भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थ में आदर्श वीरांगना थीं। रानी झांसी वीरता, साहस, दयालुता, अद्वितीय सौन्दर्य का अनुपम संगम थी। दृढ़ता, आत्मविश्वास व देशभक्ति उनके हथियार थे जिससे अंग्रेजों को मात खानी पड़ी थी। सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नहीं घबराता है, प्रलोभन उसे कर्तव्य पालन से विमुख नहीं कर सकते। उसका लक्ष्य उदार और उच्च होता है। उसका चरित्र अनुकरणीय होता है। अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह सदैव आत्मविश्वासी, कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ होता है। ऐसी ही अनुपम वीरांगना थीं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई।
सन् 1857 में देश भर में जगह जगह अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गया था। कानपुर में विद्रोहियो का बड़ा जोर था। नाना साहब उनके नेता थे। कानपुर से विद्रोह की लहरें झांसी तक आ पहुंची। झांसी की छावनी के सिपाहियों ने अपने कुछ अंग्रेज अफसरों को मार डाला। यह देखकर बचे खुचे अंग्रेजों ने अपने बाल बच्चों को रानी के पास भेज दिया। पर जब विद्रोह पूरे शहर में फैल गया तो वे अपने स्त्री और बच्चो को लेकर किले में चले गए। विद्रोही सिपाहियों ने किला घेर लिया। तब अंग्रेजों ने किला छोड़ने का निश्चय कर लिया। जैसे ही अंग्रेज बाहर आए विद्रोहियों ने उन्हें घेर लिया। और उन पर टूट पडे़ और मार डाला। महारानी को जब इस बात का पता चला तो उन्हें बड़ा दुख हुआ।
अब रानी ने झांसी का शासन संभाल लिया। लगभग झांसी पर दस महिने तक रानी ने शासन किया। वे नित्य प्रातःकाल जल्दी उठती और नहा धोकर पूजा पाठ करती। फिर वे राजकार्य में लग जाती। उन्होंने सदा प्रजा की भलाई का ध्यान रखा। अंग्रेजों के मन में यह बात बैठ गई कि रानी लक्ष्मीबाई विद्रोहियों से मिली हुई है। उसी की आज्ञा से विद्रोहियों ने अंग्रेज अफसरों को मारा। उसका बदला लेने तथा झांसी पर फिर अधिकार करने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने अपने एक अनुभवी सेनापति ह्यूरोज को झांसी पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया। ह्यूरोज ने एक विशाल सेना लेकर झांसी पर आक्रमण कर दिया।
अंग्रेजों के इस अचानक अक्रमण से झांसी की रानी घबराई नहीं। दो चार दिनों में ही उन्होने अंग्रेजों का सामना करने का प्रबंध कर लिया। उनकी प्रजा और सेना ने उनका पूरा पूरा साथ दिया। झाँसी के किले की प्राचीर पर जो तोपें थीं उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श। रानी ने किले की मजबूत किलाबन्दी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेजों ने किले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।
अंग्रेज आठ दिनों तक किले पर गोले बरसाते रहे परन्तु किला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम सांस तक किले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से किला जीतना सम्भव नहीं है। अतः उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को अपने साथ मिला लिया, जिसने किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना किले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया।
अब झांसी की रानी ने किला छोड़ने का निश्चय कर लिया। उन्हांने बालक दामोदर राव को पीठ पर बांधा और अपने कुछ साहसी सैनिकों के साथ रणचण्डी का रूप धारण कर अंग्रेजी फौज को चीरती हुई किले से बाहर निकल गई। सैनिक उन्हें आश्चर्य से देखते रह गए। उनमें इतना साहस न था की रानी को पकड़ सके। झांसी से निकलकर रानी कालपी पहुंच गई। कालपी में रावसाहब और तात्या टोपे एक बडी भारी सेना के साथ डेरा डाले हुए थे। रानी का पीछा करते हुए ह्यूरोज भी कालपी जा पहुंचा। घमासान युद्ध हुआ परंतु रानी यहाँ से भी बच निकली। अब रानी ने समझ लिया कि यह मेरे जीवन की अंतिम लडाई है। पहले दो दिन की लडाई में रानी का घोड़ा घायल हो चुका था। इसलिए रानी को एक दूसरा घोड़ा लेना पड़ा।
झांसी की रानी शत्रुओं पर टूट पड़ी। राव साहब और तात्या टोपे दूसरे मोर्चो पर लड़ रहे थे। रानी चाहती थी कि वे उनसे जा मिले और फिर सब मिलकर अंग्रेजों के मोर्चो को उखाड़ फेंके। इसलिए वे अंग्रेजों की सेना को चीरती हुई आगे बढ़ी। कुछ अंग्रेज सिपाहियों ने उन्हे आ घेरा। घमासान लडाई हुई। रानी के साथी एक एक कर मरने लगे। रानी का घोड़ा उन्हें एक ओर ले भागा। पीछे पीछे रानी के खून के प्यासे अंग्रेज सैनिक थे। एक नाले पर जाकर रानी का घोडा अड़ गया। रानी ने बहुत प्रयत्न किया कि घोड़ा नाला पार कर जाए। परंतु वह ऐसा अड़ा की आगे बढ़ने का नाम ही न लिया। इतने में एक अंग्रेज सैनिक ने रानी को आ घेरा। उसने रानी के सिर पर वार किया। इससे रानी के सिर और एक आंख पर गहरी चोट आई। रानी के सेवक ने उस अंग्रेज सैनिक को एक ही वार में चित कर दिया। तब तक रानी के अन्य सिपाही और सेवक भी वहाँ आ पहुंचे। रानी की यह दशा देखकर वह दुखी हुए। रानी ने उनसे कहादृ ‘‘देखना शत्रु मेरे शरीर को हाथ न लगा पाएं।’’
बलिदान : 18 जून 1858
रानी के सेवक उन्हें पास ही स्थित एक साधु की कुटी में ले गए। वहा पहुंचते ही उन्होंने दम तोड़ दिया। इससे पहले कि अंग्रेज सैनिक वहाँ पहुंचते, साधु ने अपनी कुटी का घास फूस और लकड़ियाँ डालकर उनकी चिता में आग लगा दी। इस प्रकार देश की स्वतंत्रा के लिए झांसी की रानी ने 18 जून 1858 को ग्वालियर मध्यप्रदेश में अपने प्राणों की बलि दे दी।
न तो झांसी की रानी के पास कोई बड़ी सेना थी और न ही कोई बहुत बड़ा राज्य। फिर भी इस स्वतंत्रता संग्राम में झांसी की रानी ने जो वीरता दिखाई, उसकी प्रशंसा उनके शत्रुओ ने भी की है। अपने बलिदान से रानी ने सिद्ध कर दिया कि समय पड़ने पर भारतीय नारी भी शत्रुओं के दांत खट्टे कर सकती है। ऐसी वीरांगनाओं से देश का मस्तक सदैव ऊंचा रहेगा।
सुदर्षना भट्ट