बाल गंगाधर तिलक के बचपन का नाम केशव था और यही नाम इनके दादा जी (रामचन्द्र पंत) के पिता का भी था इसलिये परिवार में सब इन्हें बलवंत या बाल कहते थे, अतः इनका नाम बाल गंगाधर पड़ा। इनका बाल्यकाल रत्नागिरि में व्यतीत हुआ। बचपन में इन्हें कहानी सुनने का बहुत शौक था इसलिये जब भी समय मिलता ये अपने दादाजी के पास चले जाते और उनसे कहानी सुनते। दादाजी इन्हें रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, गुरु नानक, नाना साहब आदि देशभक्तों और क्रान्तिकारियों की कहानी सुनाते थे। तिलक बड़े ध्यान से उनकी कहानियों को सुनकर प्रेरणा लेते। इन्हें अपने दादाजी से ही बहुत छोटी सी उम्र में भारतीय संस्कृति और सभ्यता की सीख मिली। इस तरह प्रारम्भ में ही इनके विचारों का रुख क्रान्तिकारी हो गया और ये अंग्रेजों व अंग्रेजी शासन से घृणा करने लगे।
पारिवारिक परिवेश और प्रारम्भिक शिक्षा
तिलक का जन्म एक सुसंस्कृत, मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका परिवार चितापावन वंश से संबंधित था जो सभी धार्मिक नियमों और परंपराओं का कट्टरता से पालन करते थे। इनके पिता, गंगाधर रामचन्द्र पंत रत्नागिरि में सहायक अध्यापक थे। इनके पिता अपने समय के लोकप्रिय शिक्षक थे।
इनकी माता, पार्वती बाई धार्मिक विचारों वाली महिला थी। इनके दादा जी स्वयं महा-विद्वान थे। उन्होंने बाल को बचपन में भारतीय संस्कृति, सभ्यता, परम्पराओं और देशभक्ति की शिक्षा दी। अपने परिवार से बाल्यकाल में मिले संस्कारों की छाप तिलक के भावी जीवन में साफ दिखाई पड़ती हैं।
तिलक के पिता ने घर पर ही इन्हें संस्कृत का अध्ययन कराया। जब बाल तीन साल के थे तब से ये प्रतिदिन संस्कृत का श्लोक याद करके 1 पाई रिश्वत के रूप में लेते थे। पाँच वर्ष के होने तक इन्होंने बहुत कुछ सीख लिया था। इन्हें 1861 में प्रारम्भिक शिक्षा के लिये रत्नागिरि की मराठी पाठशाला में भेजा गया। इनके पिता ने इन्हें शुरु से ही आत्मनिर्भर रहने के साथ ही साथ धैर्य और सहनशीलता की शिक्षा भी दी। बाल्यकाल में परिवार से मिली शिक्षाओं के कारण जीवन के हर मोड़ पर इन्होंने धैर्यपूर्वक कार्य किया। जिसने इनके चरित्र को और भी अधिक उज्ज्वल कर दिया और इन्हें लोकमान्य के नाम से जाना जाने लगा।
पूना में बाल गंगाधर तिलक
1866 में गंगाधर रामचन्द्र पंत (तिलक के पिता) का तबादला पूना हो जाने के कारण तिलक परिवार के साथ पूना आ गये। इस समय इनकी उम्र 10 वर्ष की थी। पूना के स्कूल में पढ़ते समय तिलक के व्यक्तित्व का एक नया ही रूप सामने आया। इनके विद्यार्थी जीवन की ऐसी अनेक घटनाएँ हैं जिन्होंने बचपन में ही ये स्पष्ट कर दिया था कि ये बालक न तो कभी अपने ऊपर हो रहे अन्याय सहेगा और न ही किसी और के ऊपर हो रहे अन्याय को चुपचाप देखेगा। इन घटनाओं ने तिलक को न्यायप्रियता, निर्भीक, जिद्दी स्वभाव, सत्यवादिता और अपने उसूलों पर कायम रहने वाला सिद्ध कर दिया। तिलक के विद्यार्थी जीवन की अनेक घटनाओं में से कुछ निम्न हैंः-
