भारत की धरती पर समय-समय पर ऐसे कई मनीषी एवं दार्शनिक हुए हैं जिन्होंने अपने विचारों से संपूर्ण मानवता को आलौकित किया है। उन्हीं मनीषियों एवं दार्शनिकों की पंक्ति में महात्मा महाप्रज्ञ वर्तमान शताब्दि के ऐसे महान प्रज्ञापुरुष रहे हैं, जिनसे न केवल बौद्धिक जगत उपकृत हुआ है, बल्कि जनसाधारण के हृदय में भी वे एक दार्शनिक संत के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उन्होंने अद्भुत मौलिक विचारधारा के माध्यम से आध्यात्मिक क्षेत्र को नए आयाम प्रदान किए।
महात्मा महाप्रज्ञ उच्चकोटि के चिंतक और मनीषी थे। उनके चिंतन का दायरा बहुत व्यापक है। वे सामाजिक, राष्ट्रीय एवं वैश्विक समस्याओं से गहरा सरोकार रखते थे । उन पर गहराई से सोचते और विचार व्यक्त करते थे। वे मात्र समस्याओं की बात नहीं करते, बल्कि उसके समाधान का मार्ग भी बताते थे। चिंतन सदैव सकारात्मक होता था। उन्होंने साहित्य की एक नई धारा प्रवाहित कर देश के प्रबुद्ध वर्ग में एक हलचल पैदा कर दी थी। उनके साहित्य का विशाल पाठकवर्ग है, जो आज भी देश के हरेक क्षेत्र में फैला हुआ है।
महात्मा महाप्रज्ञ व्यक्ति नहीं, संपूर्ण संस्कृति थे, दर्शन थे, इतिहास थे, विज्ञान थे। आपका व्यक्तित्व अनगिन विलक्षणताओं का दस्तावेज रहा है। तपस्विता, यशस्विता और मनस्विता आपके व्यक्तित्व एवं कर्तत्व में घुले-मिले तत्व थे, जिन्हें कभी अलग नहीं देखा जा सकता। आपकी विचार दृष्टि से सृष्टि का कोई भी कोना, कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा। विस्तृत ललाट, करुणामय नेत्र तथा ओजस्वी वाणी, ये थे आपकी प्रथम दर्शन में होने वाली बाह्य पहचान। आपका पवित्र जीवन, पारदर्शी व्यक्तित्व और उम्दा चरित्र हर किसी को अभिभूत कर देता था, अपनत्व के घेरे में बाँध लेता था। आपकी आंतरिक पहचान थी अंतःकरण में उमड़ता हुआ करुणा का सागर, सौम्यता और पवित्रता से भरा आपका कोमल हृदय। इन चुंबकीय विशेषताओं के कारण आपके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति आपकी अलौकिकता से अभिभूत हो जाता था और वह बोल उठता था कितना अद्भुत! कितना विलक्षण!! कितना विरल!!! आपकी मेधा के हिमालय से प्रज्ञा के तथा हृदय के मंदरांचल से अनहद प्रेम और नम्रता के असंख्य झरने निरंतर बहते रहते थे। इसका मूल उद्गम केंद्र था लक्ष्य के प्रति तथा अपने परम गुरु आचार्य तुलसी के प्रति समर्पण भाव।
जन्म एवं साधना काल
महात्मा महाप्रज्ञ का जन्म वि.स. १९७७ आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी को टमकोर (राजस्थान) के चोरड़िया परिवार में हुआथा। उनके पिता का नाम श्री तोलारामजी एवं माता का नाम बालूजी था। युवाचार्यश्री का जन्म नाम नथमल था। जब वे बहुत छोटे थे, तभी पिता का साया उनके सिर से उठ गया था। माता बालूजी धार्मिक प्रकृति की महिला थीं। उनकी धार्मिक वृतियों से बालक की धार्मिक चेतना उद्बुद्ध हुई। माता और पुत्र दोनों ही संयम-पथ पर बढ़ने के लिए समुत्सुक हुए।
वि.स. १९८७ माघ शुक्ला दसमी को सरदारशहर में बालक नथमल ने अपनी माता के साथ पूज्य कालूगणी से दीक्षा ग्रहण की। उस समय उनकी आयु मात्र दस वर्ष की थी। संयमी जीवन में उनकी पहचान मुनि नथमल के रूप में होने लगी।
