होली भारतीय संस्कृति की पहचान का एक पुनीत पर्व है। होली एक संकेत है वसंतोत्सव के रूप में ऋतु परिवर्तन का। एक अवसर है भेदभाव की भावना को भुलाकर पारम्परिक प्रेम और सदभावना प्रकट करने का। एक संदेश है जीवन में ईश्वरोपासना एवं प्रभुभक्ति बढ़ाने का।
होलिकोत्सव में लोग एक-दूसरे को रंग से रंगकर मन की दूरियों को मिटाकर एक-दूसरे के नजदीक आते हैं। यह उत्सव जीवन में नया रंग लाने का उत्सव है। होली आनंद जगाने का उत्सव है, परस्पर देवो भव की भावना जगाने वाला उत्सव है। विकारी भावों पर धूल डालने एवं निर्विकार नारायण का प्रेम जगाने का उत्सव है। होली का त्योहार एक ओर जहाँ व्यक्तिगत अहं की सीमाएँ तोड़ते हुए हमें निरहंकार बनने की प्रेरणा देता है, वहीं दूसरी ओर मत, पंथ, सम्प्रदाय, धर्म आदि की सारी दीवारों को तोड़कर आपसी सदभाव को जागृत करता है। होली मात्र लकड़ी के ढेर को जलाने का त्योहार नहीं है, यह तो चित्त की दुर्बलताओं को दूर करने का, मन की मलिन वासनाओं को जलाने का पवित्र दिन है।
प्राचीनकाल से मनाया जाने वाला यह होलिकोत्सव ऐतिहासिक रूप से भी बहुत महत्त्व रखता है। भूने हुए अन्न को संस्कृत में ‘होलका’ कहा जाता है। अर्धभुने अनाज को ‘होला’ कहते हैं। होली की आँच पर अर्धभुने अनाज का प्रसाद रूप में वितरण किये जाने की प्राचीन परम्परा से भी सम्भवतः इस उत्सव के ‘होलिकोत्सव’ तथा ‘होली’ नाम पड़े हों। (अर्धभुने धान को खाना वात व कफ के दोषों का शमन करने में सहायक होता है- यह होलिकोत्सव का स्वास्थ्य-हितकारी पहलू है)। प्राचीन परम्परा के अनुसार होलिका-दहन के दूसरे दिन होली की राख (विभूति) में चंदन व पानी मिलाकर ललाट पर तिलक किया जाता है। यह तो सर्वविदित है कि माधुर्य अवतार, प्रेमावतार भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों को आनंदित-उल्लसित करने के लिए इस महोत्सव का अवलम्बन लिया था।
होली का आगमन बसंत ऋतु की शुरुआत के करीब-करीब आस-पास होता है। लगभग यह वक्त है, जब शरद ऋतु को अलविदा कहा जाता है और उसका स्थान वसंत ऋतु ले लेती है। इन दिनों हल्की-हल्की बयारें चलने लगती है। यह मौसमी बदलाव व्यक्ति-व्यक्ति के मन में सहज प्रसन्नता, स्फूर्ति पैदा करता है। इससे सामाजिक समरसता के भाव भी दृढ़ बनते हैं। भारतीय लोक जीवन में होली की जड़ें काफी गहरी जम चुकी हैं।
होली शब्द का अंग्रेजी भाषा में अर्थ होता है पवित्रता। इस त्योहार के साथ यदि पवित्रता की विरासत का जुड़ाव होता है तो इस पर्व की महत्ता शतगुणित हो जाती है। डफली की धुन एवं डाँडिया रास की झँकार में मदमस्त मानसिकता ने होली जैसे त्योहार की उपादेयता को मात्र इसी दायरे तक सीमित कर दिया, जिसे तात्कालिक खुशी कह सकते हैं, जबकि अपेक्षा है कि रंगों की इस परम्परा को दीर्घजीविता प्रदान की जाए। स्नेह और सम्मान का, प्यार और मुहब्बत का, मैत्री और समरसता का ऐसा समा बाँधना चाहिए कि जिसकी बिसात पर मानव कुछ नया भी करने को प्रेरित हो सके।
रंग बरसे नाचे,
कृष्ण मुरारी रंग बरसे,
रंग बरसे नाचें,
राधा प्यारी रंग बरसे।।
नन्हे कान्हा ने गोवर्धन उठाया,
इंद्र की वर्षा से ब्रज को बचाया,
और होली पे सबको भिगाए,
लीला कैसी दिखाए रंग बरसे,
रंग बरसे नाचें,
कृष्ण मुरारी रंग बरसे।।
टेढ़ो सा है मेरो बाँके बिहारी,
है तीखी कटारी वृंदावन बिहारी,
मारे जोर से पिचकारी,
मुरारी रंग बरसे,
रंग बरसे नाचें,
कृष्ण मुरारी रंग बरसे।।
साँवलो है लाला और गोरी है लाली,
हाथों में दोनों के रंगो की थाली,
दोनां हुए पूरे लाल,
जो उड़ा गुलाल रंग बरसे,
रंग बरसे नाचें,
कृष्ण मुरारी रंग बरसे।।
छाती फुलाए पहुँचे बरसाने,
पहुँचे बरसाने राधा को सताने,
लठ्ठ की मार खाके भागे,
मुरारी रंग बरसे,
रंग बरसे नाचें,
कृष्ण मुरारी रंग बरसे।।
होली एक ऐसा ही त्योहार है, जिसका धार्मिक ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व है। पौराणिक मान्यताओं की रोशनी में होली के त्योहार का विराट समायोजन बदलते परिवेश में विविधताओं का संगम बन गया है।