‘‘एक बार बाल का मन चौपड़ खेलने को कर रहा था, लेकिन उनके साथ खेलने के लिये कोई भी दूसरा साथी नहीं था। अतः उन्होंने खम्भें को अपना दूसरा साथी बना लिया और दायें हाथ (सीधे) से खम्भें के पासों को ड़ालते और बायें हाथ से अपने पासों को फेंककर खेलने लगे। इस तरह खेलते हुये ये दो बार हार गये। इनकी दादी दूर बैठी हुई इन्हें ऐसे खेलते हुए देख रहीं थी। तिलक को खम्भें से हारते हुये देखकर हँसते हुये बोली, ‘अरे बेटे गंगाधर! तुम एक खम्भे से हार गये।’ दादी की बात सुनकर गंगाधर ने बड़ी सौम्यता से कहा, ‘‘हार गया तो क्या हुआ, मेरा दायां हाथ खंभे की तरफ था और मुझे दाएं हाथ से खेलने की आदत है। इसलिए खंभा जीत गया और मैं हार गया।’’
‘‘एक बार इनकी क्लास के कुछ विद्यार्थियों ने मूँगफली खाकर मूँगफली के छिलके क्लास में ही फेंक दिये जब इनके अध्यापक ने क्लास को गंदा देखा तो पूरी क्लास को दंडित करने लगे। जब शिक्षक ने उन्हें भी दंड देने के लिये हाथ आगे करने को कहा तो तिलक ने दंड स्वीकार करने से मना कर दिया और इन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘जब मैंने क्लास को गंदा नहीं किया हैं तो दंड क्यों स्वीकार करूँ।’ इस बात को सुनकर अध्यापक ने इनके पिता को सूचना दी। स्कूल की सारी घटना को सुनकर इनके पिता ने शिक्षक से कहा कि मैंने अपने बेटे को कुछ भी खरीदने के लिये रुपये नहीं दिये और न ही मेरा बेटा झूठ बोलता हैं, न ही बाजार की कोई चीज खाता हैं।’’
बाल गंगाधर तिलक अपने जीवन में कभी भी अन्याय के सामने नहीं झुके। उस दिन अगर शिक्षक के डर से तिलक ने स्कूल में मार खा ली होती तो शायद उनके अंदर का साहस बचपन में ही समाप्त हो जाता।
‘‘लोकमान्य तिलक बचपन से ही बहुत साहसी और निडर थे। गणित और संस्कृत उनके प्रिय विषय थे। स्कूल में जब उनकी परीक्षाएं होतीं, तब गणित की परीक्षा में ये हमेशा कठिन सवालों को हल करना ही पसंद करते थे।
इनकी इस आदत के बारे में इनके एक मित्र ने कहा कि तुम हमेशा कठिन सवालों को ही क्यों हल करते हो? अगर तुम सरल सवालों को हल करोगे तो तुम्हें परीक्षा में ज्यादा अंक मिलेंगे। इस पर तिलक ने जवाब दिया कि मैं ज्यादा-से-ज्यादा सीखना चाहता हूँ, इसलिए कठिन सवालों को हल करता हूँ। अगर हम हमेशा ऐसे काम ही करते रहेंगे, जो हमें सरल लगते हैं तो हम कभी कुछ नया नहीं सीख पायेंगे। यही बात हमारी जिंदगी पर भी लागू होती है, अगर हम हमेशा आसान विषय, सरल सवाल और साधारण काम की तलाश में लगे रहेंगे तो कभी आगे नहीं बढ़ पाएंगे।’’
कुशाग्र (तेज) बुद्धि के स्वामी
तिलक बचपन से ही पढ़ने में तेज थे। इन्हें जब भी कुछ याद करने को दिया जाता ये उसे इतने अच्छे से याद करते कि कभी भूलते नहीं थे। जब इन्होंने हाई स्कूल में प्रवेश लिया तो देखा कि इन्हें आधे से ज्यादा पाठ्यक्रम पहले से ही याद था। एक बार इनके अध्यापक क्लास में नैषध काव्य की व्याख्या करा रहे थे। उन्होंने देखा कि तिलक उस व्याख्या को नहीं लिख रहे हैं। अध्यापक ने जब इनसे पूछा कि तुम व्याख्या क्यों नहीं कर रहे तो इन्होंने निड़रता से उत्तर दिया कि ये इसकी और भी बेहतर व्याख्या स्वयं कर सकते हैं जो इनकी ज्यादा मदद करेंगी।
