स्वामी दयानंद आर्य समाज के संस्थापक, महान चिंतक, समाज- सुधारक और देशभक्त थे। हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन महीने की कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि पर आर्य समाज के संस्थापक और समाज-सुधारक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती की जयंती मनाई जाती है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने बाल विवाह, सती प्रथा जैसी कुरीतियों को दूर करने में अपना खास योगदान दिया है। उन्होंने वेदों को सर्वोच्च माना और वेदों का प्रमाण देते हुए हिंदू समाज में फैली कुरीतियों का विरोध किया।
भारतीय समाज में हो रहे नकारात्मक परिवर्तनों ने महर्षि दयानंद को बहुत गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने भारतीय समाज के धार्मिक दृष्टिकोण के साथ-साथ उसकी सामाजिक परिस्थितियों तथा एक साधारण व्यक्ति की व्यथाओं व परेशानियों का वैज्ञानिक अन्वेषण किया। इसीलिए स्वामी जी द्वारा किए गए समाज सुधार चाहे वह नारी उत्थान के विषय में हो या हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों व कुप्रथाओं अथवा मूर्तिपूजा या कर्मकांडों का खंडन हो, सभी वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसे गए। स्वामी जी के समाज सुधारों में एक महत्वपूर्ण बात यह थी कि वह समाज में परिवर्तन लाने के लिए मनुष्य को अपनी बुद्धि, विवेकशक्ति और चिंतन प्रणाली का प्रयोग करने के लिए कहते थे तथा उसके लिए उसे उचित वातावरण भी देने का प्रयत्न करते थे। यह उनके प्रगतिशील विचारों तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रमाण है।
दयानंद की ईश्वर में निष्ठा थी। उन्होंने बताया कि वेदों ने ईश्वर को अद्वितीय अर्थात् ‘एक ही’ बताया है। दूसरा ईश्वर होने का निषेध किया है। दयानंद के अनुसार सृष्टि के तीन मूल कारण ईश्वर, जीव एवं प्रकृति हैं। ये तीनों सृष्टि के अनादि कारण हैं। ये तीनों अनंत भी हैं अर्थात् इनका कभी अंत नहीं होता है। इस प्रकार ये तीनों ही सत्य हैं। दयानंद ने ईश्वर को सृष्टि का निर्माण, पालन एवं संहारकर्ता बताया है। एकेश्वरवाद तथा ईश्वर के निराकार स्वरूप में सहज आस्था होने के कारण दयानंद ने हिंदू धर्म में प्रचलित बहुदेववाद और अवतारवाद का घोर विरोध किया तथा इन्हें वेद विरुद्ध, अप्रामाणिक व विकृत प्रवृत्तियाँ बतलाया।
मूर्ति पूजा का विरोध : दयानंद ने मूर्ति पूजा को जड़पूजा कहा है क्योंकि वे मूर्ति पूजा के स्वाभाविक विरोधी थे। दयानंद के अनुसार मूर्ति पूजा वेद विरुद्ध है तथा इसका कोई प्रामाणिक एवं तार्किक आधार नहीं है। दयानंद ने मूर्तिपूजा में निम्नलिखित दोष बताए हैं : मूर्ति पूजा नास्तिक कर्म है। मूर्ति के द्वारा आध्यात्मिक एकता की प्राप्ति असंभव है। मूर्ति में ईश्वर की प्राण-प्रतिष्ठा की धारणा मूर्खतापूर्ण है। भक्त श्रद्धापूर्वक अपनी चेतना को मूर्ति के आगे अर्पित कर देता है और उसकी बुद्धि जड़ हो जाती है। मूर्ति पूजा से एक ही धर्म के अनुयायियों में धार्मिक मतभेद एवं अज्ञान की वृद्धि होती है। ऐतिहासिक दृष्टि से मूर्ति पूजा से देश को हानि हुई है। मूर्ति पूजा से भ्रमित व्यक्ति देश-देशांतर के मंदिरों की यात्रा करते हैं और दुःख पाते हैं। मूर्ति पूजा पर्यावरण के लिए हानिकारक है। इन सब कारणों से दयानंद ने मूर्ति पूजा का विरोध किया है।
सार्वभौमिक धर्म का समर्थन : दयानंद ने मानव मात्र के कल्याण के लिए सार्वभौमिक धर्म की धारणा पर बल दिया है, जिसे उन्होंने ‘सर्वतंत्र सिद्धांत’ अथवा ‘सनातन नित्य धर्म’ कहा है। उनकी मान्यता के अनुसार धर्म वह है जो तीनों कालों में एक जैसा मानने योग्य हो। धर्म वह है जिसे सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारी विद्वान मानते हों, वही सबको स्वीकार हो। दयानंद ने जीवन के प्रति मनुष्य के मर्यादित और संतुलित दृष्टिकोण को ही धर्म की संज्ञा दी है।
