विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने रक्षाबंधन के पर्व पर बंग भंग के विरोध में जनजागरण किया था और इस पर्व को एकता और भाईचारे का प्रतीक बनाया था। रक्षा सूत्र सम्मान और आस्था प्रकट करने के लिए भी बाँधा जाता है। रक्षाबंधन का महत्व आज के परिपे्रक्ष्य में इसलिए भी बढ़ जाता है, क्योंकि आज मूल्यों के क्षरण के कारण सामाजिकता सिमटती जा रही है और प्रेम व सम्मान की भावना में भी कमी आ रही है। यह पर्व आत्मीय बंधन को मजबूती प्रदान करने के साथ-साथ हमारे भीतर सामाजिकता का विकास करता है। इतना ही नहीं यह त्योहार परिवार, समाज, देश और विश्व के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति हमारी जागरूकता भी बढ़ाता है।
रक्षाबंधन पर्व ‘श्रावण पूर्णिमा’ को मनाया जाता है। जन-साधारण में इसका प्रचलित नाम ‘राखी’ है । श्रावण मास में जिधर दृष्टि डालिए, हरियाली-ही- हरियाली दृष्टिगत होती है। पपीहा की मधुर ध्वनि भी सुनाई पड़ रही है और दादुर अपना राग अलग ही अलाप रहे हैं । इस मोहक वातावरण में ऐसा कौन शुष्क-हृदय प्राणी होगा, जिसका मन-मयूर आनंद और उल्लास से नृत्य न कर उठे। संपूर्ण श्रावण मास ही ‘त्योहार का मास’ है। हरियाली तीज, नागपंचमी, शिवकोटी आदि त्योहार इसी मास में मनाए जाते हैं। ‘रक्षाबंधन’ इस मास का सबसे महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय पर्व है ।
रक्षा बंधन के महत्व को समझने के लिये सबसे पहले इसके अर्थ को समझना होगा। ‘रक्षाबंधन’ रक्षाबंधन दो शब्दों से मिलकर बना है। अर्थात् एक ऐसा बंधन जो रक्षा का वचन लें। इस दिन भाई अपनी बहन को उसकी दायित्वों का वचन अपने ऊपर लेते है। भाई बहन के प्यार का प्रतीक रक्षाबंधन का स्नेहिल पर्व हमारी भारतीय संस्कृति की गौरवमयी परंपरा का एक अभिन्न हिस्सा है। भाई की कलाई पर राखी बाँधने को लेकर ही बहन प्रफुल्लित हो उठती है। भाई भी कहीं भी हो इस दिन बहन के पास जाता है। सात समुंदर पार रहने वाले भाई को भी बहन रक्षासूत्र भेजना नहीं भूलती। हर बहन भाई को याद कर दीवारों पर खड़िया और गेरू से दीवार पर रेखाएँ खींच कर ‘सरवन’ बना कर अपने भाई का मोह बाँध लेती है। बहन रक्षाबंधन के दिन सुबह मांडने की पूजा करती हैं और भाई की लंबी उम्र और मंगल जीवन की कामना करती हैं।
संबंधों एवं संवेदनाओं भावनाओं और संवेदनाओं का पर्व रक्षा बंधन
रक्षा बंधन का पर्व विशेष रूप से भावनाओं और संवेदनाओं का पर्व है। एक ऐसा बंधन जो दो जनों को स्नेह की धागे से बांध ले। रक्षा बंधन को भाई – बहन तक ही सीमित रखना सही नहीं होगा। बल्कि ऐसा कोई भी बंधन जो किसी को भी बाँध सकता है। भाई – बहन के रिश्तों की सीमाओं से आगे बढ़ते हुए यह बंधन आज गुरु का शिष्य को राखी बाँधना, एक भाई का दूसरे भाई को, बहनों का आपस में राखी बाँधना और दो मित्रों का एक-दूसरे को राखी बाँधना, माता-पिता का संतान को राखी बाँधना हो सकता है। राखी केवल बहन का रिश्ता स्वीकारना नहीं है अपितु राखी का अर्थ है, जो यह श्रद्धा व विश्वास का धागा बाँधता है, वह राखी बंधवाने वाले व्यक्ति के दायित्वों को स्वीकार करता है। उस रिश्ते को पूरी निष्ठा से निभाने की कोशिश करता है।
रक्षा बंधन आज के परिपेक्ष्य में
वर्तमान समाज में हम सब के सामने जो सामाजिक कुरीतियाँ सामने आ रही है। उन्हें दूर करने में रक्षा बंधन का पर्व सहयोगी हो सकता है। आज जब हम बुजुर्ग माता-पिता को सहारा ढूँढते हुए वृद्ध आश्रम जाते हुए देखते है, तो अपने विकास और उन्नति पर प्रश्न चिÐ लगा हुआ पाते है। इस समस्या का समाधन राखी पर माता-पिता को राखी बाँधना, पुत्र-पुत्री के द्वारा माता पिता की जीवन भर हर प्रकार के दायित्वों की जिम्मेदारी लेना हो सकता है। इस प्रकार समाज की इस मुख्य समस्या का सामाधान किया जा सकता है।
इस प्रकार रक्षाबंधन को केवल भाई बहन का पर्व न मानते हुए हम सभी को अपने विचारों के दायरे को विस्तृृत करते हुए, विभिन्न संदर्भों में
इसका महत्व समझना होगा। संक्षेप में इसे अपनत्व और प्यार के बंधन से रिश्तों को मजबूत करने का पर्व है। बंधन का यह तरीका ही भारतीय संस्कृति को दुनिया की अन्य संस्कृतियों से अलग पहचान देता है।
रक्षा बंधन के पौराणिक प्रसंग
