स्वामी दयानंद जी का कहना था कि विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं होता। स्वामी जी महान राष्ट्र-भक्त और समाज-सुधारक थे। समाज-सुधार के संबंध में गाँधी जी ने भी उनके अनेक कार्यक्रमों को स्वीकार किया। कहा जाता है कि 1857 में स्वतंत्रता-संग्राम में भी स्वामी जी ने राष्ट्र के लिए जो कार्य किया वह राष्ट्र के कर्णधारों के लिए सदैव मार्गदर्शन का काम करता रहेगा। स्वामी जी ने विष देने वाले व्यक्ति को भी क्षमा कर दिया, यह बात उनकी दया भावना का जीता-जागता प्रमाण है।
आरंभिक जीवन:
दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी टंकारा में सन् 1824 में मोरबी (मुम्बई की मोरवी रियासत) के पास काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट), गुजरात में हुआ था। उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। दयानंद सरस्वती का जन्म नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। आगे चलकर एक पण्डित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए। उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गंभीर प्रश्न पूछने के लिए विवश कर दिया। एक बार शिवरात्रि की घटना है। तब वे बालक ही थे। शिवरात्रि के उस दिन उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक मन्दिर में ही रुका हुआ था। सारे परिवार के सो जाने के पश्चात् भी वे जागते रहे कि भगवान शिव आएंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे।
उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं। यह देख कर वे बहुत आश्चर्यचकित हुए और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा क्या करेगा? इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए।
जीवन क्या है? मृत्यु क्या है? इन सवालों के जवाब सक्षम महात्मा से समझ लेना चाहिये, ऐसा उन्हें लगा। इस घटना के बाद इनके जीवन में बदलाव आया और इन्होंने 21 वर्ष की आयु में संन्यासी जीवन का चुनाव किया और अपने घर से विदा ली। उनमें जीवन सच को जानने की इच्छा प्रबल थी जिस कारण उन्हें सांसारिक जीवन व्यर्थ दिखाई दे रहा था इसलिए ही इन्हांेने अपने विवाह के प्रस्ताव को ना बोल दिया। इस विषय पर इनके और इनके पिता के मध्य कई विवाद भी हुए पर इनकी प्रबल इच्छा और दृढ़ता के आगे इनके पिता को झुकना पड़ा। भौतिक सुख का आनंद लेने के अलावा खुद की आध्यात्मिक उन्नति करवा लेना उन्हें अधिक महत्त्वपूर्ण लगा।
सच्चे ज्ञान की खोज में इधर-उधर घूमने के बाद मूलशंकर, मथुरा में वेदों के प्रकाण्ड विद्वान प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द दण्डीश के पास पहुँचे। प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान थे। उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया। उनके पास रहकर मूलशंकर वेद आदि आर्य-ग्रंथों का अध्ययन कर दयानन्द बन गए। वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी ‘‘कि मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।’’ इस प्रकार गुरुदक्षिणा के रूप में स्वामी विरजानंद जी ने उनसे यह प्रण लिया कि वे आयु-भर वेद आदि सत्य विद्याओं का प्रचार करते रहेंगे। स्वामी दयानंद जी ने अंत तक इस प्रण को निभाया।
स्वामी दयानन्द जी के व्यवहार से यह स्पष्ट था कि इनमें विरोध करने एवम् खुलकर अपने विचार व्यक्त करने की कला जन्म से ही निहित थी। इसी कारण ही इन्होंने अंग्रेजी हुकूमत का कड़ा विरोध किया और देश को आर्य भाषा अर्थात् हिंदी के प्रति जागरूक बनाया।
स्वामी दयानंद जी का कहना था कि विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं होता। स्वामी जी महान् राष्ट्र-भक्त और समाज-सुधारक थे।
धर्म सुधार हेतु अग्रणी रहे:
दयानंद सरस्वती ने 1875 में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी। वेदों का प्रचार करने के लिए उन्होंने पूरे देश का दौरा करके पंडित और विद्वानों को वेदों की महत्ता के बारे में समझाया। स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुनः हिंदू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया। 1886 में लाहौर में स्वामी दयानंद के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक काॅलेज की स्थापना की थी। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला। स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूकने का मार्ग प्रशस्त हुआ। समाज सुधारक होने के साथ ही दयानंद सरस्वती जी ने अग्रेजों के खिलाफ भी कई अभियान चलाए। ‘भारत, भारतीयों का है’ यह अंग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके भारत में कहने का साहस भी सिर्फ दयानंद में ही था। वे अपने प्रवचनों के माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया और भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे।
स्वामी जी ने मन, वचन व कर्म तीनों शक्तियों से समाजोद्धार के लिए प्रयत्न किया। अपनी रचनाओं व उपदेशों के माध्यम से भारतीय जनमानस को मानसिक दासत्व से मुक्त कराने की पूर्ण चेष्टा की। उनकी वाणी इतनी अधिक प्रभावी व ओजमयी थी कि श्रोता के अंतर्मन को सीधे प्रभावित करती थी। उनमें देश-प्रेम व राष्ट्रीय भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। समाजोत्थान की दिशा में उनके द्वारा किए गए प्रयास अविस्मरणीय हैं। समाज में व्याप्त बाल-विवाह जैसी कुरीतियों का उन्होंने खुले शब्दों में विरोध किया। उनके अनुसार बाल-विवाह शक्तिहीनता के मूल कारणों में से एक है। इसके अतिरिक्त वे विधवा-विवाह के भी समर्थक थे। स्वामी दयानंद सरस्वती जी को अपनी मातृभाषा हिंदी से विशेष लगाव था। उन्होंने उस समय हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलाने हेतु पूर्ण चेष्टा की। उनके प्रयासों से हिंदी के अतिरिक्त वैदिक धर्म व संस्कृत भाषा को भी समाज में विशेष स्थान प्राप्त हुआ।
गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके महर्षि स्वामी दयानन्द ने अपना सम्पूर्ण जीवन उनके द्वारा निर्दिष्ट कार्य में लगा दिया। हरिद्वार जाकर उन्होंने ‘पाखण्डखण्डिनी पताका’ फहराई और मूर्ति पूजा का विरोध किया। उनका कहना था कि यदि गंगा नहाने, सिर मुंडाने और भभूत मलने से स्वर्ग मिलता, तो मछली, भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते। बुजुर्गों का अपमान करके मृत्यु के बाद उनका श्राद्ध करना वे निरा ढोंग मानते थे। छुआ-छूत का उन्होंने जोरदार खण्डन किया। दूसरे धर्म वालों के लिए हिन्दू धर्म के द्वार खोले। महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए। मिथ्याडंबर और असमानता के समर्थकों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। अपने मत के प्रचार के लिए स्वामी जी 1863 से 1875 तक पूरे देश का भ्रमण करते रहे। 1875 में आपने मुम्बई में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की और देखते ही देखते देशभर में इसकी शाखाएँ खुल गईं। आर्यसमाज वेदों को ही प्रमाण और अपौरुषेय मानता है। संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला वैदिक धर्म तक पहुँचता हुआ पाते हैं।
दर्शना शर्मा (अ.जि.शि.अ. (मा.), अजमेर