10 मई 1857, का दिन भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। इस दिन मेरठ में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सेना और जनता खुलकर सामने आ गई थी। इसकी पृष्ठभूमि लगभग 40 दिन पुरानी, बंगाल के बैरकपुर में मंगल पांडे के विद्रोह की घटना थी। गाय-सूअर की चर्बी बाले कारतूस को दांत से खोलने को लेकर अंग्रजों द्वारा की जाने वाली जबरदस्ती के विरोध में मंगल पांडे ने 29 मार्च 1857 को अंग्रेज अफसर मेजर ह्यूसन को मौत के घाट उतार दिया था। 8 अप्रेल को मंगल पांडे को फाँसी पर लटका दिया गया था।
मंगल पांडे की शहादत के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में अंग्रेजों के खिलाफ माहौल बन गया था। मंगल पांडे का समर्थन करने वाले सैनिकों से हथियार छीनकर उन्हें कैद कर लिया और उनके पैरों में बेड़ियाँ डाल दीं गई थी। 10 मई 1857 (रविवार) को जब अधिकाँश अंग्रेज छुट्टी मना रहे थे तब अचानक भारतीय सैनिकों ने मेरठ छावनी में विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह में आम नागरिक भी खुलकर साथ आ गए थे। मेरठ के सारे लोहार, सैनिकों की बेड़ियाँ काटने में जुट गए थे। छावनी में सैनिकों ने और शहर में आम नागरिकों ने अंग्रेजों को मारना शुरू कर दिया था।
11 मई की सुबह तक विद्रोही सिपाही दिल्ली की ओर जा चुके थे। उसी सुबह 3-बंगाल लाइट कैवलरी दिल्ली पंहुची। उन्होंने बहादुर शाह जफर से उनका नेतृत्व करने को कहा। बहादुर शाह ने उस समय कुछ नहीं कहा लेकिन किले में उपस्थित अन्य लोगो ने विद्रोहियों का साथ दिया। बहुत से यूरोपीय अधिकारी, उनके परिवार और भारतीय धर्मांतरित ईसाईयों पर सिपाहियों और क्रांतिकारियों ने हमला कर दिया। दिल्ली के पास ही बंगाल नेटिव ईन्फैंट्री की तीन बटालियन उपस्थित थी, बटालियन के कुछ दस्ते तुरन्त ही विद्रोहियों के साथ मिल गये और बाकियों ने भी विद्रोहियों पर वार करने से मना कर दिया था।
नगर में बने हुए शस्त्रागार को बचाने में असफल होने पर अंग्रेज अधिकारियों ने शस्त्रागार को उड़ा दिया। उस धमाके से उस सड़क पर रहने वाले कई लोगों की मृत्यु हो गयी। दिल्ली में हो रही इन घटनाओं का समाचार सुन कर नगर के बाहर तैनात सिपाहियों ने भी खुला विद्रोह कर दिया और क्रांतिकारियों के साथ आ गए। अगले दिन बहादुर शाह ने कई वर्षों बाद अपना पहला आधिकारिक दरबार लगाया। बहुत से सिपाही इसमें सम्मिलित हुए। बहादुर शाह इन घटनाओं से चिन्तित थे पर अन्ततः उन्होंने सिपाहियों को अपना समर्थन और नेतृत्व देने की घोषणा कर दी। उसके बाद दिल्ली से लेकर बंगाल तक (झांसी, बरेली, लखनऊ, कानपुर, वनारस, आरा, बक्सर आदि) में अंग्रेजों के खिलाफ जंग शुरू हो गई। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, नाना साहब, बाबू कुंवर सिंह, लखनऊ में बेगम हजरत महल, मौलवी अहमद शाह, अजीमुल्लाह खान, आदि ने अंग्रेजों को बहुत नुकसान पहुंचाया। ग्वालियर राज्य के कोषाध्यक्ष अमर चंद बाठिया ने अपने अंग्रेज समर्थक मालिकों सें द्रोह करके आर्थिक संकट से जूझ रहे क्रांतिकारियों को धन उपलब्ध कराया था। अधिकाँश भारतीय अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए थे। अंग्रेज कमजोर पड़ गए थे और भारतीयों की जीत सुनिश्चित लग रही थी।
लेकिन भारत का दुर्भाग्य रहा कि – कुछ भारतीय रियासतें खुलकर अंग्रेजों का साथ देने लगीं, जिन में महाराजा पटियाला (पंजाब), सिंधिया (ग्वालियर), रामपुर के नवाब, हैदराबाद के निजाम, मैसूर के राजा और राजस्थान के कई रजवाड़े प्रमुख थे। इन गद्दारों ने अपनी पूरी ताकत अंग्रेजों को बचाने और क्रांतिकारियों को कुचलने में झोंक दी थी। अवध में सुन्नी मुस्लिमों ने इस क्रान्ति का अधिक समर्थन नहीं किया और इसे शियाओं और हिन्दुओं का विद्रोह बताया। कुछ मुस्लिम नेता जैसे आगा खान ने इस विद्रोह का विरोध किया, जिसके लिये ब्रितानी सरकार ने उनका सम्मान भी किया। दक्षिण भारत के अधिकतर राज्यों ने इस विद्रोह मे भाग नही लिया क्योंकि वो तब ब्रितानी शासन के अन्तर्गत नहीं आते थे।
डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के शब्दों में सन् 1857 की क्रान्ति को चाहे सामन्ती सैलाब या सैनिक गदर कहकर खारिज करने का प्रयास किया गया हो, पर वास्तव में वह जनमत का राजनीतिक-सांस्कृतिक विद्रोह था। भारत का जनमानस उसमें जुड़ा था, लोक साहित्य और लोक चेतना उस क्रान्ति के आवेग से अछूती नहीं थी।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम को सैनिक विद्रोह या गदर कह कर प्रचारित किया गया था। धीरे-धीरे उस क्रान्ति और उसके क्रांतिवीरों को लोग भूलने लगे थे, तब वीर सावरकर ने भ्रान्ति दूर करने और राष्ट्र को पुनः ऐसी ही क्रांति के लिए खड़ा करने लिए ‘‘1857 का स्वातंन्न्य समर’’ नामक ग्रन्थ लिखा। परन्तु पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाकर, जब वीर सावरकर को बंदी बनाकर, अंडमान की जेल (काला पानी) में भेज दिया गया। अंग्रेजों द्वारा प्रचारित गदर को वीर सावरकर के द्वारा पहली बार भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहा गया था। यह पुस्तक क्रांतिकारियों की गीता बन गयी थी। 1857 के संग्राम की सबसे बड़ी विशेषता यह भी है कि इससे उठे शंखनाद के बाद जंगे-आजादी 90 साल तक अनवरत चलती रही और अंततः 15 अगस्त, 1947 को हम आजाद हुए।
तरुण शर्मा