महर्षि दयानन्द ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में अपना कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश रचकर धार्मिक जगत में एक क्रांति ला दी थी। यह ग्रन्थ वैचारिक क्रान्ति का एक शंखनाद है। इस ग्रन्थ का जनसाधारण पर और विचारशील दोनों प्रकार के लोगों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। प्राचीन शिक्षा पद्धति के अनुसार शिक्षा पूर्ण होने पर गुरू दक्षिणा का प्रावधान होता है परन्तु दयानंद जी के पास व्यास गुरू जी को देने के लिए कुछ भी नहीं था वे जानते थे कि गुरू जी को लौंग बहुत पसंद थी, तो वो दक्षिणा स्वरूप गुरू जी के पास आधा सेर लौंग लेकर पहुँचे, परन्तु गुरू जी ने अपने सुयोग्य शिष्य से दक्षिणा स्वरूप कुछ और देने को कहा- ‘‘देश का उपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मतमतान्तरों की अविद्या को हटाओ और वैदिक धर्म का प्रचार करो।’’ अपने गुरू के कथनों को स्वीकार कर दयानंद जी ने गुरू जी के आश्रम से विदा ली और अपना सम्पूर्ण जीवन उस वचन को निभाने में लगा दिया।
स्वामी दयानंद सरस्वती महान शिक्षाविद् समाज सुधारक और सांस्कृतिक राष्ट्रवादी भी थे। वे प्रकाश के एक महान् सैनिक थे, भगवान की दुनिया में एक योद्धा, पुरुषों और संस्था के मूर्तिकार थे। दयानंद सरस्वती का सबसे बड़ा योगदान आर्य समाज की नींव थी जिसने शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में एक क्रांन्ति ला दी। दयानंद सरस्वती के दर्शन को उनके तीन प्रसिद्ध योगदान ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’, वेद भाष्य भूमिका और वेद भाष्य से जाना जा सकता है। इसके अलावा उनके द्वारा संपादित पत्रिका ‘‘आर्य पत्रिका’’ भी उनके विचार को दर्शाती है।
आर्य समाज के महान संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती पश्चिम के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व के विरूद्ध थे। वे मूर्तिपूजा, जाति प्रथा, कर्मकांड, भाग्यवाद, नशाखोरी, खिलाफ थे। वे दबे-कुचले वर्ग के उत्थान के लिए भी खड़े थे। वेद और हिंदुओं के वर्चस्व को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म का विरोध किया और हिंदू संप्रदाय के अन्य संप्रदायों को फिर से संगठित करने की वकालत की।
तत्कालीन सामाजिक स्थितियाँ
स्वामी दयानन्द का जन्म उस काल में हुआ, जब सामाजिक जीवन में अंधविश्वास और कुरीतियाँ व्याप्त थी। भारतीय अपनी प्राचीन मर्यादा और आदर्श धर्म और दर्शन संस्कृति और सभ्यता को भूल चुके थे। समाज में परस्पर भेद-भाव, ऊँच-नीच का महौल था। दलित और विधवाओं की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। विधवाओं को अपनी पवित्रता का प्रमाण अपने पति की चिता के साथ जलकर देना होता था। दूसरी ओर शिक्षा से विमुख होकर पर्दे में रहना पड़ता था आदि कई ऐसे भयानक रोग समाज में व्याप्त थे, जो समाज के सम्पूर्ण ढ़ाँचे को खोखला कर सकता था।
हर युग को एक नई दिशा देने और उसमें व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों से छुटकारा दिलाने, समाज में नई रोशनी लाने के लिए महापुरुषों की आवश्यकता होती है, जो इस कार्य के लिए अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। तभी आम जनता उनके विचारों और बातों को मानकर उनका अनुसरण करती है और वो युग-प्रवर्तक कहलाते हैं, जो इस लड़ाई का बिगुल बजाते हैं।
