परस्पर संबंधों पर आधारित है जिन्दगी। संबंध की पवित्रता को ठीक समझकर परस्पर पूरक जीवन जीने से ही ऐश्वर्य की प्राप्ति कर सकते हैं। इस तत्व को श्री कृष्ण जी ने बहुत ही रोचक ढंग से भगवदगीता में कहा है-
देवान भावयतानेन, ते देवा भाव यन्नुवः।
परस्परं भाव यन्तः, श्रेयः परम वाप्स्यथः।।
ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये भगवान जिस श्रेयमार्ग को दिखाता है उस अंतर संबद्धता का महोत्सव है श्रावण – पूर्णिमा को मनाया जाने वाला रक्षाबंधन उत्सव। श्रावण (सावन) मास (महीना) के अंतिम दिन पूर्णिमा की तिथि को रक्षाबंधन पर्व मनाया जाता है। इसके पहली वाली पूर्णिमा गुरु-पूर्णिमा थी, जो गुरु और शिक्षकों को समर्पित थी। उसके पहले बुद्ध पूर्णिमा थी, और उसके भी पहले चैत्र-पूर्णिमा थी। तो इस चौथी पूर्णिमा को श्रावण-पूर्णिमा कहते हैं, और ये वाला पूरा चाँद भाई-बहन के प्रेम और कर्तव्य के सम्बन्ध को समर्पित है। वर्ष 2018 में यह 26 अगस्त, के दिन मनाया जायेगा। यह पर्व भाई-बहन के मधुर प्रेम का भी प्रतीक है। रक्षाबंधन के पवित्र दिन बहनें अपने भाई की सलामती और कामयाबी कामना करती हैं और उन्हें रक्षा-सूत्र (राखी) बाँधती हैं, साथ ही भाई भी तन-मन-धन से बहन के हितरक्षा का वचन लेते हैं और बहनों को स्नेहवश उपहार प्रदान करते हैं।
भारतीय परम्पराओं का यह एक ऐसा पर्व है, जो केवल भाई बहन के स्नेह के साथ साथ हर सामाजिक संबन्ध को मजबूत करता है। इस लिये यह पर्व भाई-बहन को आपस में जोड़ने के साथ साथ सांस्कृतिक, सामाजिक महत्व भी रखता है। रक्षा बंधन के महत्व को समझने के लिये सबसे पहले इसके अर्थ को समझना होगा। ‘रक्षाबंधन’ रक्षा़बंधन दो शब्दों से मिलकर बना है। अर्थात् एक ऐसा बंधन जो रक्षा का वचन लें। इस दिन भाई अपनी बहन को उसकी दायित्वों का वचन अपने ऊपर लेते है। रक्षा बंधन का पर्व विशेष रूप से भावनाओं और संवेदनाओं का पर्व है। एक ऐसा बंधन जो दो जनों को स्नेह की धागे से बांध ले। रक्षा बंधन को भाई-बहन तक ही सीमित रखना सही नहीं होगा। बल्कि ऐसा कोई भी बंधन जो किसी को भी बाँध सकता है।
भाई-बहन के रिश्तों की सीमाओं से आगे बढ़ते हुए यह बंधन आज गुरु का शिष्य को राखी बाँधना, एक भाई का दूसरे भाई को, बहनों का आपस में राखी बाँधना और दो मित्रों का एक-दूसरे को राखी बांधना, माता-पिता का संतान को राखी बाँधना हो सकता है। आज के परिपेक्ष्य में राखी केवल बहन का रिश्ता स्वीकारना नहीं है अपितु राखी का अर्थ है, जो यह श्रद्धा व विश्वास का धागा बाँधता है। वह राखी बंधवाने वाले व्यक्ति के दायित्वों को स्वीकार करता है। उस रिश्ते को पूरी निष्ठा से निभाने की कोशिश करता है। सबसे श्रेष्ठ संबंध भातृत्व भाव है। हम सब एक ही माता के पुत्र हैं, इस भाव से ही एकात्म भाव प्रकट हो जाता है। वहीं से परस्पर एैक्य भाव से अनन्य भाव के साथ आपस में सेवा करने का भाव अंकुरित हो जाता है। आत्मैक्य बोध का अभाव समाज को बिखराव, पराभव और सर्वनाश की ओर खींचकर ले जायेगा।
