भारतीय समाज में प्राचीन काल से परंपरागत प्रकृति निर्भर तत्व ने आर्थिक समाजवाद की अवधारणा को 19वीं सदी के प्रमुख आदिवासी जननायक बिरसा मुंडा के अंदर जागृत किया था ।।गांधी से पहले गांधी की अवधारणा के तत्व के उभार के पीछे भी बिरसा मुन्डा का समाज एवं पड़ोस के सूक्ष्म अवलोकन एवं उसे नयी अंतर्दृष्टि देने का तत्व ही था।।। तभी तो उन्होंने गांधी के समान समस्याओं को देखा-सुना, फिर चिंतन-मनन किया।। उनका मुंडा समाज को पुनर्गठित करने का प्रयास अंग्रेजी हुकूमत के लिए विकराल चुनौती बना।। उन्होंने लोगों को नई सोच दी, जिसका आधार सात्विकता, आध्यात्मिकता, परस्पर सहयोग, एकता व बंधुता था।।उन्होंने श्गोरो वापस जाओश् का नारा दिया एवं परंपरागत लोकतंत्र की स्थापना पर बल दिया, ताकि शोषण मुक्त श्जनजाति प्रजातंत्रश् की स्थापना हो सके।।उन्होंने कहा था- महारानी राज जाएगा एवं अबुआ राज आएगा।।
हिन्दुस्तान की धरती पर उस पराधीनता के काल में भी ऐसे कई महान् और साहसी वीरों ने जन्म लिया है जिन्होंने अपने बल पर अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए थे उनमें से एक वीर नायक थे बिरसा मुंडा। वर्तमान भारत में रांची और सिंहभूमि के आदिवासी बिरसा मुंडा को श्बिरसा भगवानश् कहकर याद करते हैं तो उसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह भी हैै। मात्र 25 साल की उम्र में उन्होंने लोगों को एकत्रित कर एक ऐसे आंदोलन का संचालन किया जिसने देश की स्वतंत्रता में अहम् योगदान दिया। जनजाति समाज में एकता लाकर उन्होंने देश में धर्मांतरण को रोका और दमन के खिलाफ आवाज उठाई ।
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को उलिहतु, रांची में हुआ था। यह कभी बिहार का हिस्सा हुआ करता था, पर अब यह क्षेत्र झारखंड में आ गया है। साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढ़ने गए। सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बचपन से ही विद्रोह था। बिरसा मुंडा को अपनी भूमि, संस्कृति से गहरा लगाव था। बिरसा मुण्डा जनजातियों के भूमि आंदोलन के समर्थक थे तथा वे वाद-विवाद में हमेशा प्रखरता के साथ जनजातियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत करते थे। उन्हीं दिनों एक पादरी डॉ. नोट्रेट ने लोगों को लालच दिया कि अगर वह ईसाई बनें और उनके अनुदेशों का पालन करते रहें तो वे मुंडा सरदारों की छीनी हुई भूमि को वापस करा देंगे। लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न केवल दबा दिया गया बल्कि ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना की गई जिससे बिरसा मुंडा को गहरा आघात लगा। उनकी बगावत को देखते हुए उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया। फलतरू 1890 में बिरसा तथा उसके पिता चाईबासा से वापस आ गए। स्कूल से निकलने के बाद बिरसा मुंडा के जीवन में उस वक्त बड़ा बदलाव आया जब स्वामी आनंद पांडे से उनकी मुलाकात हुई और उन्होंने बिरसा मुंडा को हिंदू धर्म से परिचित कराया। यही वह दौर था जिसने बिरसा मुंडा के अंदर बदले और स्वाभिमान की ज्वाला पैदा कर दी। बिरसा मुंडा पर संथाल विद्रोह, चुआर आंदोलन, कोल विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड़ा। अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी। उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वापस लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे।
बिरसा मुंडा ने न केवल राजनीतिक जागृति के बारे में संकल्प लिया बल्कि अपने लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागृति पैदा करने का भी संकल्प लिया। बिरसा ने गांव-गांव घूमकर लोगों को अपना संकल्प बताया। उन्होंने ‘अबुआः दिशोम रे अबुआः राज’ (हमारे देश में हमारा शासन) का बिगुल फूंका। सन् 1857 के गदर के बाद सरदार आंदोलन संगठित जनांदोलन के रूप में शुरु हो गया तथा वर्ष 1858 से भूमि आंदोलन के रूप में विकसित यह आंदोलन सन् 1890 में तब राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हो गया, जिसका नेतृत्व बिरसा मुंडा ने किया। बिरसा के लोकप्रिय व्यक्तित्व के कारण सरदार आंदोलन में नई जान आ गई। अगस्त 1895 में वन संबंधी बकाये की माफी का आंदोलन चला। उसका नेतृत्व भी बिरसा ने किया। जब अंग्रेजी हुकूमत ने मांगों को ठुकरा दिया तब बिरसा ने भी ऐलान कर दिया कि ‘सरकार खत्म हो गई। अब जंगल जमीन पर जनजातियों का राज होगा।’ 9 अगस्त 1895 को चलकद में पहली बार बिरसा को गिरफ्तार किया गया, लेकिन उनके अनुयायियों ने उन्हें छुड़ा लिया। उनकी गतिविधियां अंग्रेज सरकार को रास नहीं आई। बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला। उन्हें उस इलाके के लोग ष्धरती बाबाष् के नाम से पुकारते और पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।