आर्य समाज एवं वैदिक धर्म के संस्थापक महर्षि दयानन्द ऐसे ही युग-प्रवर्तक पुरुष थे। महर्षि दयानन्द ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों को गहराई से अध्ययन किया और उसके पतन के कारणों को खोजकर उसको दूर भी किया। उनके सामने सबसे बड़ा सवाल ‘‘समस्या का समाधान था’’। तत्कालीन युग में पश्चिमी संस्कृति की बड़ी आक्रामक चुनौती थी तथा उस माहौल में भारतीय संस्कृति में नवीन विचारधारा को लाना सबसे बड़ी चुनौती थी। दयानन्द के अनुसार भारतीय समाज की बुरी स्थिति में ब्राह्मण पुरोहित तथा प्रबुद्ध वर्ग की स्वार्थ भावना का भी महत्वपूर्ण योगदान था।
शिक्षा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए महर्षि कहते हैं कि वही शिक्षा है, जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मा, जितेन्द्रियतादि की वृद्धि हो और अविद्यादि दोष छूटें। महर्षि विद्या को यथार्थ का दर्शन कराने वाली और भ्रम से रहित मानते हैं। अथर्ववेद में ब्रह्मचारी को दो समिधाओं वाला बताया गया है। प्रथम समिधा ‘भोग’ की प्रतीक है और द्वितीय समिधा ‘ज्ञान’ की।
महर्षि दयानन्द सरस्वती की दृष्टि में शिक्षा का महत्त्व
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थों में शिक्षा को बहुत अधिक महत्त्व दिया है। इसका कारण यह है कि व्यक्ति, समाज, राज्य और समस्त विश्व की उन्नति और सुख-समृद्धि तभी सम्भव है, जब स्त्री-पुरुष सुशिक्षित हों। सुशिक्षित होने पर ही उनको उचित- अनुचित तथा ज्ञान-विज्ञान का बोध सम्भव है और तभी वे सम्पूर्ण प्राणिमात्र के कल्याण के लिये उसका उपयोग कर सकते हैं। वे कहते हैं कि जो लोग विद्या-विलास में लगे रहते हैं, जिनका स्वभाव सुन्दर है, सत्यवादी हैं, अभिमान और अपवित्रता से रहित हैं, दूसरों के अज्ञान का नाश तथा वेदविहित कर्मों के द्वारा लोकमङ्गल करने वाले हैं, ऐसे नर-नारी धन्य हैं।
शिक्षा का उद्देश्य
वैदिक कालीन शिक्षा का मात्र यह उद्देश्य नहीं था कि मनुष्य को आजीविका के योग्य या अन्य शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम बना दिया जाए, अपितु आत्मा में निहित शक्तियों का विकास करते हुए प्रथम अभ्युदय की प्राप्ति और तदनन्तर निःश्रेयस् तक पहुँचाना शिक्षा का उद्देश्य था।
ज्ञान और भोग इन दोनों समिधाओं के द्वारा अन्तरिक्ष स्थानीय हृदय की सन्तुष्टि और पूर्णता प्राप्त करना ब्रह्मचारी का उद्देश्य है। कहने का आशय यह है कि केवल भोग या केवल ज्ञान से मनुष्य जीवन सफल नहीं हो सकता। इसलिये भारतीय वैदिक शिक्षा जीवन के दोनों रूपों में साम×जस्य स्थापित करके मनुष्य को पूर्णता तक पहुँचाती है।
गुरु-शिष्य सम्बन्ध
गुरुकुल में विद्याभ्यास करते समय शिष्य का गुरु के साथ और गुरु का शिष्य के साथ व्यवहार, माता-पिता का अपनी सन्तान के साथ होता है, वैसा ही व्यवहार आचार्य या गुरु को अपने शिष्य के साथ करना चाहिये। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध पिता-पुत्र सदृश होता है। यदि आवश्यक हो तो गुरु शिष्य को दण्डित भी करे, पर बिना दुर्भाव और पूर्वाग्रह के। महर्षि का यह निर्देश केवल आचार्य के लिये नहीं है, वे माता-पिता से भी ऐसा करने को कहते हैं। जो माता-पिता या आचार्य अपनी सन्तान या शिष्य से केवल लाड़ करते हैं, वे मानो विष पिलाकर उनके जीवन को नष्ट कर रहे हैं और जो अपराध करने पर दण्डित करते हैं, वे मानों उन्हें गुणरूपी अमृत का पान करा रहे हैं। कभी-कभी ऐसे अवसर आते हैं, जब सन्तान या शिष्य को कुमार्ग से हटाने के लिये दण्ड का आश्रय लेना पड़ता है, परन्तु दण्ड, दण्ड के उद्देश्य से नहीं दिया जाना चाहिए।
