ज्ञात हो कि यह अवतार भगवान विष्णु ने वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में लिया था। ये तो ईश्वर की एक लीला है कि भगवान ने गर्भ से जन्म लिया लेकिन सच्चाई यह है कि प्रभु प्रकट होते हैं। यद्यपि राम जन्म के बारे में कहा जाता है कि श्रीराम जन्म स्थल अयोध्या में है, किन्तु गोस्वामी तुलसीदास नें लिखा है दृ ”भये प्रकट कृपाला दीन दयाला, कौशल्या हितकारी’’।
सच्चाई यह थी कि उस समय चारों ओर घोर पापाचार मचा था। धर्म के नाम पर लोग अधर्म कर रहे थे। इसी हेतु धर्म को स्थापित करने के लिए श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे। ब्रह्मा तथा शिव-प्रभृत्ति देवता जिनके चरणकमलों का ध्यान करते थे, ऐसे श्रीकृष्ण का गुणानुवाद अत्यंत पवित्र है। अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद सभी का उपयोग किया, क्योंकि उनके अवतीर्ण होने का मात्र एक उद्देश्य था कि इस पृथ्वी को पापियों से मुक्त किया जाए।
पृथ्वी पापियों के बोझ से नीचे दबी जा रही थी इसे देखते हुए सारे देवताओं द्वारा अनंत बार भगवान विष्णु के समक्ष गुहार लगाए जा रहे थे। विष्णु ही ऐसे देवता थे, जो समय-समय पर विभिन्न अवतारों को ग्रहण कर पृथ्वी के भार को दूर करने में सक्षम थे क्योंकि प्रत्येक युग में भगवान विष्णु ने ही महत्वपूर्ण अवतार लेकर दुष्ट राक्षसों का समूल संहार किया। ध्यान रहे कि हिन्दू कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,238 वर्ष पूर्व हुआ था, कई वैज्ञानिकों तथा पुराणों का यही मानना है। जो महाभारत युद्ध की कालगणना से मेल खाता है।
पुराणों में वर्णित है कि जब श्रीकृष्ण का स्वर्गवास हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ, इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ई. पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा। इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज मोहनजोदड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई। मैके द्वारा मोहनजोदड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था, जो हमें भागवत आदि पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है। इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 3000 ई. पूर्व हुआ होगा जो पुराणों की गणना में सटीक बैठता है। इससे श्रीकृष्ण जन्म का सटीक अंदाजा मिलता है। कुछ विद्वानों के अनुसार हिन्दू धर्म में सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग ऐसे चार युग प्रवाहों का वर्णन है। भगवान श्रीकृष्ण का जीवनकाल द्वापरयुग के अंतिम वर्षो में माना गया हैं। द्वापरयुग में 8,64,000 वर्ष माने गये हैं। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर के 8,32,875 वें साल के श्रावण के कृष्णपक्ष की अष्टमी और बुधवार के दिन रोहिणी नक्षत्र के समय पर हुआ। अवतारी पुरुष श्रीकृष्ण ने अपनी आयु के 125 साल एक माह और पाँच दिन इस पृथ्वी पर बिताये।
देखा जाए तो सृष्टि का आरंभ एक बड़े धमाके से हुआ जिसे वैज्ञानिक लोग बिग बैंग कहते हैं। बस उस ईश्वर की इच्छा थी कि संसार का निर्माण हो और सृष्टि बन गई। सर्वप्रथम उन परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिण पार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्व अहंकार आदि पाँच तन्मात्राएँ रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; ये पाँच विषय क्रमशः प्रकट हुए। इसके उपरान्त ही श्रीकृष्ण से साक्षात् भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ।
