गुरु जी का प्रकाश पंजाब के अमृतसर में श्री गुरु हरगोबिंद साहिब के घर 1621 ई. को माता नानकी जी की कोख से हुआ था। उनके बचपन का नाम त्यागमल था। वे बाल्यावस्था से ही संत स्वरूप, गहन विचारवान, उदार चित्त, बहादुर व निर्भीक स्वभाव के थे। श्री गुरु तेगबहादुर जी सिखों के नौवें गुरु हैं। जिन्होंने धर्म व मानवता की रक्षा करते हुए हँसते-हँसते अपने प्राणों की कुर्बानी दी। इसलिए गुरु तेग बहादुर को ‘हिन्द दी चादर’ या ‘भारत की ढाल’ भी कहा जाता है ।
गुरु तेगबहादुर जी की शिक्षा-दीक्षा मीरी-पीरी के मालिक गुरु-पिता गुरु हरिगोबिंद साहिब की छत्र छाया में हुई थी। इसी समय इन्होंने गुरुबाणी, धर्मग्रंथों के साथ-साथ शस्त्रों तथा घुड़सवारी आदि की शिक्षा प्राप्त की। सिखों के 8 वें गुरु हरिकृष्ण राय जी की अकाल मृत्यु हो जाने की वजह से तेगबहादुर जी को गुरु बनाया गया था। मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ मुगलों के हमले के खिलाफ हुए युद्ध में उन्होंने अपनी वीरता का परिचय दिया था। इस वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने उनका नाम तेगबहादुर यानी तलवार के धनी रख दिया।
एक समय की बात है। औरंगजेब के दरबार में एक विद्वान पंडित आकर गीता के श्लोक पढ़ता और उसका अर्थ सुनाता था, पर वह पंडित गीता में से कुछ श्लोक छोड़ दिया करता था। एक दिन पंडित बीमार हो गया और औरंगजेब को गीता सुनाने के लिए उसने अपने बेटे को भेज दिया किंतु उसे उन श्लोकों के बारे में बताना भूल गया जिनका अर्थ वहां नहीं करना था।
उसके बेटे ने जाकर औरंगजेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया जिससे औरंगजेब को यह स्पष्ट हो गया कि हर धर्म अपने आपमें एक महान् धर्म है। पर औरंगजेब खुद के धर्म के अलावा किसी और धर्म की प्रशंसा नहीं सुन सकता था। उसके सलाहकारों ने उसे सलाह दी कि वह सबको इस्लाम धारण करवा दे। औरंगजेब को यह बात समझ में आ गई और उसने सबको इस्लाम धर्म अपनाने का आदेश दिया और कुछ लोगों को यह कार्य सौंप दिया।
उसने कहा कि सबसे कह दिया जाए कि इस्लाम धर्म कबूल करो या मौत को गले लगाओ। जब इस तरह की जबरदस्ती शुरू हो गई तो अन्य पंथ के लोगों का जीना मुश्किल हो गया। इस जुल्म के शिकार कश्मीर के पंडित गुरु तेगबहादुर के पास आए और उन्हें बताया कि किस तरह इस्लाम धर्म स्वीकारने के लिए दबाव बनाया जा रहा है और न करने वालों को तरह-तरह की यातनाएं दी जा रही हैं। हमारी बहू-बेटियों की इज्जत को खतरा है। जहां से हम पानी भरते हैं, वहां हड्डियां फेंकी जाती है। हमें बुरी तरह मारा जा रहा हैं। कृपया आप हमारे धर्म को बचाइए।
आपसे बढ़ कर कौन
जिस समय यह लोग अपनी समस्या सुना रहे थे उसी समय गुरु तेगबहादुर के नौ वर्षीय सुपुत्र बाला प्रीतम (गुरु गोविंद सिंह) वहां आए और पिताजी से पूछा- पिताजी यह लोग इतने उदास क्यों हैं? आप इतनी गंभीरता से क्या सोच रहे हैं?