14 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही इनकी अंग्रेजी और संस्कृत पर अच्छी पकड़ थी। इनके पिता संस्कृत में इनके कविता लिखने की शैली के साथ ही अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी और हिन्दी भाषा के इनके ज्ञान को देखकर खुद बहुत आश्चर्यचकित थे।
उच्च शिक्षा व कॉलेज का जीवन
अपने पिता की असमय मृत्यु पर बाल गंगाधर तिलक को गहरा सदमा लगा। पिता की मृत्यु के समय तिलक मैट्रिक की पढ़ाई कर रहे थे। इन्होंने बहुत साहस के साथ अपने आप को संभाला और पिता की मृत्यु के 4 महीने के बाद मैट्रिक की परीक्षा पास की। 1872 में मैट्रिक पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिये इन्होंने डेक्कन कॉलेज में प्रवेश लिया। प्रारम्भ में तिलक कॉलेज 5 मील पैदल चलकर जाते थे लेकिन बाद में ये कॉलेज के छात्रावास में रहने लगे।
इनकी चाची इन्हें अपने पुत्र की तरह प्रेम करती थी। गंगाधर तिलक के छात्रावास में रहने के निर्णय पर ये चिन्तित हो गयी कि कहीं ब्रिटिश संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाला ये कॉलेज इनके भतीजे को भी अपने रंग में न रंग ले। लेकिन तिलक ने कभी कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिससे इनके परिवारजनों को कभी लज्जित होना पड़े। ये वहाँ हमेशा सादा रेशमी धोती पहनकर रहते थे और पलभर के लिये भी इन्होंने भारतीय संस्कृति को नहीं छोड़ा। छात्र जीवन में तिलक ने हमेशा सादा जीवन व्यतीत किया। किसी भी तरह के दिखावे और फैशन का इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
तिलक ने जिस समय कॉलेज में प्रवेश लिया था ये उस समय बहुत दुर्बल शरीर वाले थे। अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट करने के लिये ये प्रतिदिन नियम से व्यायाम करते थे। कुश्ती, तैराकी, नौकायन इनके प्रिय खेल बन गये। ये कई-कई घंटों तक पानी में तैरते रहते थे। कॉलेज जीवन में एक साल के अन्दर ही तिलक का शरीर मजबूत और आकर्षक हो गया।
तिलक पढ़ते समय बहुत गहनता से पढ़ते थे। जब भी ये किसी विषय को पढ़ते तो उस विषय की जड़ तक पहुँचकर उसका अध्ययन करते थे। तिलक अधिकतर सब के सोने के बाद पढ़ते थे और पूरी रात अध्ययन करते हुये बिता देते थे। ये बहुत स्पष्ट वादी थे। इनके मन में जो भी आता ये साफ शब्दों में कह देते थे। इनके सहपाठी इसी आदत के कारण इन्हें ‘मि.ब्लंट’ कहते थे। व्यायाम करने के बाद इनकी शरीरिक शक्ति बढ़ गयी थी जिससे इनके साथी इन्हें ‘मि.डेविल’ भी कहते थे।
सरकारी नौकरी न करने का निर्णय
कॉलेज में तिलक की मुलाकात गोपालराव आगरकर, खरे और अप्पा साहेब शारंगपणि से हुई। इनसे मुलाकात मित्रता में बदल गयी। आगरकर और तिलक ने अपने देश की सेवा करने के उद्देश्य से जीवन भर सरकारी नौकरी न करने का प्रण लिया। तिलक डबल ग्रेजुएट थे, यदि चाहते तो आसानी से कोई भी सरकारी नौकरी कर सकते थे लेकिन इन्होंने अपनी पहली प्राथमिकता देश सेवा को दी और सरकार के अधीन कोई भी पद ग्रहण नहीं किया।
भारत की तत्कालीन परिस्थितियों पर तिलक के विचार और सुधार के उपाय