कौस्तुभ मणि उनके वक्षस्थल की शोभा बढ़ा रही थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में साक्षात् लक्ष्मी का निवास था। वे श्रीनिधि अपूर्व शोभा को प्रस्तुत कर रहे थे। शरत्काल की पूर्णिमा के चंद्रमा की प्रभा से सेवित मुखचन्द्र के कारण वे मनोहर जान पड़ते थे। कामदेव की कान्ति से युक्त रूप-लावण्य उनके सौंदर्य को और भी बढ़ा रहा था। नारायण श्रीकृष्ण के समक्ष खड़े होकर दोनों हाथों को जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।
गीताजी में भी भगवान ने अर्जुन को बताया की ”मयाध्यक्षेण प्रकृतिम् सूयते स चराचरम्।“ अर्थात् मेरी साक्षी में ही प्रकृति समस्त चराचर जगत् अर्थात् सृष्टि की रचना करती है।
श्रीकृष्ण लीलाओं का जो विस्तृत वर्णन भागवत ग्रंथ में किया गया है, उसका उद्देश्य क्या केवल कृष्ण भक्तों की श्रद्धा बढ़ाना है या मनुष्य मात्र के लिए इसका कुछ संदेश है? तार्किक मन को विचित्र-सी लगने वाली इन घटनाओं के वर्णन का उद्देश्य क्या ऐसे मन को अतिमानवीय पराशक्ति की रहस्यमयता से विमूढ़वत बना देना है अथवा उसे उसके तार्किक स्तर पर ही कुछ गहरा संदेश देना है, इस पर हमें विचार करना चाहिए।
श्रीकृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं, इसका स्पष्ट प्रमाण हमें ‘छान्दोग्य उपनिषद्’ के एक उल्लेख में मिलता है। वहां (3.17.6) कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि देवः कोटी अंगिरस ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी, जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण ‘तृप्त’ अर्थात् पूर्ण पुरुष हो गए थे। श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है। किंतु इनके जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन हमें प्राप्त है वह मूलतः श्रीमद् भागवत का है और वह ऐतिहासिक कम, आध्यात्मिक अधिक है और यह बात ग्रंथ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है। ग्रंथ में चमत्कारी भौतिक वर्णनों के पर्दे के पीछे गहन आध्यात्मिक संकेत छिपाए हैं।
श्रीमद्भागवत में सृष्टि की संपूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन कराया गया है। ग्रंथ के पूर्वार्ध (स्कंध 1 से 9) में सृष्टि के क्रमिक विकास (जड़-जीव-मानव निर्माण) का और उत्तरार्द्ध (दशम् स्कंध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक शैली में किया गया है। भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण लीला के कुछ मुख्य प्रसंगों का आध्यात्मिक संदेश पहचानने का यहाँ प्रयास किया गया है।
श्रीकृष्ण आत्म तत्व के मूर्तिमान् रूप हैं। मनुष्य में इस चेतन तत्व का पूर्ण विकास ही आत्म तत्व की जागृति है। जीवन प्रकृति से उद्भूत और विकसित होता है, अतः त्रिगुणात्मक प्रकृति के रूप में
श्रीकृष्ण की भी तीन माताएँ हैं-
1. रजोगुणी प्रकृति रूप देवकी जन्मदात्री माँ हैं, जो सांसारिक माया गृह में कैद हैं।
2. सत्गुणी प्रकृति रूपा माँ यशोदा हैं, जिनके वात्सल्य प्रेम रस को पीकर श्रीकृष्ण बड़े होते हैं।
3. इनके विपरीत एक घोर तमस् रूपा प्रकृति भी शिशु भक्षक सर्पिणी के समान पूतना माँ है, जिसे आत्म तत्व का प्रस्फुटित अंकुरण नहीं सुहाता और वह वात्सल्य का अमृत पिलाने के स्थान पर
विषपान कराती है। यहाँ यह संदेश प्रेषित किया गया है कि प्रकृति का तमस-तत्व, चेतन-तत्व के विकास को रोकने में असमर्थ है।
