सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देव जी का जन्म कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ था। गुरु नानक देव जी की जयंती को देश में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। कार्तिक पूर्णिमा को प्रकाश पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। इस वर्ष गुरु नानक देव जी की जयंती 19 नवंबर दिन शुक्रवार को है। गुरु नानक देव जी का जन्म 1469 में रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक स्थान पर हुआ था। बाद में तलवंडी का नाम ननकाना साहब पड़ा, जो वर्तमान में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में है।
गुरु नानक देव जी के जीवन के अनेक पहलू हैं। वे जन सामान्य की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान करने वाले महान् दार्शनिक, विचारक थे। अपनी सुमधुर सरल वाणी से जनमानस के हृदय को झंकृत कर देने वाले महान् संत कवि भी। वह क्रांतिकारी कवि की तरह बाबर जैसे अत्याचारी शासक की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तो जाति वैमनस्य और धार्मिक रंजिशों में फंसे समाज को सही दिशा दिखाते हैं। आध्यात्मिक विचारक, संत होने के साथ- साथ गुरु जी एक महान् देश भक्त भी थे। वे सच्चे अर्थो में एक क्रांतिकारी युग पुरुष थे।
गुरु नानकदेव जी एक समन्वयवादी संत थे। देश-विदेश के व्यापक भ्रमण के पश्चात् उनका दृष्टिकोण भी विस्तृत हो गया था। उनका कहना था-मनुष्य मनुष्य में कोई भेद नहीं है, सभी मनुष्य ईश्वर की संतान है। गुरु ग्रंथ साहब में सभी संतों एवं धर्मो की उक्तियों को सम्मिलित कर उन्होंने अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचय दिया है। पत्नी सुलक्षणा से उन्हें दो पुत्र भी हुए थे, परंतु उनका मन गृहस्थी में कभी नहीं लगा और वे आजीवन परोपकार एवं दीन-दुखियों की सेवा में लगे रहे।
सतगुरू नानक प्रगटिया, मिटी धुंध जग चानण होआ
गुरु नानक देव जी ने एक ऐसे विकट समय में जन्म लिया, जब भारत में कोई केंद्रीय संगठित शक्ति नहीं थी। विदेशी लुटेरों के हमले बढ़ गए थे। विदेशी आक्रमणकारी, देशवासियों का मानमर्दन कर देश को लूटने में लगे थे। धर्म के नाम पर अंधविश्वास और कर्मकांड का बोलबाला था। जातिगत भेदभाव चरम पर था। ऐसे कठिन समय में गुरु नानक देव जी के प्रकाश के बारे में भाई गुरदास जी ने लिखा है-
”सतगुरू नानक प्रगटिया,
मिटी धुंध जग चानण होआ,
ज्यूँ कर सूरज निकलया,
तारे छुपे अंधेर पलोआ।“
वाकई गुरुनानक देव जी के जीवन के विविध रूप हैं।
‘एक कुदरत के सब बंदे’
गुरु जी ने तब के समय में समाज और देश की अधोगति को अच्छे से अनुभव vकिया और निरंतर छिन्न-भिन्न होते जा रहे सामाजिक ढाँचे को अपने हृदयस्पर्शी उपदेशों से पुनः एकता के सूत्र में बाँध दिया। उन्होंने लोगों को बेहद सरल भाषा में समझाया- इस सभी इंसान एक दूसरे के भाई हैं ईश्वर सबका साझा पिता है। फिर एक पिता की संतान होने के बावजूद हम ऊँच-नीच कैसे हो सकते हैं?
