरण तथा ‘बाँटों व राज करो’ वाली नीति का विरोध करते हुए राष्ट्रवाद की उस धारा को अपनाया था जो छत्रपति शिवाजी, राणा प्रताप ने अपनाई थी।
आजादी के बाद आज राणा प्रताप और शिवाजी की राह पर चलते हुए आधुनिक भारत की जो बात की जा रही है, उसका विरोध उचित नहीं है। भारत में आज भी सभी पंथों, भाषाओं और समुदायों को पूर्ण आजादी है और संविधान की दृष्टि में सभी समान है। गाँधी की भावनाओं को अतीत में जिस तरह जिन्ना ने रौंद कर देश का विभाजन कराया था उसको देखते हुए तो आधुनिक भारत में राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी द्वारा दिखाए मार्ग पर चलकर राष्ट्रवाद की वर्तमान अवधारणा को और मजबूत करने की आवश्यकता है।