होली के त्यौहार के विषय में सर्वाधिक प्रसिद्ध कथा प्रह्लाद तथा होलिका के सम्बंध में भी है। नारदपुराण में बताया गया है कि हिरण्यकशिपु नामक राक्षस का पुत्र प्रह्लाद अनन्य हरि-भक्त था, जबकि स्वयं हिरण्यकशिपु नारायण को अपना परम-शत्रु मानता था। उसके राज्य में नारायण अथवा श्रीहरि नाम के उच्चारण पर भी कठोर दंड की व्यवस्था थी। अपने पुत्र को ही हरि-भक्त देखकर उसने कई बार चेतावनी दी, किंतु प्रह्लाद जैसा परम भक्त नित्य प्रभु-भक्ति में लीन रहता था। हारकर उसके पिता ने कई बार विभिन्न प्रकार के उपाय करके उसे मार डालना चाहा। किंतु, हर बार नारायण की कृपा से वह जीवित बच गया। हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था। अतः वह अपने भतीजे प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई। किंतु प्रभु-कृपा से प्रह्लाद सकुशल जीवित निकल आया और होलिका जलकर भस्म हो गई। होली का त्योहार असत्य पर सत्य की विजय और दुराचार पर सदाचार की विजय का प्रतीक है। इस प्रकार होली का पर्व सत्य, न्याय, भक्ति और विश्वास की विजय तथा अन्याय, पाप तथा राक्षसी वृत्तियों के विनाश का भी प्रतीक है।
प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में ‘रंग’ नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ‘ऋतुसंहार’ में पूरा एक सर्ग ही ‘वसन्तोत्सव’ को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है।
होली के पर्व की तरह इसकी परम्पराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परम्परा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र सुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरम्भ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरम्भ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरम्भ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।
आज बृज में होली है रे रसिया,
होरी रे रसिया,
बरजोरी रे रसिया,
आज बृज में होली है रे रसिया।।
घर घर से ब्रज बनिता आई,
घर घर से ब्रज बनिता आई,
कोई सांवर कोई गोरी है रे रसिया,
आज बृज में होली है रे रसिया।।
कौन गाँव के कुंवर कन्हैया,
कौन गाँव के कुंवर कन्हैया,
कौन गाँव राधा गोरी है रे रसिया,
आज बृज में होली है रे रसिया।।
नन्द गाँव के कुँवर कन्हैया,
नन्द गाँव के कुँवर कन्हैया,
बरसाने की राधा गोरी रे रसिया,
आज बृज में होली है रे रसिया।।
कौन वरण के कुँवर कन्हैया,
कौन वरण के कुँवर कन्हैया,
कौन वरण राधा गोरी रे रसिया,
आज बृज में होली है रे रसिया।।
श्याम वरण के कुँवर कन्हैया,
श्याम वरण के कुँवर कन्हैया,
गौर वरण राधा गोरी रे रसिया,
आज बृज में होली है रे रसिया।।
इत ते आए कुँवर कन्हैया,
इत ते आए कुँवर कन्हैया,
उत ते राधा गोरी रे रसिया,
आज बृज में होली है रे रसिया।।
कौन के हाथ कनक पिचकारी,
कौन के हाथ कनक पिचकारी,
कौन के हाथ कमोरी रे रसिया,
आज बृज में होली है रे रसिया।।
कृष्ण के हाथ कनक पिचकारी,
कृष्ण के हाथ कनक पिचकारी,
राधा के हाथ कमोरी रे रसिया,
आज बृज में होली है रे रसिया।।
तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोत्सव है जबकि मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है। छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया, जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होलीमें इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है।
होली के उपलक्ष्य में अनेक सांस्कृतिक एवं लोक चेतना से जुड़े कार्यक्रम होते हैं। महानगरीय संस्कृति में होली मिलन के आयोजनों ने होली को एक नया उल्लास एवं उमंग का रूप दिया है। इन आयोजनों में बहुत शालीन तरीके से गाने बजाने के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं।चंदन का तिलक और ठंडाई के साथ सामूहिक भोज इस त्यौहार को गरिमामय छवि प्रदान करते हैं। देर रात तक चंग की धुँकार, घूमर, डांडिया नृत्य और विभिन्न क्षेत्रों की गायन मंडलियाँ अपने प्रदर्शन से रात बढ़ने के साथ-साथ अपनी मस्ती और खुशी को बढ़ाते हैं।
होली के पावन प्रसंग पर हमें इस बात के लिए दृढ़ संकल्पित होना होगा कि अपने मन, वाणी और व्यवहारों में अंतर्निहित आसुरी प्रवृत्तियों का परिष्कार करें एवं उसके स्थान पर पवित्रता की देवी को प्रतिष्ठित करें। होली जैसे त्यौहार में जब अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, ब्राह्मण-शूद्र आदि सब का भेद मिट जाता है, तब ऐसी भावना करनी चाहिए कि होली की अग्नि में हमारी समस्त पीड़ाएँ, दुःख, चिंताएँ, द्वेष-भाव आदि जल जाएँ तथा जीवन में प्रसन्नता, हर्षोल्लास तथा आनंद का रंग बिखर जाए।
डॉ. प्रतिमा सामर