तिलक जब मात्र 1 साल के थे, वो समय भारतीय के लिये ऐतिहासिक क्षण था। भारत की आजादी के लिये पहला स्वतंत्रता संग्राम हुआ, जिसे 1857 की क्रान्ति के नाम से जाना जाता है। हांलाकि उस समय तिलक बहुत छोटे थे परन्तु इस क्रान्ति ने उनके बाल मन पर अमिट छाप छोड़ी। तिलक के दादाजी रामचन्द्र पंत ने इन्हें इस क्रान्ति में भाग लेने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों की कहानी सुनाकर इनके हृदय में देशभक्ति की लौ प्रज्वलित कर दी। इन सब परिस्थितियों ने बाल्यकाल में ही इन में एक चिन्तक के गुणों को जाग्रत कर दिया।
तिलक ने देश की तत्कालीन परिस्थितियों पर बहुत गहरा चिन्तन किया। इन्होंने महसूस किया कि यदि देश को गुलामी की वर्तमान अवस्था से बाहर निकालना है तो इसके लिये भारत की शिक्षा पद्धति में सुधार करना आवश्यक है, क्योंकि अंग्रेजों द्वारा जिस पद्धति के आधार पर भारतीयों को शिक्षा दी जा रही है वो केवल इतनी ही है जिससे कि अंग्रेज हम पर लम्बें समय तक शासन कर सके।
तिलक ब्रिटिश प्रेरित भ्रष्ट और मूर्ख बनाने वाली शिक्षा के भारतीय मस्तिष्क पर पड़ने वाले प्रभावों से पूरी तरह परिचित थे। इनका मानना था कि ब्रिटिशों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा पूर्व व पश्चिम की नस्लवादिता पर आधारित थी। इसलिये इन्होंने सबसे पहले राष्ट्रीय शिक्षा पर बल दिया। एक सम्मानित शिक्षाविद् के रूप में प्रसिद्ध महादेव गोविन्द रानाडे का भी यहीं मानना था कि देश को जब तक आजाद नहीं कराया जा सकता जब तक कि इसके पास अमेरिका की तरह राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति और राष्ट्रीय प्रेस न हो।
न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना
1876 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने बी.ए. की डिग्री प्राप्त की और इसके बाद देशसेवा में अपना योगदान देने के उद्देश्य से 1879 में एल.एल.बी. की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। इसी बीच इनके मन में अपने देश के युवाओं के हृदय में राष्ट्रीय चेतना जगाने की इच्छा हुई, जिसके लिये ये एक विद्यालय खोलना चाहते थे। जब गंगाधर तिलक ने इन्हें अपनी राष्ट्रीय शिक्षा योजना के बारे में बताया तो ये तुरन्त मदद करने के लिये तैयार हो गये। इस तरह तिलक ने आगरकर, चिपलूणकर, एम.बी. नामजोशी के सहयोग से जनवरी 1880 को पहले प्राइवेट स्कूल ‘‘न्यू इंग्लिश स्कूल’’ की स्थापना की। ये दोनों ही चाहते थे कि देश का प्रत्येक वर्ग (बच्चे, युवा, वृद्ध सभी) देश की वर्तमान परिस्थितियों को जाने। इस स्कूल ने पूना की सांस्कृतिक और राजनैतिक परिस्थितियों में एक नया इतिहास रचा था।
सर विलियम हंटर ने न्यू इंग्लिश स्कूल की शिक्षा प्रणाली से प्रभावित होकर टिप्पणी की थी –
‘‘इस विद्यालय की प्रगति देखते हुये मैं निश्चित होकर कह सकता हूँ कि पूरे भारत में इसकी बराबरी करने वाला एक भी स्कूल मेरी नजर में नहीं आया। बिना किसी सरकारी सहायता लिये ये स्कूल सरकारी हाई स्कूल की न केवल बराबरी करेगा बल्कि उससे प्रतियोगिता भी कर सकता हैं। यदि हम दूसरे देशों के स्कूलों से इसकी तुलना करें तो भी ये ही प्रथम आयेगा।’’
पत्रिकाओं के माध्यम से जन-जागृति की नयी पहल
