वीर सावरकर की स्थिति निरंतर बिगड़ती चली गई और 26 फरवरी 1966 की प्रातः स्पष्ट प्रतीत होने लगा कि उनका अंतिम समय समीप ही आ गया है। चिकित्सक अपना कर्त्तव्य निभाने में लग गये। ऑक्सीजन दी गई तथा सुइयां लगीं, किंतु सब व्यर्थ रहा। दिन में प्रायः 11 बजे वीर सावरकर अपनी अनन्त यात्रा के लिए महाप्रयाण कर गये।
स्वतन्त्रता का आलोक बिखेरने वाले इस ज्योतिपुंज के अवसान का समाचार सुनकर अशेष हिन्दू जगत् शोक के समुद्र में डूब गया। विश्व की एक निरुपम विभूति, जिसमें समस्त सांसारिक सुखों को तुच्छ मानकर उनका परित्याग कर दिया था, जिसने मातृभूमि के गौरव को सुरक्षित करने के लिए क्रांति के कंटकाकीर्ण पथ का वरण किया था, जिसके अदम्य राष्ट्रप्रेम तथा उत्साह के समक्ष विश्व की सभी बाधाएं हारकर नतमस्तक हो गई थीं, उस परम वीर पुरुष को चिर निद्रा में सोया देख निश्चय ही भारत मां मूक स्वर में चीत्कार कर उठी होगी। जो सदा सिंध प्रांत तथा सिंधु नदी की मुक्ति का संकल्प करता और कराता था, उस सपूत के शोक में निःसंदेह पुण्य सलिला सिंधु ने अपने अव्यक्त कलकल निनाद में करुण क्रन्दन किया होगा।