यूं तो रक्षाबन्ध से जुड़ी बहुत सारी एतिहासिक कथाएँ है, लेकिन जो सबसे ज्यादा रोमांचक कथा है, वह महाभारत युग से जुड़ी हुई है। शिशुपाल भगवान् कृष्ण के रिश्तेदार लगते थे। जब शिशुपाल का जन्म हुआ तब उनके 3 नेत्र तथा 4 भुजाएँ थीं और ये आकाशवाणी हुई थी उनकी मृत्यु का कारण वह व्यक्ति होगा जिसकी गोद में जाने पर बालक अपने नेत्र तथा दो भुजाओं का परित्याग कर देगा। एक बार कृष्ण, शिशुपाल से मिलने आये और उसे अपनी गोद में लिया। उसे गोद में लेते ही शिशुपाल की काया-पलट हुई और वह सुन्दर हो गया। उसकी माँ अपने बेटे को स्वस्थ देखकर बहुत प्रसन्न हुई और उन्होंने श्रीकृष्ण से उसकी रक्षा की माँग की। कृष्ण ने शिशुपाल की माता को वचन दिया कि वह शिशुपाल के 100 अपराध क्षमा करेंगे अर्थात् उसे सुधरने के 100 मौके देंगे। परन्तु उसके बाद उसे दण्ड़ देंगे।
शिशुपाल बड़ा होकर एक दुष्ट और क्रूर राजा बना और एक दिन उन्होंने भरी राज्यसभा में भगवान श्री कृष्ण की बहुत निंदा की। 100 अपराध तक भगवान शान्त रहे तत्पश्चात् क्रोधित होकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया।
शिशुपाल के वध के दौरान जब श्री कृष्ण अपने चक्र को छोड़ रहे थे, तो उनकी ऊँगली कट गई और निरंतर रक्त बहने लगा। यह देखकर वहाँ पर उपस्थित सभी लोग, श्री कृष्ण के घाव पर कुछ बाँधने और रक्त के बहाव को रोकने के लिए कोई वस्त्र ढूँढने लगे। वहाँ पर मौजूद, द्रौपदी से रहा नहीं गया और उन्होंने तुरंत ही अपनी साड़ी का किनारा फाड़ कर कृष्ण की अंगुली में बाँध दिया।
रक्त का बहाव रुक गया और श्रीकृष्ण ने भावुक होकर द्रौपदी को कहा – ‘‘बहन..!! इस साड़ी की मैं हमेशा लाज रखूँगा।’’ चूँकि उन्होंने कष्ट के समय भगवान कृष्ण की सहायता की थी, इसीलिए उन्होंने द्रौपदी को एक वचन दिया की वह ताउम्र अपनी बहन की रक्षा करेंगे और हर मुश्किल के समय उनका साथ देंगे। इसी ऋण को चुकाने के लिए दुःशासन द्वारा चीरहरण करते समय कृष्ण ने द्रौपदी की लाज रखी।
रक्षाबंधन से संबंधित उदाहरण इसके वैचारिक पक्ष को उजागर करते है। भयानक पराजय व पलायन के बावजूद देवेन्द्र के नेतृत्व में देवगण अमरावती के ऊपर अपना वर्चस्व पुनर्स्थापित करने के लिये एक अनुष्ठान के रूप में रक्षाबंधन को अपनाते हैं ऐसा इतिहास में वर्णन आता है। आपस में जोड़ने वाला आंतरिक पवित्र सुवर्ण सूत्र तोड़ने से देवों की पराजय प्रांरभ हो गई। एकता और अपनेपन का भाव नष्ट होने के कारण देवत्व लुप्त हो कर वे सामान्य बन गये। गुरू के आदेशानुसार हुये रक्षाबंधन से उनको सम्पत्तियाँ वापस मिलती है। देवी संपत्ति वापस आने पर वे शक्तिशाली होकर संपूर्ण विश्व को बचाते हैं। अपनेपन के भाव से एकात्म बनकर, परस्पर भावयन्तः के आधार पर वे एक श्रेष्ठ लक्ष्य को पाने के लिये अधर्म के विरुद्ध संघर्ष करने के लिये आगे आते हैं। आसुरी शक्तियों के ऊपर विजय प्राप्त करते हैं।
जब लक्ष्मी जी ने दानवराज बलि के राखी बाँधीः
पुराणों के अनुसार रक्षा बंधन पर्व लक्ष्मी जी का बली को राखी बाँधने से भी जुड़ा हुआ है। इसके लिए पुराणों में एक कथा है जो इस प्रकार है : जब दानवों के राजा बलि ने अपने सौ यज्ञ पूरे कर लिए तो उन्होंने चाहा कि उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो, राजा बलि की इस मनोइच्छा का भान देवराज इन्द्र को होने पर, देवराज इन्द्र का सिंहासन डोलने लगा। जब देवराज इंद्र को कोई उपाय नहीं सूझा तो वो घबरा कर भगवान विष्णु की शरण में गए, और बलि