नानक जी का जन्म एक हिंदू परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम कल्याण या मेहता कालू जी था और माता का नाम तृप्ती देवी था। 16 वर्ष की उम्र में इनका विवाह गुरदासपुर जिले के लाखौकी नाम स्थान की रहने वाली कन्या सुलक्खरनी से हुआ। इनके दो पुत्र श्रीचंद और लख्मी चंद थे।
ऊँच-नीच का विरोध करते हुए गुरु नानकदेव अपनी मुखवाणी ‘जपुजी साहिब’ में कहते हैं कि ‘नानक उत्तम-नीच न कोई’ जिसका भावार्थ है कि ईश्वर की निगाह में छोटा-बड़ा कोई नहीं फिर भी अगर कोई व्यक्ति अपने आपको उस प्रभु की निगाह में छोटा समझे तो ईश्वर उस व्यक्ति के हर समय साथ है। यह तभी हो सकता है जब व्यक्ति ईश्वर के नाम द्वारा अपना अहंकार दूर कर लेता है। तब व्यक्ति ईश्वर की निगाह में सबसे बड़ा है और उसके समान कोई नहीं। नानक देव जी की वाणी में:- नीचा अंदर नीच जात, नीची हूँ अति नीच।
नानक तिन के संगी साथ, वडियाँ सिऊ कियाँ रीस।।
समाज में समानता का नारा देने के लिए नानक देव ने कहा कि ईश्वर हमारा पिता है और हम सब उसके बच्चे हैं और पिता की निगाह में छोटा-बड़ा कोई नहीं होता। वही हमें पैदा करता है और हमारे पेट भरने के लिए खाना भेजता है। नानक जंत उपाइके, संभालै सभनाह।
जिन करते करना कीआ, चिंताभिकरणी ताहर
जब हम ‘एक पिता एकस के हम बारिक’ बन जाते हैं तो पिता की निगाह में जात-पात का सवाल ही नहीं पैदा होता। गुरु नानक जात-पात का विरोध करते हैं। उन्होंने समाज को बताया कि मानव जाति तो एक ही है फिर यह जाति के कारण ऊँच-नीच क्यों? गुरु नानक देव ने कहा कि मनुष्य की जाति न पूछो, जब व्यक्ति ईश्वर की दरबार में जाएगा तो वहाँ जाति नहीं पूछी जाएगी। सिर्फ आपके कर्म ही देखे जाएँगे।
लँगर और संगत की परम्परा
उल्लेखनीय बात यह है कि गुरु जी ने इन उपदेशों को अपने जीवन में अमल में लाकर, स्वयं एक आदर्श बन सामाजिक सद्भाव की मिसाल कायम की। गुरु जी ने लँगर की परंपरा चलाई। लँगर में, कथित अछूत लोग, जिनके सम्पर्क से भी खुद को उच्च जाति का समझने वाले लोग बचने की कोशिश करते थे, एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे। आज भी सभी गुरुद्वारों में गुरु जी द्वारा शुरू की गई लँगर की परंपरा कायम है। जहाँ धर्म, जाति के भेदभाव से ऊपर उठकर सारे लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं, संगत सेवा करती है।
इसके साथ ही जातिगत वैमनस्य को खत्म करने के लिए गुरुजी ने संगत परंपरा शुरू की, जहाँ हर जाति के लोग साथ साथ जुड़ते थे, एक साथ प्रभु की आराधना किया करते थे। गुरुजी ने अपनी यात्रा के दौरान हर उस व्यक्ति का आतिथ्य स्वीकार किया, उनके यहाँ भोजन किया जो भी उनका प्रेमपूर्वक स्वागत करता था। बाला और मरदाना नाम के दोनों शिष्य हमेशा उनके साथ बने रहे। इस प्रकार तत्कालीन सामाजिक परिवेश में गुरु नानक देव जी ने अपने क्रांतिकारी कदमों से एक ऐसी भाईचारे की नींव रखी, जिसके लिए धर्म जाति का भेदभाव बेमानी था।
सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए प्रभु स्मरण
उस समय त्याग, वैराग्य और जँगलों में जाकर भजन करना मोक्ष प्राप्ति के लिए जरूरी समझा जाता था। ऋषि मुनि लोग समाज की मुख्यधारा से कटकर जंगल में जाकर तपस्या करते थे। इस प्रकार बुराइयों से ग्रस्त समाज को सुधारने में उनका कोई योगदान नहीं था। गुरुजी ने उन्हे ‘सब हराम जैता कुछ खाए’ का हवाला देकर समाज से जोड़ा। गुरू जी ने कहा कि अगर वो समाज के लिए कोई योगदान नहीं दे रहे है तो उन्हें इसका अन्न खाने का भी अधिकार नहीं है। वाकई गुरुनानक का ईश्वर सबका साझा ईश्वर है। उसे पाने के लिए जँगलों में भटकना जरूरी नहीं। सामाजिक जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुये भी उसे पाया जा सकता है।
गुरुजी ने जहाँ एक ओर अपने सरल निश्चल और सारगर्भित उपदेशों से धर्म को संकीर्णता की जड़ों से बाहर निकाला और उसे सर्वथा लोकहित की भाव भूमि पर स्थापित किया। लोगों के हृदय में दया, ईश्वरीय प्रेम और सहिष्णुता के बीज बोए, वही तत्कालीन शासकों के खिलाफ क्रांतिकारी उपदेशों से गुलामी और अत्याचार सहने को अपनी नियति मान चुके लोगों के सोए स्वाभिमान को जगाया। इसके साथ ही धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड अंधविश्वास और कर्मकांड पर चोट की।
गुरु जी की शिक्षाएँ आज भी प्रांसगिक
वाकई गुरु नानक देव जी के उपदेश आज भी उतने ही प्रासंगिक है। हमें जहाँ समाज में फैले वैमनस्य, कुरीतियों और और आडंबर के विरुद्ध संघर्ष करना है तो साथ ही सांप्रदायिकता, जातिवाद के विष से सचेत रहकर हर हालत में आपसी एकता और भाईचारे को बनाए रखना है।
तरुण कुमार दाधीच