रत्नागिरि में स्थानबद्धता के समय वीर सावरकर से कई राष्ट्रीय स्तर के नेता, समाज-सुधारक आदि व्यक्ति मिलने आये थे, जिनसे उनकी तत्कालीन भारत की राजनीति, धर्म, संस्कृति आदि विषयों पर वार्ता हुई। 1924 में जब रत्नागिरि में प्लेग के प्रकोप के कारण सावरकर को कुछ समय के लिए नासिक ले जाये गये, तो वहां डॉक्टर मुंजे, जगद्गुरू शंकराचार्य आदि ने उनका स्वागत किया। उनका यह स्वागत-समारोह कालेराम मंदिर में सम्पन्न हुआ। उक्त महानुभावों के अतिरिक्त अनेकानेक नागरिकों ने भी इसमें भाग लिया। ‘केसरी’ के संपादक प्रख्यात पत्रकार नरसिंह चिन्तामणि केलकर ने उन्हें अभिनन्दन पत्र भेंट किया।
1925 में डॉक्टर केशव राव बलिराम हेडगेवार शिरगांव, रत्नागिरि में वीर सावरकर से मिले। इस समय तक उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संगठन नहीं किया था। डॉक्टर हेडगेवार ने सावरकर से हिन्दुओं का कोई राष्ट्रीय संगठन बनाने के विषय में विचार-विमर्श किया। सावरकर इस योजना से अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उन्होंने डॉक्टर हेडगेवार को इस पुनीत कार्य के लिए अपना पूर्ण समर्थन देने का वचन दिया। रत्नागिरि से मुक्ति के तुरंत बाद उन्होंने 12 दिसंबर, 1937 को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपेक्षा की कि हिन्दू युवकों को संस्कृति के साथ ही शस्त्रास्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जाये। इसके बाद उन्होंने संघ के कई कार्यक्रमों में भाग लिया।
1924 में कांग्रेस के प्रसिद्ध नेता मौलाना मोहम्मद अली ने भी सावरकर से भेंट की। उन्होंने सावरकर की देशभक्ति, त्याग-भावना आदि की मुक्त कंठ से प्रशंसा की, किंतु शुद्धि आंदोलन का विरोध किया। इस पर सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पहले मुल्ला- मौलवियों द्वारा हिन्दुओं को मुसलमान बनाने से रोका जाए, इसके बाद ही शुद्धि आंदोलन को रोकने पर विचार किया जाएगा।’’
महात्मा गांधी भी मार्च, 1927 में स्थानबद्ध वीर सावरकर से मिलने रत्नागिरि गये। इन दोनों महापुरूषों की विचारधाराओं में आमूल परिवर्तन होते हुए भी गांधीजी सावरकर के ज्ञान, देशभक्ति, त्याग आदि गुणों के प्रशंसक थे। गांधीजी ने भी सावरकर के शुद्धि आंदोलन की आलोचना करनी प्रारंभ कर दी।
इसके साथ ही उन्होंने गांधीजी को सावधान किया कि मुस्लिम लीग के नेता वास्तव में भारत को एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में बदल देना चाहते हैं। भारत के क्रांतिकारी युवक सावरकर के ‘1857 के स्वातन्त्र्य समर’ से अत्यधिक प्रभावित थे। इस ग्रंथ को ‘क्रांतिकारियों की गीता’ कहा जाने लगा था। शहीद भगतसिंह ने इस ग्रंथ को गुप्त रूप में प्रकाशित कराकर क्रांतिकारियों को दिया था। वे भी वीर सावरकर से अत्यंत प्रभावित थे। 1928 में भगतसिंह गुप्त रूप में रत्नागिरि जाकर सावरकर से मिले। वस्तुतः इस ग्रंथ को प्रकाशित कराने की आज्ञा उन्होंने इसी भेंट में ले ली थी। दोनों वीरों के बीच मातृभूमि की स्वतन्त्रता के विषय में दीर्घ विचार-विमर्श हुआ।
नेपाली गोरखा सभा के अध्यक्ष ठाकुर चंदन सिंह तो एक शिष्टमंडल के साथ आये थे। वीर सावरकर के व्यक्तित्व एवं विचारों से वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने वीर सावरकर की तुलना नेपोलियन से की थी। उन्होंने इस भेंट के बाद कहा था-‘‘अब मुझे ज्ञात हो गया है कि फ्रांस का सेनापति नेपोलियन कैसे प्रभावशाली व्यक्तित्व का पुरुष रहा होगा।’’