देश की तत्कालीन परिस्थितियों से देशवासियों को अवगत कराने और अपने राष्ट्रवादी कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिये तिलक ने अपने साथियों चिपलूणकर, नामजोशी और आगरकर के साथ समाचार पत्र निकालने का विचार किया। तिलक के साथी इनके इस विचार से सहमत हो गये और शीघ्र अति शीघ्र इस कार्य को शुरु करने के लिये तैयार हो गये।
1881 में समाचार पत्र के प्रकाशन के लिये आर्यभूषण प्रेस खरीदा गया। इस प्रेस में चिपलूणकर की निबंध-माला प्रकाशित होती थी। निबंध-माला के 66वें अंक में लोगों को सूचना दी गयी कि ‘केसरी’ और ‘मराठा’ दो समाचार पत्रों का प्रकाशन किया जायेगा। इसी अंक में इन दो समाचार पत्रों के प्रकाशन की नियमावली भी प्रकाशित की गयी।
‘केसरी’ और ‘मराठा’ समाचार पत्रों का प्रकाशन
तिलक के सहयोगियों चिपलूणकर, आगरकर, गर्दें और बी.एम. नामजोशी के संयुक्त हस्ताक्षरों के साथ ‘केसरी’ का घोषणापत्र प्रकाशित किया।
इस घोषणा पत्र ने ये साफ कर दिया था कि ये दोनों समाचार पत्र अन्य पत्रों की तरह प्रचलित शासन व्यवस्था की चापलूसी नहीं करेगें। इन दोनों पत्रों की विषय सामग्री एक ही थी। अन्तर केवल इतना था कि ‘केसरी’ पत्र मराठी भाषा में प्रकाशित होता था और ‘मराठा’ पत्र अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित किया जाता था। इन दोनों पत्रों का एकमात्र उद्देश्य देशवासियों में स्वाधीनता की भावना का विकास करना था।
अपने इसी उद्देश्य को सार्थक करते हुये ‘मराठा’ का पहला अंक 2 जनवरी 1881 को और ‘केसरी’ का पहला अंक 4 जनवरी 1881 को प्रकाशित किया गया। ‘केसरी’ पत्र के सम्पादन का कार्य गंगाधर तिलक करते थे और आगरकर ‘मराठा’ के सम्पादक के रूप में कार्य करते थे। ‘केसरी’ के प्रथम अंक के प्रकाशन के बाद खुद तिलक ने घर-घर जाकर इसकी प्रतियाँ ग्राहकों को पहुँचायी थी।
‘केसरी’ और ‘मराठा’ दोनों पत्रों के संस्थापक स्पष्टवादी और निर्भीक थे। ये दोनों ही इन पत्रों के माध्यम से सरकार की नीतियों और देश की वर्तमान परिस्थितियों पर सीधे कटाक्ष करके लेख लिखे जाते थे। इसके ग्राहकों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ने लगी। समाचार पत्रों की लोकप्रियता के साथ-साथ तिलक की भी लोकप्रियता बढ़ने लगी। लोगों को भी ये विश्वास हो गया कि ये लोग न केवल समाज सुधारक है बल्कि देश भक्त भी है।
नारी शिक्षा पर तिलक के विचार और ब्रिटिश शासन के लिये तीन सूत्रीय कार्यक्रम
तिलक नारी शिक्षा के समर्थक थे। ये नारी शिक्षा पर अलग से केसरी और मराठा दोनों पत्रों के संपादकीय लेख में अपने विचारों को लिखते थे। ये भारतीय नारियों को शिक्षित करना चाहते थे लेकिन ब्रिटिश पद्धति के आधार पर नहीं। इनका मानना था कि किसी भी समाज में नारी का शिक्षित होना बहुत आवश्यक है क्योंकि एक शिक्षित नारी राष्ट्र के स्वरूप के परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। इसके साथ ही इनका मानना था कि लड़कियों के लिये शिक्षा का अलग ढंग होना चाहिये, न कि अंग्रेजी ढंग।
गणपति समारोह और शिवाजी उत्सव मनाने की प्रथा की शुरुआत
