राजा जनक एक बार गरमी के दिनों में दोपहर भोजन के बाद विश्राम कर रहे थे। सेवक पँखे से उन्हें हवा कर रहे थे और दरवाजे पर सुरक्षा में प्रहरी तैनात।
जनक ने एक स्वप्न देखा- वह शत्रु राजा से युद्ध करते हुए अपना राज्य और समस्त सम्पत्ति हार गए। पीछा करती शत्रु सेना से अपनी जान बचाने के लिए जंगल की ओर भाग निकले।
काफी दूर तक भागते रहे, शाम हो गई। भूख-प्यास से व्याकुल उन्होंने देखा एक जगह कोई दानदाता भिखारियों को उबले हुए चावल बाँट रहा है। जनक भी उस पंक्ति में लग गए। जब उनकी बारी आई तो चावल बाँटने वाले ने कहा पात्र तो लाओ जिसमें भोजन डाल सकें। कटोरे के अभाव में वे बिना चावल लिए पंक्ति से निकल आए।
थके-हारे हताश जनक उस चूल्हे के पास बैठ गये जहाँ भोजन बन रहा था। एक नौकर बर्तन साफ कर रहा था, उसने दया करके बर्तन से खुरच कर कुछ बचे-खुचे पानी मिले हुए चावल खाने को दिए। इतने में वहाँ दो सांड़ लड़ते हुए आए और उनकी भिड़ंत में उनका पात्र गिरकर टूट गया। जनक अपने दुर्भाग्य से इतने दुखी हुए कि दहाड़ मारकर रो पड़े। इतने में स्वप्न समाप्त हो गया जनक की आँख खुल गई।
लेकिन इस स्वप्न ने उनके मन को बहुत गहरे तक हिला दिया। उन्होंने मंत्रियों को बुलाया और अपना स्वप्न बताने के बाद यह प्रश्न पूछा- यह सच है कि वह सच है ? मेरी स्वप्न की वह दशा या आज की स्थिति कि मैं राजा हूँ ?
सबने अपने-अपने तरीके से जनक को संतुष्ट करना चाहा। लेकिन राजा का हृदय बेचैन रहा। उन्होंने सोचा हो सकता है मैं हताश और भूखा बैठा हूँ और स्वप्न में राजा बना हुआ हूँ।
कौन कह सकता है कि वास्तविक रूप क्या है ?
ऐसी ही दशा में राजा के दरबार में ऋषि अष्टावक्र का आगमन हुआ।
अष्टावक्र ने अद्भुत वचन कहे- ‘‘राजन! आप किसी एक दशा को सत्य मानने की कोशिश कर रहे हैं ? क्या आपने यह सोचा कि कहीं दोनों ही स्थितियाँ स्वप्न हों।’’
जनक और अष्टावक्र के बीच हुए इस संवाद को अद्वैत दर्शन का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान माना जाता है। उनका संवाद ‘अष्टावक्र महागीता’ में संकलित है। आदि शंकराचार्य ने अपने गुरु गौड़पाद से प्राप्त परंपरागत ज्ञान को पुनः प्रस्थापित किया। इस सदी में रामकृष्ण परमहंस और रमण महर्षि इसके जीवंत उदाहरण हैं।
अष्टावक्र के वचन : बंधन तब होता है जब मन में पदार्थ के प्रति कामना है, किसी वस्तु के अभाव में शोक करता है। किसी के प्रति अस्वीकार का भाव और किसी के प्रति अनुरक्त है, किसी भाव को लेकर प्रसन्न होता है या किसी भाव के लिए दुखी होता है। मुक्ति तब होती है जब मन में कोई वांछा नहीं है, न किसी के खोने का दुःख है, न किसी पदार्थ के बारे में शोक करता है, न ही किसी का निषेध करता है, या किसी वस्तु का आग्रह है, और किसी चीज के बारे में प्रसन्न नहीं होता है।
कपिल सेन