रक्षा सूत्र बंधन यानी का त्योहार कब शुरू हुआ, इसकी कोई सटीक जानकारी नहीं मिलती लेकिन यह पर्व है अत्यंत प्राचीन, क्योंकि इसकी प्राचीनता के प्रमाण उपलब्ध हैं। भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नजर आने लगे। इन्द्र की पत्नि शचि घबरा कर प्रार्थना करने लगी। बृहस्पति के पास गई और देवों की रक्षा की तब देवगुरू बृहस्पति ने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके उसे दिया। जो इन्द्राणी ने अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है। भविष्यपुराण के अनुसार इन्द्राणी द्वारा निर्मित रक्षासूत्र को देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र के हाथों बाँधते हुए निम्नलिखित स्वस्तिवाचन किया (यह श्लोक रक्षाबन्धन का अभीष्ट मन्त्र है)-
येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल।
(श्रीशुक्लयजुर्वेदीय, माध्यन्दिन वाजसनेयिनां, ब्रम्हकर्म समुच्चय पृष्ठ -295)
इस श्लोक का हिन्दी भावार्थ है-
‘‘जिस रक्षासूत्र से महान् शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना (तू अपने संकल्प से कभी भी विचलित न हो।)’’
स्कन्द पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकनाचूर कर देने के कारण यह त्योहार ‘बलेव’ नाम से भी प्रसिद्ध है।
भागवतपुराण में रक्षा बंधन
भागवतपुराण में उल्लेख है कि जब दानवीर राजा बलि रसातल में चले गये तब उन्होंने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बाँधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान बलि को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।
‘रक्षिष्ये सर्वतोहं त्वां सानुगं सपरिच्छिदम्।
सदा सन्निहितं वीरं तत्र मां दृक्ष्यते भवान्।।’
(श्रीमद् भागवत, स्कन्ध 8, अध्याय 23, श्लोक 33)
विष्णु पुराण में रक्षा बंधन
विष्णु पुराण में एक और उल्लेख मिलता है जब विष्णु ने हयग्रीव अवतार के रूप में पृथ्वी पर विचरण किया। उस दिन भी श्रावण महीने की पूर्णिमा ही थी। विष्णु इस रूप में ब्रह्मा के लिए पुनः वेदों को उपलब्ध कराया था। हयग्रीव अवतार को विद्या और बुद्धि प्रदाता माना जाता है। उनके स्वागत में ब्रह्मा ने विष्णु का रक्षा सूत्र बाँध कर अभिनन्दन किया था।
द्वापर युग में महाभारत काल में भी राखी का उल्लेख मिलता है। ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठर ने श्रीकृष्ण से युद्ध भूमि में पूछा कि हम संख्या और शक्ति बल में कम होते हुए भी किस प्रकार विजय प्राप्त कर सकते हैं ? तब श्रीकृष्ण ने ‘हनुमान मंत्र’ के साथ समस्त सैनिकों को परस्पर रक्षा सूत्र बाँधने का परामर्श दिया था। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है, जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। यही नहीं अर्जुन के जिस रथ को श्री कृष्ण स्वयं हाँक रहे थे उसके ऊपर भी हनुमत ध्वजा फहरा रही थी।
द्रौपदी ने कृष्ण को बाँधी थी राखी:
महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि, मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूँ, तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बाँधने के कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। श्रीकृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।
आज के सन्दर्भ में प्रासंगिकता
यह पर्व भाईचारे का भाव बढ़ाता है। भाई-बहन के बीच प्रीत का संबंध आत्मिक स्नेह का प्रतीक है। रक्षाबंधन जैसे सामाजिक उत्सवों में उमंग देखकर मन प्रसन्न होता है। परंतु नारी की गरिमा को ठेस पहुँचाने वाली घटनाओं की खबर सुनकर मन में भाव आता है- कहीं रक्षाबंधन जैसे त्योहार भी बाजारवाद से प्रभावित तो नहीं हो गए? औपचारिकता तो नहीं रह गई? बाजारवाद एक अंधी दौड़ है। इस दौड़ में हमारी परंपराएँ भी शामिल तो हैं, परंतु अपना भाव छोड़ते हुए। बहनों को सुरक्षा चाहिए। भाइयों को भी। अपनी बेटी-बहू नहीं, शहर की सभी बेटियाँ और बहनें भाइयों से सुरक्षा माँगती हैं। वैसे ही जैसे गाँव की बेटियाँ सबकी बेटियाँ हुआ करती थीं। मात्र अपने परिवार की नहीं। उनमें जाति-धर्म और गोत्र का भले ही अंतर रहता था, बेटियाँ तो बेटियाँ थीं। गाँव की बेटियाँ। उनकी इज्जत, गाँव की इज्जत। बेटियों के लिए गाँव के सभी पुरुष चाचा, काका, भैया होते थे।
सामाजिक सौहार्द की दृष्टि से राखी का त्यौहार बहुत उपयोगी है। यह त्योहार महिलाओं के कल्याण के प्रयासों को तेज करने की जरुरत तथा समाज में उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के पुरुषों के कर्तव्य को रेखांकित करता है। इस दिन प्रत्येक नागरिक महिलाओं की सुरक्षा, अस्मिता व महिला सशक्तिकरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करें। राखी का त्यौहार हमें ना सिर्फ अपनी बहन को सम्मान की दृष्टि से देखने की सीख देता है बल्कि यह पर्व संपूर्ण स्त्री जाति का सम्मान करने की भी सीख देता है। इस पर्व की यही सार्थकता है।
प्रतिमा सामर