बाल गंगाधर तिलक ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने वाले वो विलक्षण नेता थे जो भारतीय संस्कृति और परंपराओं में पूरी तरह से रंगे हुये थे। ये देश का विकास धार्मिक और सामाजिक विकास के साथ-साथ करना चाहते थे। इन्होंने देश में हिन्दुओं को एक सूत्र में बाँधने के लिये 1893 में गणपति उत्सव की शुरुआत की थी। वहीं शिवाजी उत्सव की शुरुआत सोये हुये भारतीयों को उनकी क्षत्रियता को याद दिलाने के लिये की गयी।
प्राचीन काल से ही भारत अपने गौरवान्वित इतिहास के लिये प्रसिद्ध है। यहाँ तक की महाराष्ट्र को तो वीर भूमि कहा जाता है। ऐसे में जब तिलक ने मराठियों को गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुये देखा तो ये सहन नहीं कर पाये। अंग्रेजों की फूट डालो शासन करों की नीति को विफल करने व सभी भारतियों को एकसूत्र में बांधने के लिये गणपति उत्सव और उनके सोये हुये वीरत्व को जगाने के लिये शिवाजी उत्सव शुरु किया।
रैण्ड की हत्या के लिये जन आक्रोश बढ़ाने के आरोप में तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा
रैण्ड के अमानुषिक व्यवहार को देखते हुये तिलक ने केसरी के एक लेख में ‘ए वास्ट एंजिन ऑफ ऑपरेशन’ कहा। पूना के कुछ युवक पूनावासियों की इस दशा का जिम्मेवार रैण्ड को मानते थे। उन्होंने दुर्वव्यवहार का बदला लेने के लिये 22 जून 1897 को क्वीन विक्टोरिया की डायमंड जुबली की शाम इंस्पेक्टर रैण्ड और एयर्स्ट की गोली मारकर हत्या कर दी।
केसरी में लिखे गये तिलक के लेख और ब्रिटिश अधिकारियों व सिपाहियों के गलत व्यवहार के कारण तिलक के कहे गये कथन “यूज फोर्स इन सैल्फ डिफेंस विच इज लीगल” से ब्रिटिश सरकार ने ये अनुमान लगाया कि इस हत्या के पीछे तिलक है। रैण्ड की हत्या उसके भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार के कारण चापेकर बन्धुओं ने की थी। तिलक पर अपने लेखों के द्वारा इन नवयुवकों को उकसाने का इल्जाम लगाया गया था। प्लेग के खत्म होने के 4 सप्ताह बीते भी नहीं थे कि तिलक को राजद्रोह के लेख लिखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।
अंग्रेजी सरकार किसी भी तरह से भारतीय जनता तिलक के बढ़ते हुये प्रभाव को रोकना चाहती थी। इंस्पेक्टर रैण्ड की हत्या होने पर बिना कोई देर किये तिलक पर लोगों को राजद्रोह के लिये भड़काने व ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ षड्यन्त्र करने का आरोप लगाकर धारा 124-ए के अन्तर्गत ड़ेढ साल (18 महीने) की कैद की सजा सुनायी।
तिलक की रिहाई के प्रयास और जेल में तिलक का जीवन
सरकार तिलक के चापेकर बंधुओं के साथ गुप्त संबंध समझती थी, वो भी सिर्फ इसलिये क्योंकि चापेकर भाईयों ने इनसे गीता की प्रति माँगी थी और तिलक से अपना अंतिम संस्कार करवाने को कहा था। केवल इसी आधार पर सरकार रैण्ड की हत्या के आरोप में इन्हें फंसा कर सजा देना चाहती थी। सरकार ने अपनी छानबीन में कोई कसर नहीं छोड़ी। पूरी तरह से निर्दोष पाये जाने पर भी ब्रिटिश अधिकारी इनकी रिहाई के मामले पर विचार करने से कतरा रहे थे।
तिलक को गिरफ्तारी के बाद पूना की डोंगरी जेल में रखा। यहाँ की जेल व्यवस्था बहुत खराब थी। इनसे नारियल की रस्सी बँटवाने का कार्य कराया जाता, खाने में प्याज की दाल और रोटी दी जाती थी, नहाने के लिये बहुत कम मात्रा में पानी दिया जाता था यहाँ तक कि 1-1 महीने तक कपड़े नहीं धुलते थे जिसके कारण कपड़ों में जुएं पड़ जाती थी।