मुनि नथमल अपनी सौम्य आकृति एवं सरल स्वभाव के कारण सबके प्रिय बन गए। पूज्य कालूगणी का उन पर असीम वात्सल्य था। कालूगणी के निर्देश से उन्हें विद्या-गुरू के रूप में मुनि तुलसी (आचार्य तुलसी) की सन्निधी मिली। मुनि नथमल की आशुग्राही मेधा विविध विषायों का ज्ञान करने में सक्षम हुई। दर्शन, न्याय, व्याकरण, कोष, मनोविज्ञान, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि शायद ही कोई ऐसा विषय हो,जो उनकी प्रज्ञा की पकड़ से अछुता रहा हो। जैनागमों के गन्भीर अध्ययन के साथ साथ उन्होंने भारतीय एवं भारतीयेतर सभी दर्शनों का तलस्पर्शी एवं तुलनात्मक अध्ययन किया है। संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार है। वे संस्कृत भाषा के सफल आशुकवि है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में – वे दूसरे विवेकानन्द हैं।
वि.स. २०२२ माद्य शुक्ला सप्तमी को हिसार (हरियाणा) में आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें निकाय-सचिव के गरिमामय पद पर विभुषित किया। वि.स. २०३४ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी, गंगाशहर में आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत किया। महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत करते समय आचार्यश्री तुलसी ने कहा – मुनि नथमल की अपूर्व सेवाओं के प्रति समूचा तेरापंथ संघ कृतज्ञता ज्ञापित करता है। यह महाप्रज्ञ अलंकार उस कृतज्ञता की स्मृति मात्र है।
मुनि नथमलजी के कर्तव्य का मूल्यांकन करते हुए आचार्यश्री तुलसी द्वारा सन् 1944 में आपको अग्रगण्य बनाया गया। आपकी निर्मल प्रज्ञा से संघ, देश, विश्व लाभान्वित हुए। इसलिए आपको 12 नवंबर 1978 को गंगा शहर में ‘महाप्रज्ञ’ का संबोधन अलंकरण प्रदान किया गया। सब दृष्टि से सक्षम महाप्रज्ञ को आचार्य तुलसी ने 3 फरवरी 1979 को राजलदेसर में युवाचार्य पद पर मनोनीत किया। आचार्यश्री तुलसी एक प्रयोग धर्माचार्य थे। उन्होंने स्वयं के आचार्य पद का विसर्जन कर 18 फरवरी 1994 में सुजानगढ़ में युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य पद पर आसीन कर सकल विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया।
वि.स. २०३५ राजलदेसर (राजस्थान) मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्यश्री तुलसी ने अपने उतराधिकारी के रूप में उनकी घोषणा की। वि.स. २०५० सुजानगढ़ मर्यादा महोत्सव के ऐतिहासिक समारोह के मध्य आचार्यश्री तुलसी ने अपनी सक्षम उपस्थिति में अपने आचार्यपद का विर्सजन कर युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।
यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आचार्य महाप्रज्ञ को आचार्यश्री तुलसी जैसे समर्थ गुरु मिले तो आचार्यश्री तुलसी को आचार्य महाप्रज्ञ जैसे समर्पित शिष्य एवं योग्य उतराधिकारी मिले। विश्व क्षितिज पर आचार्यश्री तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जैसी आध्यात्मिक विभूतियां गुरु शिष्य के रूप में शताब्दियों के बाद प्रकट होती है।
गुरू के साथ अद्वैत
आचार्य महाप्रज्ञ आचार्यश्री तुलसी के हर आयाम में और हर कदम पर अनन्य सहयोगी रहे थे । गुरु के प्रत्येक निर्देश को क्रियान्वित करने एवं उनके द्वारा प्रारंभ किए हुए कार्य को उत्कर्ष के बिन्दु तक पहूंचाने में वे सदा प्रस्तुत रहे थे।
एक महान् दार्च्चनिक, चिंतक, कवि, वक्ता, एवं साहित्यकार होते हुए भी महात्मा महाप्रज्ञ ने हम सबको ‘आस्था’ की नई परिभाषा प्रदान की है। वे अपने गुरू आचार्य तुलसी के प्रति सर्वात्मना समर्पित थे।