बिरसा के इस प्रकार लोगों को संगठित करने, अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ भड़काने के कारण बौखलाई अंग्रेजी हुकूमत ने कई प्रयत्नों के बाद 24 अगस्त 1895 को रात के अंधेरे में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह उकसाने का आरोप लगाया। मुंडा और कोल समाज ने बिरसाइतों के नेतृत्व में सरकार के साथ असहयोग करने का ऐलान कर दिया। विरोध के तेवर में फर्क नहीं पड़ने के कारण मुकदमे की कार्रवाई रोककर उन्हें तुरंत जेल भेज दिया गया तथा उन्हें दो साल सश्रम कारावास की सजा सुनायी गई।
सन् 1897 में झारखंड में भीषण अकाल पड़ा तथा चेचक की महामारी भी फैली। 30 नवम्बर 1897 को बिरसा जेल से छूटे तथा चलकद लौटकर अकाल तथा महामारी से पीड़ित लोगों की सेवा में जुट गए। उनका यह कदम अपने अनुयायियों को संगठित करने का आधार बना। फरवरी 1898 में डोम्बारी पहाड़ी पर मुंडारी क्षेत्र से आये मुंडाओं की सभा में उन्होंने आंदोलन की नई नीति की घोषणा की। सन् 1898 के अंत में यह अभियान रंग लाया और अधिकार हासिल करने, खोए राज्य की प्राप्ति का लक्ष्य, जमीन को मालगुजारी से मुक्त करने तथा जंगल के अधिकार को वापस लेने के लिये व्यापक गोलबंदी शुरु हुई। अनेक स्थानों पर बैठकें हुई। 24 दिसम्बर1899 को रांची से लेकर सिंहभूम जिला के चधरपुर थाने तक में विद्रोह की आग भड़क उठी। फलस्वरूप सेना और पुलिस की कम्पनी बुलाकर बिरसा की गिरफ्तारी का अभियान तेज किया गया। सरकार ने बिरसा की सूचना देने वालों और गिरफ्तारी में मदद देने वालों को पांच सौ रुपए का पुरस्कार देने का ऐलान किया। बिरसा ने आंदोलन की रणनीति बदली,साठ स्थानों पर संगठन के केन्द्र बने।
जहां बिरसा अपनी जनसभा संबोधित कर रहे थे, डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे। डोम्बारी पहाड़ी पर ही मुंडाओं की बैठक में बिरसा के द्वारा ‘उलगुलान’ का ऐलान किया गया। उलगुलान के इस एलान के बाद बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ्तारी भी हुई थी। बिरसा के इस आंदोलन की तुलना आजादी के आंदोलन के बहुत बाद सन् 1942 के अगस्त क्रांति के काल से की जा सकती है। बिरसा के नेतृत्व में अफसरों, पुलिस, अंग्रेज सरकार के संरक्षण में पलने वाले जमींदारों और महाजनों को निशाना बनाया गया और गोरिल्ला युद्ध ने हुकूमत की चूलें हिला दीं। आंदोलन को कुचलने के लिए रांची और सिंहभूम को सेना के हवाले कर दिया गया। आंदोलन की रणनीति के तहत उन्होंने अपने आंदोलन के केन्द्र बदले तथा घने जंगलों में संचालन व प्रशिक्षण के केन्द्र बनाए। सन् 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया।
3 फरवरी 1900 को सेंतरा के पश्चिम जंगल में बने शिविर से बिरसा को गिरफ्तार कर तत्काल रांची कारागार में बंद कर दिया गया। बिरसा के साथ अन्य 482 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया। उनके खिलाफ 15 आरोप दर्ज किए गए। शेष अन्य गिरफ्तार लोगों में सिर्फ 98 के खिलाफ आरोप सिद्ध हो पाया। बिरसा के विश्वासी गया मुंडा और उनके पुत्र सानरे मुंडा को फांसी दी गई। गया मुंडा की पत्नी मांकी को दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा दी गई।
मुकदमे की सुनवाई के शुरुआती दौर में उन्होंने जेल में भोजन करने के प्रति अनिच्छा जाहिर की। अदालत में तबियत खराब होने की वजह से उन्हें वापस जेल भेज दिया गया। 1 जून को जेल अस्पताल के चिकित्सक ने सूचना दी कि बिरसा को हैजा हो गया है और उनके जीवित रहने की संभावना नहीं है।9 जून 1900 की सुबह सूचना दी गई कि बिस्सा अब इस दुनिया में नहीं रहे। बिस्सा की मौत से देश ने एक महान् क्रांतिकारी को खो दिया, जिसने अपने दम पर जनजाति समाज को इकठ्ठा किया था। बिरसा के संघर्ष के परिणाम स्वरूप ही छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 बना। जल, जंगल और जमीन पर पारंपरिक अधिकार की रक्षा के लिए शुरु हुए आंदोलन एक के बाद एक शृंखला में गतिमान रहे ।
बिरसा मुंडा की गणना स्वतंत्रता संग्राम के उन महान् देशभक्तों में की जाती है जिन्होंने जनजातियों को एकजुट कर उन्हें अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया। ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले हिन्दुओं को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षड्यन्त्र के प्रति सचेत किया। अपने पच्चीस साल के छोटे जीवन काल में ही उन्होंने जो क्रांति पैदा की वह अतुलनीय है। बिरसा मुंडा धर्मान्तरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले भारतीय संस्कृति के महान् सेनानायक थे।
राजेश सैनी