सार्वजनिक जीवन की सक्रिय अवधि
तिलक के अर्जी देने पर 6 सितम्बर 1898 को रिहा कर दिया गया। रिहा होने पर सभी वर्गों के नेताओं ने इनका स्वागत किया। देश-विदेश से इन्हें हजारों बधाई संदेश भेजे गये। रिहाई के बाद ये स्वास्थ्य संबंधी सुधार के लिये सिंहगढ़ चले गये। 1899 में दोबारा केसरी और मराठा के संपादक के कार्य को संभाला। इन्होंने रिहाई के बाद देशवासियों को अपना सहयोग करने के लिये लेख प्रकाशित किया। ये लेख ‘पुनश्च हरि ओम’ शीर्षक के अन्तर्गत लिखा गया था, जो निम्न था, ‘‘राजद्रोह के मुकदमें के समय जिस प्रकार पूरे देश ने मुझे सहायता की, इस प्रकार देवऋण, पितृऋण व ऋषिऋण के अतिरिक्त एक और ऋण पैदा हो गया है। इस कारण मेरे लिये ये आवश्यक हो जाता है कि मैंने आज तक जैसा जीवन बिताया है वैसा ही भविष्य में भी बिताऊँ।’’
तिलक का देश से निष्कासन
बंगाल विभाजन के समय तिलक के उग्रवादी विचारों के कारण इन्हें राजद्रोह के आरोप में एक बार फिर से 1908 में 6 साल की सजा सुनाकर देश से निष्कासित कर दिया। तिलक को देश से निष्कासित करके तत्कालीन बर्मा की माण्डले जेल में रखा गया। माण्डले जेल में रहते हुये तिलक ने दो नये ग्रन्थों ‘गीता-रहस्य’ और ‘द आर्कटिक होम ऑफ द आर्यन’ की रचना की। ये दोनों ग्रन्थ तिलक के विशाल ज्ञान, ऐतिहासिक शोध, गांभीर्य और उच्च विचारों के परिचायक बने। माण्डले जेल से 1914 में रिहा हुये।
स्वदेश वापसी
तिलक मांड़ले से रिहा होकर 1914 में पूना आये। पूना आते ही इन्होंने फिर से राष्ट्रीय हित के लिये कार्य करना शुरु कर दिया। पूना की बहुत सी संस्थाओं ने तिलक के सम्मान में सार्वजनिक सभाओं का आयोजन किया। इन सभाओं में तिलक को आमंत्रित किया गया। इन्होंने सभा को संबोधित करते हुये भाषण दिया, “मेरा देश से 6 साल का निष्कासन मेरे देश प्रेम की परीक्षा था। मैं स्वराज्य के सिद्धान्त को नहीं भूला हूँ। इसके कार्यक्रमों में कोई भी बदलाव नहीं किया जायेगा, ये पहले की तरह ही कार्यान्वित होंगे।” तिलक ने जेल से बाहर आने के बाद कांग्रेस के दोनों दलों को एक करने का प्रयास किया लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। 1916 में तिलक श्रीमति ऐंनी बेंसेंट द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन से जुड़ गये। जिसका उद्देश्य स्वराज्य की प्राप्ति था। तिलक ने होमरुल के उद्देश्यों से लोगों को परिचित कराने के लिये विभिन्न गाँवों में घूमें। ये अपने कार्यों के माध्यम से अब एक जनप्रिय नेता बन गये। लोकमान्य बाल गंगधर तिलक ने लीग के उद्देश्यों को स्पष्ट करने के लिये लगभग 100 से भी ज्यादा सभाओं का आयोजन किया। 1919 में जलियावाला बाग हत्याकांड की इन्होंने अपने लेखों के माध्यम से आलोचना की और बहिष्कार के आन्दोलन को जारी रखने की अपील की। इन्होंने इस सन्दर्भ में सांगली, हैदराबाद, कराँची, सोलापुर, काशी आदि स्थानों पर भाषण भी दिये। 1920 तक आते-आते ये काफी कमजोर हो गये थे। 1 अगस्त 1920 को स्वाधीनता के इस महान् पुजारी ने इस संसार से अन्तिम विदा ली।
गोविन्द शर्मा