की मंशा बताई तथा उन्हें इस समस्या का निदान करने को कहा। देवराज इंद्र की बात सुनकर भगवान विष्णु वामन अवतार ले, ब्राह्मण वेश धर कर, राजा बलि के यहाँ भिक्षा माँगने पहुँच गए। क्योंकि राजा बलि अपने दिए गए वचन को हर हाल में पूरा करते थे। जब राज बलि ने ब्राह्मण बने श्री विष्णु से कुछ माँगने को कहा तो उन्होंने भिक्षा में तीन पग भूमि माँग ली। राजा बलि ने उन्हें तीन पग भूमि दान में देते हुए कहा कि आप अपने तीन पग माप ले।
वामन रूप में भगवान ने एक पग में स्वर्ग ओर दूसरे पग में पृथ्वी को माप लिया। अभी तीसरा पैर रखना शेष था। बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। आखिरकार उसने अपना सिर भगवान के आगे कर दिया और कहा तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए। वामन भगवान ने ठीक वैसा ही किया, श्री विष्णु के पैर रखते ही, राजा बलि पाताल लोक पहुँच गए। बलि के द्वारा वचन का पालन करने पर, भगवान विष्णु अत्यन्त खुश हुए, उन्होंने आग्रह किया कि राजा बलि उनसे कुछ माँग लें। इसके बदले में बलि ने रात दिन भगवान को अपने सामने रहने का वचन मांग लिया, श्री विष्णु को अपना वचन का पालन करते हुए, राजा बलि का द्वारपाल बनना पडा। जब यह बात लक्ष्मी जी को पता चली तो उन्होंने नारद जी को बुलाया और इस समस्या का समाधान पूछा। नारद जी ने उन्हें उपाय बताया कि आप राजा बलि को राखी बाँध कर उन्हें अपना भाई बना लें और उपहार में अपने पति भगवान विष्णु को माँग ले। लक्ष्मी जी ने ऐसा ही किया उन्होंने राजा बलि को राखी बाँध कर अपना भाई बनाया और जब राजा बलि ने उनसे उपहार माँगने को कहा तो उन्होंने अपने पति विष्णु को उपहार में माँग लिया। जिस दिन लक्ष्मी जी ने राजा बलि को राखी बाँधी उस दिन श्रावण पूर्णिमा थी। कहते है की उस दिन से ही राखी का त्यौहार मनाया जाने लगा।
रक्षाबंधन के उद्भव के पीछे का भाव व तत्व कितना महत्वपूर्ण था इसके बारे में बहुत कुछ कहा गया है। स्वत्व जागरण एवं स्वातंत्र्य हासिल करने के लिये हुये संघर्ष के कालखंड में रक्षाबंधन ने धार्मिक और राष्ट्रीय भूमिका को निभाया लेकिन बाद में इतिहास की तेज गति के साथ रक्षाबंधन एक उत्सव मात्र बन गया। सही अर्थ में समाज को संगठित व सशक्त बनाना है तो उसकी पूर्व शर्तों में सर्वप्रथम समरसता का अनुभव सर्वत्र पहुँचाने का कार्य है। प्रत्येक व्यक्ति के अंदर, मैं समाज का एक अभिन्न अंग हूँ ऐसा भाव जगना चाहिये। इस प्रेरणा के बिना समाज हित के लिये कार्य करने की अनुभूति जगाना कठिन होता है। सबल, सम्पन्न समाज खड़ा करने में प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण है। समाज का पिछड़ापन मेरी कमजोरी है, उस कमजोरी को दूर करने के लिये हर व्यक्ति को समाज में रचनात्मक कार्य शुरू करने होंगे।
जब इन्द्राणी ने बाँधा देवराज इंद्र को रक्षा सूत्र
रक्षाबंधन से जुड़ी सबसे प्राचीन कथा देवराज इंद्र से सम्बंधित है, जिसका की भविष्य पुराण में उल्लेख है। इसके अनुसार एक बार देवताओं और दानवों में कई दिनों तक भयंकर युद्ध हुआ जिसमे की देवताओं की हार होने लगी, यह सब देखकर देवराज इंद्र बड़े निराश हुए तब इंद्र की पत्नी शचि ने विधान पूर्वक एक रक्षासूत्र तैयार किया और श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ब्राह्मणों द्वारा देवराज इंद्र के हाथ पर बँधवाया जिसके प्रभाव से इंद्र युद्ध में विजयी हुए। तभी से यह “रक्षा बंधन” पर्व ब्राह्मणों के माध्यम से मनाया जाने लगा। आज भी भारत के कई हिस्सों में रक्षा बंधन के पर्व पर ब्राह्मणों से रक्षासूत्र बँधवाने कि रीति है।