आचार्य तुलसी जैन तेरापंथ धर्मसंघ के नौवें आचार्य तथा अणुव्रत आंदोलन के प्रर्वतक थे। आचार्य तुलसी एक ऐसा जाना पहचाना नाम है जिन्हें कई राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय संस्थाओं के द्वारा विभिान्न सम्मानों, अंलकारणों एवं पदों से विभूषित किया गया। उन्होंने धर्म के अर्थ को पुनः परिभाषित किया तथा व्यक्ति की जीवन शौली में इसके महत्व को रेखांकित किया। उन्होंने शांतिपूर्ण एवं सोट्ठेच्च्यपूर्ण जीवन जीने हेतु आम आदमी के लिए एक मौलिक आचार संहिता प्रस्तुत की।
आचार्य तुलसी के चिंतन एवं स्वप्न को साकार करने में महात्मा महाप्रज्ञ का पूरा योगदान रहा है। आचार्य तुलसी जो मार्गदर्च्चन देते महात्मा महाप्रज्ञ उसकी क्रियान्विति में संलग्न हो जाते। दोंनो आचायोर्ं का आपसी संबंध गजब का था। ऐसा लगता मानो शरीर दो है आत्मा एक है।
आचार्य तुलसी की विद्यमनता में ही महात्मा महाप्रज्ञ आचार्य बने। आचार्य तुलसी ने अपने आचार्य पद को स्वेच्छा से त्यागा और युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। इतिहास का यह पहला प्रसंग है कि एक आचार्य अपने शासनकाल में युवाचार्य को आचार्य पद पर अभिषिक्त करे और अपने पद का विसर्जन करे। इस धटना-प्रसंग के माध्यम से दोनों के बीच समर्पण एवं श्रद्धा की पराकाष्ठा को स्पष्ट देखा जा सकता है। आचार्य जैसे गरिमापूर्ण पद पर आने पर भी उनकी भक्ति में कोई न्यूनता नहीं आई। ऐसी सहजता एवं सरलता को किसी व्यक्ति में खोजना अत्यन्त कठिन है। उनकी भक्ति एवं आस्था न केवल उनके कार्यो में परिलक्षित होती है अपितु उनके विचारों एवं वक्तव्यों में भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।
आचार्यश्री तुलसी की वाणी महाप्रज्ञ के कण कण में क्षण क्षण प्रतिध्वनित होती है। तेरांपथ की प्रगति-यात्रा के हर आरोह अवरोह में महात्मा महाप्रज्ञ ने अपने गुरु श्री तुलसी के सधे हुए दुतगामी कदमो का सदासाथ निभाया था। यह कहना असंगत नहीं होगा कि तेरापंथ और आचार्य तुलसी को विश्व प्रतिष्ठित करने में आचार्य महाप्रज्ञ की भूमिका अनन्य रही है।
महान् दार्शनिक एवं चिंतक
महात्मा महाप्रज्ञ न केवल असाधारण क्षमतावान् आध्यात्मिक प्रमुख थे अपितु उत्कृष्ट कोटि के महान् दार्शनिक एवं प्रबुद्ध चिंतक भी थे । अहिंसा, नैतिकता, शांति, सामाजिक-धार्मिक सौहार्द, आध्यात्मिकता, जीवन-विज्ञान, प्रेक्षाध्यान, पर्यावरण आदि विभिन्न विषयों पर उनका मौलिक चिंतन बुद्धिजीवियों एवं जन साधारण दोनों के लिए अभिप्रेरक है। उनके विचारों ने सभी क्षेत्रों के लोगों को तथा जीवन के हर मोड़ पर सकारात्मक चिंतन के लिए उत्प्रेरित किया है।
समय से पहले ही किसी भी स्थिति व वस्तु के विश्लेषण करने की अपूर्ण व अद्भुत अर्हता ने महात्मा महाप्रज्ञ को दूरदर्शी के रूप में स्थापित किया है। वे कभी समस्याओं से किनारा नहीं करते, बल्कि उनके समाधान हेतु कोई न कोई मार्ग अवश्य निकाल लेते थे । विज्ञान के क्षेत्र में कई सिद्धान्त शताब्दियों से स्वीकृत है। समाजवाद के सिद्धांत पर प्राचीन भारतीय मेधा मनीषियों ने बहुत कार्य किया है। इनके तथा अन्य दार्शनिकों के बीच महात्मा महाप्रज्ञ ऐसे दार्शनिक संत हैं जिन्होंने अपने अनुपम यथार्थपरक वैज्ञानिक एवं सामाजिक विचारों को प्रस्तुत किया हैं, साथ ही अनेक रहस्यों का उद्धाटन किया है।