शिशु और बाल वय में ही श्रीकृष्ण द्वारा अनेक राक्षसों के वध की लीलाओं तथा सहज-सरल-हृदय मित्रों और ग्रामवासियों में आनंद और प्रेम बाँटने वाली क्रीड़ाओं का विस्तृत वर्णन भागवत में हुआ है। शिशु चरित्र गोकुल में और बाल चरित्र वृंदावन में संपन्न होने का जो उल्लेख है, वह आध्यात्मिक अर्थ की ओर संकेत करता है।
व्यक्ति और समाज को अपने अंदर व्याप्त आसुरी वृत्तियों के रूप में इनकी पहचान करना होगा तभी आध्यात्मिक-नैतिक शक्ति से इनका हनन संभव होगा और तब ही इस बालरूप श्रीकृष्ण का उद्भव महाभारत के सूत्रधार, धर्मस्थापक, श्रीकृष्ण के रूप में होना संभव होगा।
वृंदावन की कथाओं में कालिया नाग, गोवर्धन, रासलीला और महारास वाली कथाएँ अधिक प्रसिद्ध हैं। श्रीकृष्ण ने यमुना को कालिया नाग से मुक्त-शुद्ध किया था। यमुना, गंगा, सरस्वती नदियों को क्रमशः कर्म, भक्ति और ज्ञान की प्रतीक माना गया है। ज्ञान अथवा भक्ति के अभाव में कर्म का परिणाम होता है- कर्ता में कर्तापन के अहंकार-विष का संचय। यह अहंकार ही कर्म-नद यमुना का कालिया नाग है। सर्वात्म रूप श्रीकृष्ण भाव का उदय इस अहंकार-विष से कर्म और कर्ता की रक्षा करता है (गीता- 18.55.58)।
गोवर्धन धारण कथा की आर्थिक, नीति-परक और राजनीतिक व्याख्याएँ की गई हैं। इस कथा का आध्यात्मिक संकेत यह दिखता है कि गो अर्थात् इंद्रियों का वर्धन (पालन-पोषण) कर्ता, अर्थात इंद्रियों में क्रियाशील प्राण- शक्ति के स्रोत परमेश्वर पर हमारी दृष्टि होना चाहिए। इसी प्रकार गोपियों के साथ रासलीला के वर्णन में मन की वृत्तियाँ ही गोपिकाओं के रूप में मूर्तिमान हुई हैं और प्रत्येक वृत्ति के आत्म-रस से सराबोर होने को रासलीला या रसनृत्य के रूप में चित्रित किया गया है। इससे भी उच्च अवस्था का प्रेम और विरह के बाह्य द्वैत का एक आंतरिक आनंद में समाहित हो जाने की अवस्था का वर्णन ‘महारास’ में हुआ है।
श्रीकृष्ण को किशोर वय होते-होते कंस उन्हें मरवा डालने का एक बार फिर षड्यंत्र रचकर मथुरा बुलवाता है, किंतु श्रीकृष्ण उसको उसके महाबली साथियों सहित मार डालते हैं। कंस शब्द का अर्थ और उसकी कथा भी संकेत करती है कि कंस देहासक्ति का मूर्तिमान रूप है, जो संभावित मृत्यु से बचने के लिए कितने ही कुत्सित कर्म करता है। मथुरा का शब्दार्थ है- ‘विक्षुब्ध किया हुआ।’ अतः मथुरा है देहासक्ति से विक्षुब्ध मन। श्रीकृष्ण का कंस वध करने के उपरांत द्वारका में राज्य स्थापना करने का अर्थ है कि आत्मभाव में प्रवेश के पूर्व देहासक्ति की समाप्ति आवश्यक है।
कंस वध के बाद श्रीकृष्ण समुद्र के भीतर द्वारका का निर्माण करवाते हैं और वहां राज्य स्थापित करते हैं। इतिहास के महापुरुष श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका नगर का समुद्र किनारे या द्वीप पर निर्माण करवाना और कालांतर में उसका समुद्र में डूब जाना (जिसके कुछ अवशेष अभी हाल में ही खोजे गए हैं) उस काल की वास्तविक घटना रही होगी, किंतु भागवत ने ‘समुद्र के अंदर’ द्वारिका निर्माण का वर्णन करके स्पष्टतः यहाँ उसका आध्यात्मिक रूपांतरण प्रस्तुत किया है।
द्वारका शब्द में द्वार का अर्थ है– साधन, उपाय या प्रवेश मार्ग। समुद्र व्यक्तित्व के गहरे तल- आत्म क्षेत्र को इंगित करता है। अतः आत्म क्षेत्र का प्रवेश द्वार है द्वारका। इस क्षेत्र में चेतना का प्रवेश होने पर जीवन जीने का जैसा स्वरूप होगा, उसका निरूपण द्वारका पर श्रीकृष्ण राज्य के रूप में किया गया है। इस क्षेत्र का परिचय हमें महाभारत में श्रीकृष्ण के लोकहितार्थ और धर्मस्थापनार्थ किए गए कार्यों द्वारा तथा गीता के अंतर्गत उनकी वाणी द्वारा कराया गया है।