वर्तमान समाज में हम सब के सामने जो सामाजिक कुरीतियाँ सामने आ रही है। उन्हें दूर करने में रक्षा बंधन का पर्व सहयोगी हो सकता है। आज जब हम बुजुर्ग माता – पिता को सहारा ढूँढते हुए वृ्द्ध आश्रम जाते हुए देखते है, तो अपने विकास और उन्नति पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ पाते है। इस समस्या का समाधन राखी पर माता-पिता को राखी बाँधना, पुत्र-पुत्री के द्वारा माता पिता की जीवन भर हर प्रकार के दायित्वों की जिम्मेदारी लेना हो सकता है। इस प्रकार समाज की इस मुख्य समस्या का सामाधान किया जा सकता है।
इस प्रकार रक्षा बंधन को केवल भाई बहन का पर्व न मानते हुए हम सभी को अपने विचारों के दायरे को विस्तृत करते हुए, विभिन्न संदर्भों में इसका महत्व समझना होगा। संक्षेप में इसे अपनत्व और प्यार के बंधन से रिश्तों को मजबूत करने का पर्व है। बंधन का यह तरीका ही भारतीय संस्कृति को दुनिया की अन्य संस्कृतियों से अलग पहचान देता है।
समाज का एक वर्ग या व्यक्ति अगर दुर्बल है तो, समाज भी उस हिसाब से दुर्बल है। समाज की दुर्बलता को ठीक किये बिना समाज आगे नहीं बढ़ेगा। समाज के सभी सदस्यों ने अपने आप आगे आकर, पिछड़े हुये बंधुओं को आगे करने के लिये प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा होता है तो पूरे समाज में विशेषतः दुर्बल वर्ग में और मेरे अंदर एक ही चेतना विद्यमान है अथवा हम सब एक ही हैं का बोध निर्माण होगा। समरसता की अनुभूति जगाना है तो, हम सब कौन है यह समझना चाहिए।
अपने समाज के संदर्भ में विचार किया तो यह मालूम हो जायेगा कि हम सब हिन्दू है। अपना स्वत्व हिन्दुत्व ही है। समाज को जोड़ने वाली शक्ति अर्थात् हिन्दुत्व को ठीक से समझकर उस आधार पर आगे बढना।
स्वामी विवेकानंद जी ने इसीलिये बिना संदेह के यह सत्य बताया ‘‘तब ही आप हिन्दू बनेंगे, जब हिन्दू नाम सुनकर ही आपके शरीर में शक्ति का एक विद्युत प्रवाहित हो जायेगा’’। आगे चलकर उन्होंने यह भी कहा है कि एक हिन्दू का दुःख एवं कष्ट आपके हृदय को अनुभव करना चाहिये। वह दीन-दुःखी व्यक्ति आपका ही पुत्र है, ऐसा जब आपको लगेगा उसी वक्त आप हिन्दू हो जाएँगे।
इस में दो पहलू है। पहली बात हिन्दुत्व बोध और दूसरी बात, हम सब एक है ऐसी भावना है। मतलब स्वत्व बोध से समरसता की अनुभूति जगेगी।
आर्थिक या सामाजिक या सांस्कृतिक, किसी भी प्रकार का पिछड़ापन अगर समाज में रहता है तो, उसको दूर करते हुये, उन बंधुओं को आगे ले जाने की जरूरत है। उसके बिना देश का विकास संभव नहीं है। यह सत्य समझकर प्रत्येक व्यक्ति ने स्वार्थ छोड़कर अपनेपन के भाव से समाज के लिये कार्य करना चाहिये। यह प्रेरणा रक्षाबंधन देता है। उन लोगों की उन्नति का संपूर्ण दायित्व अपने मन में लेने का संकल्प इस रक्षाबंधन की पवित्र बेला में हमें लेना चाहिये।
विनोद चपलोत
मुख्य कार्यकारी
महिला समृद्धि बैंक, उदयपुर