स्वामी विवेकानंद तथा आचार्य विनोबा भावे जैसे व्यक्तियों ने विज्ञान एवं अध्यात्म की महता को जाना। इसी तरह के विचारों का पूर्व राष्ट्रपति व दार्च्चनिक सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन् ने समर्थन किया। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने अपनी असाधारण प्रतिभा से विज्ञान व अध्यात्म को समस्त कार्यों में एक दूसरे का पूरक बताया। उनका स्पष्ट मंतव्य है कि विज्ञान ने धर्म को विनष्ट नहीं किया है अपितु उसने तो धर्म के क्षेत्र में नया सिद्धांत प्रतिपादित किया है फलतः नये द्वार प्रस्तुत किये हैं। आचार्य श्री ने मात्र सिद्धांत व आदर्श ही नहीं दिये हैं किन्तु उनके प्रायोगिक स्वरूप को प्रकट किया है। इससे विज्ञान व अध्यात्म में समन्वय स्थापित हुआ है।
महात्मा महाप्रज्ञ ने व्यक्ति के आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास हेतु प्रेक्षाध्यान उपक्रम आविष्कृत किया। एक पद्धति को बदलना कठिन है पर व्यक्ति व समाज को बदलना उससे भी अधिक कठिन है। प्रेक्षाध्यान प्रयोग आत्मा शुद्धि की प्रकिया के उपक्रम है। आत्म विश्वास, सहिष्णुता, धैर्य एवं भावानात्मक संतुलन के विकास के लिए यह अत्यन्त मूल्यवान् है। प्रेक्षाध्यान व्यक्ति की अनासक्त चेतना को उजागर करता है। प्रेक्षाध्यान के विभिन्न वैज्ञानिक उपक्रम धर्म के एक नये ही स्वरूप को प्रकट करते है और यही व्यक्ति के दैनंदिन जीवन का अनिवार्य अंग होना चाहिये। धार्मिक जगत् में यह कोई चमत्कार से कम नहीं है। इसने एक नया दृष्टिकोण दिया है कि विज्ञान के बिना धर्म लंगड़ा है
संवेदनशील कवि एवं प्रखरवक्ता
महात्मा महाप्रज्ञ आंतरिक जागरण के ऐसे विकसित गुलाब हैं जिनकी महक न केवल उनकी कविताओं व साहित्यिक कायोर्ं के द्वारा प्रकट होती है अपितु उनके प्रखर वक्तृत्व के माध्यम से भी प्रस्फृटित होती रहती है। उनका अंतःकरण इतना प्रच्चांत है कि उनके सान्निध्य में आने वाला हर व्यक्ति किसी भी स्थिति में शांति का अनुभव करता है।
महात्मा महाप्रज्ञ प्रकृति से कवि थे । संस्कृत, प्राकृत व अन्य कई भाषाओं में पद्य रचना करने की उनमें अद्भुत क्षमता है। आचार्य श्री ने जब संस्कृत भाषा के सर्वाधिक कठिन छंद ‘रत्रग्धरा’ में ‘घटिका यंत्र’ विषय पर आशु कविता के रूप में धारा प्रवाह श्लोक बनाकर प्रस्तुत किये तो पेन्सिलवानिया – अमेरिका के संस्कृत भाषाविद् डा. नोर्मन ब्राउन सहित पूना,बनारस आदि के लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान् बहुत प्रभावित हुए।
संस्कृत भाषा में ‘संबोधि’, ‘अश्रुवीणा’,’मुकुलम्’,’अतुला तुला’ आदि तथा हिन्दी भाषा में ‘ऋषभायण’ कविता जगत् में दस्तावेजी हस्ताक्षर एवं प्रमुख ग्रथं माने जाते हैं।
एक संवेदनशील कवि होते हुए भी आचार्य महाप्रज्ञ एक प्रखर वक्ता तथा प्रख्यात् विद्वान थे । उन्हें जैन आगम, बौद्ध ग्रंथों, वैदिक ग्रंथों तथा प्राचीन अर्वाचीन शास्त्रों का गहन ज्ञान था।
महान् साहित्यकार
आचार्य महाप्रज्ञ कुशल प्रवचनकार होने के साथ साथ एक महान् लेखक, महान श्रुतधार, और महान साहित्कार थे। उनकी सारस्वत वाणी से निकला हर शब्द साहित्य बन जाता था। उन्होंने विविध विषयों पर शताधिक ग्रन्थ लिखे हैं। प्रत्येक ग्रन्थ में उनका मौलिक चिन्तन प्रस्फुटित हुआ है। उनके ग्रन्थ जहां साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं, वहां मानवता की विशिष्ट सेवा है। आचार्यश्री तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में जैनागमों के वेज्ञानिक विशलेषण के साथ आधुनिक सम्प्रदाय उनकी विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है, अर्हत् वाणी के प्रति महान समर्पण का सूचक है।