एक अवसर पर जब दुर्योधन ने श्रीकृष्ण की पूरी नारायणी सेना माँग ली थी और अर्जुन ने केवल श्रीकृष्ण को माँगा था। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन की चुटकी (मजाक) लेते हुए कहा –
‘‘हार निश्चित है तेरी, हर दम रहेगा उदास।
माखन दुर्योधन ले गया, केवल छाछ बची तेरे पास।।’’
अर्जुन ने कहा – हे प्रभु
‘‘जीत निश्चित है मेरी, दास हो नहीं सकता उदास।
माखन लेकर क्या करूँ, जब माखन चोर हैं मेरे पास।।
श्री कृष्ण के गीता ज्ञान की प्रासंगिकता सार्वकालिक है। भगवान श्री कृष्ण ने कर्म व्यवस्था को सर्वोपरि माना, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को कर्म ज्ञान देते हुए उन्होंने गीता की रचना की जो कलिकाल में धर्म में सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।
गीता में कर्म सिद्धांत और धर्म युद्ध की शिक्षा-
भगवान कृष्ण ने गीता में कर्म करने पर जोर दिया है उसके फलों पर नहीं। यही निष्कामता ही सफलता का राज है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संड्.गोस्त्वकर्मणि।।
हे अर्जुन, तेरा कर्म करने का अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फलों का हेतु मत हो और तेरी फलों में भी आसक्ति न हो ।
अर्जुन को जब रणभूमि में मोह हो जाता है कि मैं अपने भाई-बांधव को कैसे मारूँ तो भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ।।
श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन, तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ क्योंकि यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है, न कीर्ति को करने वाला है। (अध्याय 2, श्लोक 2, गीता।) आगे श्री भगवान कहते हैं-
क्लैव्यं मा स्मगमः पार्थ नैतत्वय्युपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।
इसलिए हे! अर्जुन, नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझे यह उचित नहीं जान पड़ती। इसलिए हे! परंतप, हृदय की तुच्छ, दुर्बलता को छोड़कर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ। (अध्याय 2, श्लोक 3, गीता।)
आत्मा की अमरता का संदेश-
जब अर्जुन को शरीर विनष्ट होने की थोड़ी सी चिंता दिखी तब भगवान श्रीकृष्ण, ने अर्जुन को आत्मा के अविनाशी होने की बात बताई-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्याति नरोपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा, न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को ग्रहण करता है।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः ।।
इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, इसको आग जला नहीं सकती, इसको जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकता। (अध्याय 2, श्लोक 22-23, गीता।)
नटवर नागर श्रीकृष्ण उस संर्पूणता के परिचायक हैं जिसमें मनुष्य, देवता, योगीराज तथा संत आदि सभी के गुण समाहित हैं। समस्त शक्तियों के अधिपति युवा कृष्ण महाभारत में कर्म पर ही विश्वास करते हैं। कृष्ण का मानवीय रूप महाभारत काल में स्पष्ट दिखाई देता है। गोकुल का ग्वाला, ब्रिज का कान्हा धर्म की रक्षा के लिए रिश्तों के मायाजाल से दूर मोह-माया के बंधनों से अलग है। कंस हो या कौरव पांडव, दोनो से ही निकट के रिश्ते, फिर भी कृष्ण ने इस बात का उदाहरण प्रस्तुत किया कि धर्म की रक्षा के लिए रिश्तों की बजाय कर्तव्य को महत्व देना आवश्यक है। ये कहना अतिशयोक्ति न होगी कि कर्म प्रधान गीता के उपदेशों को यदि हम व्यवहार में अपना लें तो हम सब की चेतना भी कृष्ण सम विकसित हो सकती है।