विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक कालगणना का नववर्ष है वर्ष प्रतिपदा। वर्ष प्रतिपदा, गुड़ीपड़वा, नवसंवत्सर, संवत्सरी, चैत्रीचंद आदि नामों से मनाया जाने वाला यह वर्ष के स्वागत का पर्व काल के माहात्म्य का पर्व है। इसका एक नाम युगादी है, जिसे उगादी भी कहा जाता है। युग का आदि अर्थात आरम्भ का दिन। इस दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की। सृजन के साथ ही समय का प्रारम्भ हुआ। वास्तव में यह अत्यन्त वैज्ञानिक संकल्पना है।
कृष्णविवर (Black Hole) तथा भस्म तारका (Super Nova) के अध्ययन में आधुनिक खगोलशास्त्रियों ने पाया कि वहाँ समय रूक जाता है। समय का यह वैविध्यपूर्ण बर्ताव आधुनिक शास्त्रज्ञों के लिए पहेली बना हुआ है। आज जो तारे हम देखते हैं वे अनेक प्रकाशवर्ष हमसे दूर है अर्थात उनका जो प्रकाश हम अभी देख रहे हैं वह कई वर्ष पूर्व वहाँ से विकीर्ण हुआ था। इस ज्ञान से काल को समझना वैज्ञानिकों के लिए और अधिक कठिन हो गया। काल भूत से भविष्य की ओर एक दिशा में प्रवाहित होता है यह धारणा रखकर विचार करने वाले काल के इस बहुआयामी रूप को समझ नहीं पाते हैं।
काल को समग्रता से हिन्दू ऋषियों ने ही समझा। इसके चक्रीय स्वरूप को समझकर उन्होंने चतुर्युगी के शास्त्रीय तत्व का विवेचन किया।
आज आधुनिक भौतिक विज्ञान जिन बातों को प्रायोगिक रूप से समझने में उलझ रहा है उसे अत्यंत वैज्ञानिक विधि से भारत में साक्षात् किया गया। काल की इस अनादि अनन्त स्थिति को समझकर ही हमने अपने जीवन को काल के अनुरूप ढाला। यही कारण है कि इतने आक्रमणों के बाद भी यह संस्कृति न केवल जीवित है अपितु विश्वविजय के लिए सन्नद्ध है। आज भी हमारे मंदिरों में प्रतिदिन 192 करोड़ वर्ष की कालगणना का स्मरण किया जाता है। सतयुग से कलियुग और फिर सतयुग के प्राकृतिक कालचक्र को ठीक से समझने के कारण हिन्दू जीवन को धर्म के आधार पर जीने की दिशा प्राप्त हुई। महाकाल के पूजन से ही यहाँ धर्मविज्ञान विकसित हुआ। इसी से समग्र और सर्वांगीण विकास का प्रादर्श भारत में विकसित हुआ।
काल के बारे में विचार का सीधा परिणाम हमारी जीवनशैली पर होता है। आज सारा विश्व पर्यावरण की त्रासदी से चिंतित है। हम यदि इस समस्या की जड़ में जाकर देखेंगे तो पाएँगे कि इसका मूल कारण काल की पश्चिमी धारणा में है। काल को एकरेखीय मानने के कारण जीवन केवल इसी समय तक सीमित माना जाता है और इस कारण जितना अधिक भोग कर सकें उतना करने की वृत्ति बनती है।
इसी से सृष्टि का शोषण होता है। केवल सुयोग्य को ही जीवित रहने का अधिकार है (Survival of the fittest½) यह सोच भी काल की अवैज्ञानिक धारणा के कारण ही बनी है। हम देखते हैं कि इसका प्रभाव जीवन के अर्थ में और परिणामतः उसको जीने के तरीके में हुआ। स्पर्द्धात्मक भोगवाद के कारण सारा विश्व विनाश की कगार पर आ खड़ा हुआ। केवल विज्ञान के नहीं अर्थशास्त्र, राजनीति, उपासना, सामाजिक व्यवहार इन सभी में भी इस सोच का असर हुआ। मानव की मानवता नष्ट हो गई। नववर्ष मनाने की विधि में भी हम यह अंतर देखते हैं। पश्चिमी सभ्यता में नववर्ष (1 जनवरी) को मनाने में अधिक से अधिक भोग का भाव रहता है। नशे को आनन्द का पर्याय समझा जाता है। इसलिए जश्न रात को मनाया जाता है। दूसरी ओर भारतीय नववर्ष को हम प्रातःकाल के पवित्र वातावरण में अत्यन्त शालीनता से मनाते हैं।
यह सोच का अंतर है। धार्मिक अनुष्ठान, परस्पर स्नेहाभिव्यक्ति के लिए कलात्मक अनुरंजन, सृष्टि का स्वागत, स्वास्थ्यवर्द्धक खानपान ऐसी वैज्ञानिक परम्पराओं का निर्माण इस पर्व के लिए भारत में हुआ। ऋतु परिवर्तन को ध्यान में रखकर कर्मकांड विकसित हुए। भोग को नहीं त्याग को आनन्द का स्थायी माध्यम बनाया गया। यह काल की वैज्ञानिक समझ ही है कि जिससे हम वर्ष प्रतिपदा को सालभर के साढ़े तीन मुहूर्तों में से एक मानते हैं। यह पूर्ण मुहूर्त है। इस दिन शुभकार्य के लिए अलग से मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं है। सारी सृष्टि ही आपके शुभसंकल्प का साथ दे रही होती है। प्राण का प्रवाह ही ऐसा होता है कि जो मन में शिवसंकल्प लेंगे वह अवश्य पूर्ण होगा। स्वदेशाभिमान की कमी के कारण ही हम इस पूर्णतः वैज्ञानिक कालगणना को छोड़ अपूर्ण, अशास्त्रीय व शोषण को प्रोत्साहन देने वाली व्यवस्था के अधीन हो गए हैं। हम भारतवासी यह भी नहीं जानते कि हमने संवैधानिक रूप से जो राष्ट्रीय पंचांग स्वीकार किया है वह भी यह हिन्दू कालगणना ही है।
आइये! इस नववर्ष पर हम संकल्प लें कि अपने दैनिक व्यवहार में राष्ट्रीय पंचांग का प्रयोग करेंगे। विश्व मानवता को विनाश से बचाने के लिए भारतमाता को समर्थ बनाने का प्रारम्भ इस स्वाभिमान के साथ करें। सोच बदलेगी तब तो कृति में परिवर्तन आयेगा। भोग के स्थान पर त्याग के द्वारा सार्थक उपयोग, सृष्टि के शोषण के स्थान पर संवेदनशील दोहन और कुछ सुयोग्यों को जीने के अधिकार के स्थान पर ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ सबके सुखी होने की संकल्पना पर आधारित विश्वव्यवस्था का पुनर्निर्माण भारत से ही होगा। इसका शुभारम्भ इस युगादि से करें। भगवान कृष्ण के शरीर छोड़ने से शुरू हुए कलियुग के 5120 वें वर्ष में हम सतयुग की नवरचना का सूत्रपात करें। आज के दिन सबको शुभकामनाएँ देते समय केवल नववर्ष ही कहें। 1 जनवरी का प्रयोग करना है तो विशेषण लगावें – जार्जियन नववर्ष। वर्षप्रतिपदा तो सारी सृष्टि का नववर्ष है। हिन्दू नववर्ष ही वास्तविक नववर्ष है। हमारा राष्ट्रीय नववर्ष। अतः इस दिन को किसी विशेषण की आवश्यकता नहीं है।
हरिदत्त शर्मा