वेद एवं उनके अनुपूरक ग्रंथों को ही मान्यता : दयानंद ने वेदों के महत्त्व को प्रकट करते हुए कहा है कि वेद सब सत्य विधाओं की पुस्तक हैं। वेद को पढ़ना- पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
वास्तव में स्वामी दयानंद के प्रयासों ने लोगों को पश्चिमी शिक्षा के चंगुल से मुक्त किया। दयानंद सरस्वती ने लोकतंत्र और राष्ट्रीय जागृति के विकास में भी योगदान दिया। ऐसा कहा जाता है कि राजनीतिक स्वतंत्रता दयानंद के पहले उद्देश्यों में से एक थी। वास्तव में वह स्वराज शब्द का प्रयोग करने वाले पहले व्यक्ति थे। भारत में निर्मित स्वदेशी चीजों का उपयोग करने और विदेशी चीजों को त्यागने के लिए लोगों से आग्रह करने वाले वह पहले व्यक्ति थे। वह हिंदी को भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता देने वाले पहले व्यक्ति थे। दयानंद सरस्वती लोकतंत्र के प्रबल पक्षधर थे।
अर्थशास्त्र पर आधारित गौ रक्षा
स्वामी दयानंद के समाज सुधार में गौधन की रक्षा तथा गौहत्या के विरुद्ध संघर्ष भी बहुत महत्वपूर्ण है। गौधन को स्वामी जी मनुष्य जाति के लिए बहुत उपयोगी और जीवनदायी मानते थे। इसे सिद्ध करने के लिए उन्होंने गौधन के अर्थशास्त्र को समझाया। यह भी उनके समाज सुधार का एक वैज्ञानिक आधार ही था जिसमें उन्होंने साधारण मनुष्य की आवश्यकता को ध्यान में रखकर एक संतुलित समाज के विकास का मार्ग बनाया। यह उस समय का एक आवश्यक सुधार क्षेत्र था जिसमें समाज भी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे अपने संसाधनों को सुरक्षित रखने और विकसित करने के लिए प्रेरित करना आवश्यक था।
बाल विवाह का वैज्ञानिक आधार पर विरोध
स्वामी जी के समाज सुधार के कार्य उनके द्वारा समाज के गहरे अध्ययन पर आधारित थे। यह अध्ययन समाज की वास्तविक परिस्थितियों अर्थात् सत्य पर आधारित था और सत्य के विषय में उनके विचार बहुत स्पष्ट थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि बाल विवाह जैसी कुप्रथाएँ स्वस्थ मनुष्य और स्वस्थ समाज के विकास में बाधक हैं।
बाल विवाह का विरोध करने के पीछे एक वैज्ञानिक आधार यह भी था कि मनुष्य में प्रजनन क्षमता तथा प्रक्रिया यौवनावस्था (15 वर्ष से 19 वर्ष) में चरम सीमा पर होती है और इस अवस्था में मनुष्य मानसिक व शारीरिक रूप से पूर्ण विकसित नहीं होता इसलिए उन्होंने स्त्री और पुरुष के विवाह की आयु उनके पूर्ण रूप से विकसित और मानसिक व शारीरिक रूप से परिपक्व हो जाने पर निश्चित की।
समग्र सुधार का आह्वान
स्वामी दयानंद के चिंतन और कार्यों में सतत् गतिशीलता तथा प्रगतिशील विचारा धारा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। धार्मिक क्षेत्र व सामाजिक क्षेत्र के साथ-साथ उन्होंने राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में भी अपने समकालीन समाज सुधारकों की तुलना में अधिक प्रगतिशील विचार दिए। धार्मिक क्षेत्र में परिवर्तन लाना तो उनका लक्ष्य था ही, स्वदेश की हीन अवस्था से भी वह पूरी तरह परिचित थे। उनकी यह धारणा बन चुकी थी कि अंग्रेजी शासन में प्रचलित न्याय प्रणाली दोषपूर्ण है। उनका विश्वास था कि प्राचीन काल में प्रचलित पंचायत प्रणाली जिसमें निवासियों के आपसी वाद-विवादों को मिल बैठकर सुलझा लिया जाता है, ग्राम पंचायत व्यवस्था भारत जैसे ग्राम प्रधान देश के लिए अनुकूल है।
डॉ. सौरभ व्यास