अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है। जैन पंथ के 24वें तीर्थकर महावीर स्वामी का कहना था कि जो धर्मात्मा है, जिसके मन में सदा धर्म रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। उन्होंने लोगों को सत्य और अहिंसा के पथ पर चलने का ज्ञान दिया। महावीर स्वामी ने अपने प्रवचनों में धर्म, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, क्षमा पर सबसे अधिक जोर दिया है। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार है। भगवान महावीर ने पशुओं के प्रति होने वाले अत्याचार, पशु बलि चढ़ाने की परम्परा और लोगों के भीतर चल रहे जातिवाद का विरोध किया था। स्वामी महावीर द्वारा बताई गई शिक्षाएँ और उपदेश ही जैन मत के प्रमुख सिद्धांत रूप में आज भी मौजूद है।
महावीर स्वामी जैन मत के 24वें तीर्थंकर है। इस वर्ष महावीर जयंती का पर्व 21 अप्रैल को मनाया जाएगा। इनका जन्म भारत में 599 ईसा पूर्व एक शाही दंपती के यहाँ हुआ था। हालाँकि, महावीर स्वामी एक शाही परिवार में पैदा हुए थे और उनका जीवन बेहद ही सुखमय था। लेकिन, उन्होंने बहुत ही कम उम्र से अपने आप को सभी सांसारिक चीजों से दूर कर लिया था। तीस वर्ष की आयु में महावीर जी ने अपने परिवार और राज्य को छोड़ दिया। महावीर स्वामी ने एक तपस्वी के रूप में 12 वर्षों तक काफी संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत किया था। उन्होंने इसी दौरान अपने वस्त्रों को भी त्याग दिया था। इस प्रकार महावीर ने अतीत, वर्तमान और भविष्य के बारे में संपूर्ण ज्ञान बयालिस वर्ष की आयु में प्राप्त कर लिया था।
महावीर स्वामी की शिक्षा :
जैन धर्म के 24वें तीर्थकर महावीर स्वामी ने अपनी तपस्या के दौरान ही अपनी शिक्षाओं और उपदेशों के आधार से लोगों को जीवन जीने की रीत बताई थी। इसके साथ ही सत्य और अहिंसा के पथ पर चलने का ज्ञान भी प्रदान किया। महावीर स्वामी के द्वारा बताई गई शिक्षाएँ और उपदेश ही जैन धर्म के प्रमुख पंचशील सिद्धांत रूप में आज भी मौजूद है। उनके दिए गए सिद्धांतों में सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, अहिंसा और ब्रह्मचर्य का समावेश होता है। पशु के प्रति होने वाले अत्याचार, पशु को बलि चढ़ाने की कुपरम्परा और हिन्दू समाज में व्याप्त हो रहे जातिवाद का विरोध भगवान महावीर ने किया था। जिसके साथ-साथ इन सिद्धान्तों और शिक्षाओं को आचरण में आकर कोई भी इंसान एक सच्चा जैन अनुयायी बन सकता है उसका संदेश प्रदान किया।
अनेकांत का सिद्धांत
भगवान महावीर ने वस्तु को अनेकांतात्मक बताया। इसके अनुसार, जिस तरह किसी एक विचार के कई पहलू होते हैं, उसी तरह एक ही वस्तु के कई गुण हो सकते हैं। निराशावादी और हठधर्मी लोग प्रत्येक वस्तु, घटना या परिस्थिति को सिर्फ अपने नजरिए से देखते हैं। दूसरों के विचारों या नजरिए को विरोध भाव से देखते हैं। यदि इसे व्यावहारिक रूप में समझ लिया जाए, तो कभी दिक्कत नहीं होगी। विरोधी दिखने वाले विचार को भी वे स्वीकार करने लगेंगे। यह स्वीकारोक्ति ही व्यक्ति को आधे से अधिक तनावों से मुक्त कर देती है।
अहिंसा और अपरिग्रह का सिद्धांत
मन-वचन-कर्म से किसी जीव को दुखी करना या उसके प्राणों का हरण कर लेना ही मुख्य रूप से हिंसा है। यदि मन में लगातार हिंसा के विचार आ रहे हैं, तो व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है। अहिंसा का भाव मन को शांत रखता है। भगवान महावीर ने माना कि दुखों का मूल कारण परिग्रह भी है। आसक्ति को परिग्रह कहा गया है। आवश्यकता से ज्यादा अचेतन पदार्थों का संग्रह मनुष्य को तनाव में डाल देता है। जो मनुष्य जितना कम परिग्रह रखता है उतना ही तनावमुक्त रहता है। यदि किसी व्यक्ति को किसी पदार्थ के प्रति अधिक आसक्ति है, तो उस पदार्थ का वियोग होने पर वह दुखी होता है।
कर्म का सिद्धांत
जैन दर्शन के अनुसार समय आने पर सभी जीव अपने कर्मों का फल अनुकूल या प्रतिकूल रूप में भोगते हैं। व्यक्ति अपने कर्मो के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है। सुख और दुख स्वयं के कर्मो का फल है। दूसरे लोग मुझे सुख या दुख देते हैं, ऐसे विचार तत्वज्ञान से शून्य व्यक्ति ही करते हैं। इससे जीवन में दूसरों को दोष देने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगता है। उन्हें यह बात समझ में आ जाती है कि दूसरे लोग निमित्त मात्र हैं। ऐसा चिंतन करने से मनुष्य व्यर्थ ही तनावग्रस्त नहीं होता है।
सर्वज्ञता का सिद्धांत
जैन दर्शन सर्वज्ञता के सिद्धांत को मानता है। सर्वज्ञ पर विश्वास करने वाला कभी तनावग्रस्त नहीं हो सकता है। तत्वज्ञानी सम्यक् दृष्टि रखते हैं और किसी भी घटना, परिस्थिति को लेकर आश्चर्यचकित या दुखी नहीं होते हैं। जैन दर्शन अकर्तावादी दर्शन है। इसके अनुसार जो कोई भी कर्ता है वह अपने स्वभाव का ही कर्ता है, परभाव का नहीं। परभाव का न कर्ता है और न भोक्ता। अकर्तावाद मनुष्य की पराश्रय बुद्धि में सुधार करता है तथा दूसरा मेरा कुछ भला या बुरा कर सकता है, यह मिथ्या मान्यता दूर हो जाती है। फलस्वरूप व्यर्थ के तनाव-अवसाद से मनुष्य दूर रहता है।
वैज्ञानिक तर्क हैं उनके ज्ञान में
इनके अलावा भगवान महावीर ने चित्त की निर्मलता व एकाग्रता को बढ़ाने के लिए अनेक उपायों की चर्चा की है। सस्वर पूजन, पाठ, भक्ति, स्वाध्याय, मंत्रजाप व सामायिक ध्यान-योग आदि प्रमुख रूप से एकाग्रता बढ़ाने में सहायक होते हैं। इन क्रियाओं के माध्यम से शरीर में कषायों को बढ़ाने वाले हानिकारक हारमोंस का स्त्राव बंद हो जाता है तथा फेफड़े, हृदय व पाचन तंत्र की क्रियाशीलता में वृद्धि कर हानिकारक तत्वों को शरीर से बाहर निकलने में मदद करता है। इसी प्रकार स्वाध्याय से अर्जित ज्ञान तनाव मुक्ति के लिए उत्कृष्ट समाधान प्रस्तुत करता है तथा तनाव रहित जीवन की कला सिखाता है।
डॉ. प्रतिमा सामर