जैनों के सबसे प्राचीन एवं अबोधगम्य ‘आचारांग सूत्र’ पर संस्कृत भाषा में भाष्य लिखकर महात्मा महाप्रज्ञ ने अति प्राचीन परंपरा को पुनरुज्जीवित किया है।
दर्शन के सुप्रसिद्ध विद्धान डा. राधाकृष्ण ने आचार्य श्री महाप्रज्ञ को जैन न्याय विषय का सर्वाधिक विच्चेषज्ञ व्यक्ति माना है। महात्मा महाप्रज्ञ अपने विशिष्ट अभिभाषाओं के लिए सुविख्यात थे। इस संदर्भ में उनकी कई पुस्तकें विद्वत् जगत् में बहुत समादृत हुई हैं। उनमें प्रमुख हैं – जैन दर्शन : मनन और मीमांसा, जैन धर्म और संस्कृति, जैन दर्शन और अनेकांतवाद, जैन धर्म और दर्शन तथा अन्य। उनकी पुस्तकों में मौलिकता एवं अभिव्यक्ति की सहजता का बहुत ही दुर्लभ संयोग है।
मस्तिष्क को झकझोरने वाले महात्मा महाप्रज्ञ के लेखन ने पूरे भूमंडल पर अनगिनत पाठकों एवं बुद्धिजीवियों को आकर्षित किया है। सामान्य आदमी से लेकर साहित्यकार, समाजशास्त्री, पत्रकार एवं राजनेता उनके लेखन के प्रशंसक है।
आचार्य श्री के प्रेरक उद्बोधन एवं शिक्षाएं इतनी प्रभावी, सामयिक एवं प्रायोगिक है कि वे न केवल विद्वानों को अपितु जन साधारण को भी खींचते हैं। शोध विद्वानों के लिए आचार्य महाप्रज्ञ एक विश्वकोष है। शायद ही कोई ऐसा विषय हो तो आचार्य महाप्रज्ञ के ज्ञानकोष्ठ में अवतरित न हुआ हो। महात्मा महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान एवं जीवन विज्ञान के रूप में एक विशिष्ठ वैज्ञानिक साधना-पद्धति का अधिकार किया था । इस साधना-पद्धति के द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों व्यक्ति मानसिक विकृति से दूर हटकर आध्यत्मिक ऊर्जा प्राप्त करते है।
महान् संत
महात्मा श्री महाप्रज्ञ ने धार्मिक एवं बौद्धिक जगत् के बीच नये क्षितिज उद्धाटित किए और एक प्रतिष्ठित संत के रूप में उभरे। उनका नाम बीसवीं शताब्दी के अध्यात्म के प्रतीक के रूप में लिया जाता है। अपने मौलिक विचारों एवं समस्या के समाधान की अपनी प्रभावी शैली के लिए वे सुविख्यात थे। उनकी असाधारण प्रतिभा ने विज्ञान एवं अध्यात्म को परस्पर पर्याय के रूप प्रस्तुत किया था। धार्मिक क्षेत्र में यह पूर्णतः नया सिद्धांत है जिसने धर्म के संदर्भ में नई दिशा दी थी।
विन्रमता,दया,समझ,विवेक,धैर्य और विश्व भ्रार्तृत्व उनके दिव्य गुण थे। प्रज्ञा व ज्ञान के स्त्रोत आचार्य महाप्रज्ञ प्रतिदिन अपने मौलिक व नवीन विचारों से ज्ञान पिपासुओं की प्यास बुझाते थे। वे एक ऐसे रत्नमणि थे, जो समस्त संसार में भारत के सांस्कृतिक एवं पारंपरिक मूल्यों को वृद्धिंगत कर रहे थे।
आचार्य महाप्रज्ञ जो उपदेश देते थे, उसका हमेशा स्वयं भी प्रयोग करते थे । उनके चिंतन एवं दृष्टिकोण को विभिन्न समसामयिक समस्याओं के कारगर इलाज के रूप में विचार किया जाता रहा है। उन्होंने अपने विचारों को मात्र वैचारिक स्तर पर ही नहीं रखा बल्कि व्यवहार में परिणत किया था। हम समाज एवं राष्ट्र के सपनों को सच बनाने में सचेतन बनें, यही आचार्य महाप्रज्ञ की प्रेरणा थी और इसी प्रेरणा को जीवन-ध्येय बनाना उस महामानव की जन्म शताब्दी पर हमारे लिए शुभ एवं श्रेयस्कर है। ऐसे ही संकल्पों से जुड़कर हम महानता की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
— हरिदत्त शर्मा