खान-पान एवं वस्त्र की समानता
महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रतिपादित शिक्षा-व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें छात्रों के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है। चाहे कोई छात्र राजपुत्र हो या कुबेरपुत्र या फिर किसी निर्धन व्यक्ति का पुत्र हो, उसे अपने माता-पिता की समृद्धि या क्षमता के अनुसार सुविधा देने का प्रावधान नहीं है। गुरुकुल में पहुँचने के बाद सभी छात्र समान हैं, चाहे वे किसी भी पृष्ठभूमि से क्यों न आए हों। सबके साथ समान व्यवहार होता था। समानता की भावना बनाये रखने के लिये शिष्य को गुरु के गर्भ में रहने वाला बताया गया है। पिता के लिये सभी सन्तानें समान होती हैं, वैसे ही गुरु के लिये सुविधा और शिक्षा की दृष्टि से सभी शिष्य समान होने चाहिए।
कठोपनिषद् में नचिकेता को यम के घर भेजने का भी यही उद्देश्य प्रतीत होता है। गुरु अर्थात् यम-संयम की मूर्ति के पास पहुँचने के बाद शिष्य अपने को माता-पिता की पृष्ठभूमि से अलग कर लेता है, ठीक उसी प्रकार जैसे यम (मृत्यु) के घर पहुँचे हुए व्यक्ति के गत जीवन के सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। अथर्ववेद में आचार्य का प्रथम नामकरण ‘मृत्यु’ किया है।
छात्र जीवन
महर्षि दयानन्द सरस्वती छात्र को ब्रह्मचर्य और तपस्यामय जीवन व्यतीत करते हुए देखना चाहते हैं। महर्षि ने ब्रह्मचर्य पालन पर बहुत बल दिया है। इस व्रत का पालन करने वाले को मद्य, माँस, गन्ध आदि उत्तेजक, तामसिक पदार्थ एवं प्रसाधन सामग्री का उपभोग नहीं करना चाहिए। इसके साथ-साथ वासना को उत्तेजित करने वाले विषयों का सेवन, काम, क्रोध, लोभ आदि दुर्गुणों, द्यूत, निन्दा, अन्य की हानि एवं सभी प्रकार के कुकर्मों का पूर्णरूप से त्याग कर देना चाहिए। ब्रह्मचारी को ऐसा कार्य कदापि नहीं करना चाहिए, जिससे उसका ब्रह्मचर्य खण्डित हो।
इसके अतिरिक्त महर्षि दयानन्द सरस्वती यम और नियमों का पालन करना छात्र के लिये आवश्यक मानते हैं। योगदर्शन में प्रतिपादित अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- इन पाँच यमों तथा शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान- इन पाँच नियमों का यथावत् पालन करने वाला विद्यार्थी उन्नति को प्राप्त करता है।
उनका स्पष्ट अभिमत है कि ‘यम’ को छोड़कर केवल नियमों का पालन करने वाला छात्र अधोगति को प्राप्त करता है। कहने का आशय यह है कि ‘यम’ छात्र जीवन की आधारशिला है। ‘यम’ को आचरण में लाए बिना, ‘नियम’ का सेवन करने से, विद्यार्थी मनुष्य जीवन को पूर्णता दिलाने वाली विद्या को प्राप्त नहीं कर सकता। अथर्ववेद में कहा गया है कि ज्ञान प्राप्त करने से पूर्व विद्यार्थी को ब्रह्मचारी बनना आवश्यक है। ब्रह्मचर्य काल में श्रम और तप करने से उच्चता प्राप्त होती है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अथर्ववेद के उक्त ब्रह्मचर्य-सूक्त के अनुरूप विद्यार्थियों में निम्न सात विद्या विरोधी दोष गिनाये हैः- 1. आलस्य, 2. मद और मोह, 3. चपलता, 4. व्यर्थ की इधर-उधर की बात करना, 5. जड़ता, 6. अभिमान, 7. लोभ। आगे वे कहते हैं कि सुखार्थी विद्या नहीं प्राप्त कर सकता तथा विद्यार्थी को सुख नहीं मिल सकता, इसलिए सुख चाहने वाले को विद्या और विद्या चाहने वाले को सुख का परित्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि छात्र-जीवन का लक्ष्य ज्ञान है और उसका साधन उत्साह (मेखला), श्रम और तप है।
डाॅ. अनिल कुमार दशोरा