गुरु तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितों की सारी समस्या बताई तो बाला प्रीतम ने कहा- इसका निदान कैसे होगा? गुरु साहिब ने कहा- इसके लिए बलिदान देना होगा। बाला प्रीतम ने कहा कि आपसे महान् पुरुष मेरी नजर में कोई नहीं है, भले ही बलिदान देना पड़े पर आप इनके धर्म को बचाइए।इनके निवेदन को स्वीकार करते हुए गुरु जी ने अपना बलिदान देने का निश्चय कर लिया।
उसकी यह बात सुनकर वहां उपस्थित लोगों ने पूछा- अगर आपके पिता जी बलिदान दे देंगे तो आप यतीम हो जाएंगे और आपकी मां विधवा हो जाएगी। बालक ने कहा कि अगर मेरे अकेले के यतीम होने से लाखों लोग यतीम होने से बच सकते हैं और अकेले मेरी मां के विधवा होने से लाखों मां विधवा होने से बच सकती है तो मुझे यह स्वीकार है।
फिर गुरु तेगबहादुर ने उन पंडितों से कहा कि जाकर औरंगजेब से कह दो अगर गुरु तेगबहादुर ने इस्लाम धारण कर लिया तो हम भी कर लेंगे और अगर तुम उनसे इस्लाम धारण नहीं करा पाए तो हम भी इस्लाम धारण नहीं करेंगे और तुम हम पर जबरदस्ती नहीं कर पाओगे। औरंगजेब ने इस बात को स्वीकार कर लिया।
अपने हत्यारे के पास स्वयं चलकर पहुँचे
उधर गुरु तेगबहादुर ने आषाढ़ कृष्ण एकादशी को गोविन्द राय को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और दो दिन बाद दिल्ली की ओर चल पड़े। भाई मतिदास, सतीदास, दयालदास तथा बाबा गुरुदित्ता उनके साथ थे। यह बहुत ही विलक्षण बात है कि गुरु जी अपने हत्यारे के पास स्वयं चलकर पहुंचे। गुरू जी ओंकार सतनाम का जाप करते हुए दिल्ली की ओर बढ़ते जा रहे थे कि रास्ते में मलिकपुर रंगड़ा गाँव में सरहिन्द के सूबेदार ने गुरू जी को बन्दी बना लिया। उस समय औरंगजेब दिल्ली से बाहर था। अतः चार महिने तक गुरु तेगबहादुर सरहिन्द के कैदखाने में रहे। औरंगजेब के दिल्ली लौटने के बाद गुरू जी व उनके तीनों साथियों को दिल्ली लाया गया। गुरू तेगबहादुर के मुसलमान बनने से दृढ़तापूर्वक मना कर देने के साथ ही उनको भीषण यातनाएं देने का सिलसिला शुरू हो गया। तीन दिनों तक उनको व उनके शिष्यों को पानी की एक बूंद तक नहीं दी गई। मस्तक पर जलती बालू डाली गई तथा तपते लोहे के खम्भे से पीठ सटाकर खड़ा कर दिया गया पर गुरू जी और उनके तीनों शिष्य शान्त भाव से ये यातनाएं सहते रहे।
आखिर मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की पंचमी (11 नवम्बर 1675) आ गई। गुरूवार का दिन था, दिल्ली की कोतवाली के पास गुरूदेव व उनके शिष्यों को लाया गया। गुरु तेगबहादुर को अपने निश्चय से डिगाने के लिए भाई मतिदास को आरे से चिरवाया गया। इसके बाद भाई दयालदास को खौलते पानी से भरे देग में डाल दिया गया। गुरू तेगबहादुर अधमुंदी आंखों से यह सब देख रहे थे तथा अपने शिष्यों के बलिदान की प्रशंसा कर रहे थे। अब बारी थी भाई सतीदास की। उन्हें रूई में पूरी तरह लपेटा गया और रूई में आग लगा दी गई। गुरू जी ने धन्य-धन्य कहा। अब जल्लाद गुरू तेगबहादुर का वध करने को उद्यत हुआ। गुरू जी शान्ति के साथ जापु जी का पाठ कर रहे थे। निर्विकार भाव से उन्होंने कहा-‘‘ हिन्दू धर्म के काज आज मम देह लटेगी’’ और हाथ बाँध कर धर्म रक्षा के लिए अपना शीश देने की तैयारी कर ली। गुरू तेगबहादुर के इस अप्रतिम बलिदान ने हिन्दू समाज में प्राण फूंक दिये। दिल्ली के चांदनी चौक में उसी स्थान पर बना हुआ गुरुद्वारा शीश गंज आज भी हमें गुरु तेगबहादुर के बलिदान (शीशदान) की याद दिलाता है।
हिन्दुस्तान और हिन्दू धर्म की रक्षा करते हुए शहीद हुए गुरु तेगबहादुरजी को प्रेम से कहा जाता है- ‘हिन्द की चादर, गुरु तेगबहादुर।’ 24 नवंबर को मनाए जाने वाले गुरु तेगबहादुर जी के शहीदी पर्व पर उन्हें नमन।
हरिदत्त शर्मा