15 अगस्त, 2022 को देश की आजादी के 75 साल पूरे होने जा रहे हैं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के कालखंड में हुए संघर्ष और बलिदानों को याद कर हम लोग श्रद्धावनत हो जाते हैं, हर भारतीय का मस्तक गर्व से भर उठता है। देश की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर आजादी का अमृत महोत्सव शुरू होने जा रहा है। आजादी का अमृत महोत्सव यानी आजादी की ऊर्जा का अमृत। आजादी का अमृत महोत्सव यानी स्वाधीनता सेनानियों से प्रेरणाओं का अमृत। आजादी का अमृत महोत्सव यानी नए विचारों का अमृत। नए संकल्पों का अमृत। आजादी का अमृत महोत्सव यानी आत्मनिर्भरता का अमृत।
समुत्कर्ष पत्रिका ने इस पुनीत अवसर पर प्रथम स्वातंट्टय संग्राम 1857 से स्वातंत्र्य प्राप्ति 1947 तक के संघर्ष की अमिट गाथा को आप सुधी पाठकों तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया है। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के वर्ष में प्रत्येक अंक में स्वतन्त्रता संघर्ष के महाबलिदानियों की सुनी-अनसुनी गौरव गाथाओं को संक्षिप्त में प्रस्तुत किया जाएगा। जिससे भारत माता की वर्तमान एवं भावी संतति अपने गौरवशाली अतीत का अवगाहन कर सकेगी। (गतांक से आगे…)
मुजफ्फरपुर बम कांड
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में कई ऐसी घटनाएँ हैं जिनमें भारतीय क्रांतिकारियों के साहस की कहानी है। ऐसी ही एक घटना है मुजफ्फरपुर कांड जिसमें भारत के दो क्रांतिकारियों, खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी उर्फ दिनेश चंद्र राॅय ने मजिस्ट्रेट पर बम फेंका था। उनका यह प्रयास सफल ना हो सका, लेकिन 30 अप्रैल 1908 की यह कहानी इतिहास में जगह दर्ज कराने में कामयाब हो गई।
एक जज को मारने के लिए विस्फोट
1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कोई भी बड़ी चुनौती नहीं दी गई थी। लेकिन अंग्रेजों का जुल्म कम नहीं हुआ था। अंग्रेजों प्रति आक्रोश का ही नतीजा था कि 30 अप्रैल 1908 के हुए एक बम धमाके ने अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था। इसे अंजाम देने का काम खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने किया था। मुजफ्फरपुर क्लब के सामने दमनकारी जज किंग्सफोर्ड को मौत देने के लिए यह विस्फोट किया गया था।
क्यों फेंका गया था बम
कोलकाता में चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड क्रांतिकारियों को अपमानित करने और उन्हें कठोर दंड देने के लिए कुख्यात हो गया था। क्रांतिकारियों ने किंग्सफोर्ड को जान से मारने का फैसला किया और उसे मारने की जिम्मेदारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को सौंपी गई। लेकिन अंग्रेजों को किंग्सफोर्ड के प्रति जनता के आक्रोश की भनक लग चुकी थी। इसलिए उन्होंने उसे सेशन जज बनाकर मुजफ्फरपुर भेज दिया था।
क्या हुआ था उस दिन
खुदीराम और प्रफुल्ल भी किंग्सफोर्ड के पीछे पीछे मुजफ्फरपुर पहुँच गए। वहाँ उन्होंने किंग्सफोर्ड को मारने की योजना बनाई और देखा कि जब किंग्सफोर्ड यूरोपियन क्लब से बाहर निकल आता है। दोनों ने इस मौके का फायदा उठाने का फैसला किया। 30 अप्रैल को दोनों ने बग्घी पर बम फेंका। देखते ही देखते बग्घी के परखच्चे उड़ गए। लेकिन उस बग्घी में किंग्सफोर्ड नहीं बल्कि दो यूरोपीय महिलाएं शामिल थी। इस हमले में दोनों ही मारी गईं।
प्रफुल्ल चाकी का बलिदान
इस बम धमाके के बाद खुदीराम और चाकी को लगा कि वे अपनी योजना में सफल हो गए और दोनों ही बम धमाका होते ही भाग गए। प्रफुल्ल चाकी समस्तीपुर पहुँचे और वहाँ से रेलगाड़ी में बैठ गए, लेकिन उसी ट्रेन में एक पुलिस सबइंस्पैक्टर था जिसने चाकी कोपहचान लिया और अगले स्टेशन को सूचना देती। इसके बाद अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गयी। आखिरकार वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया गया। गाड़ी रुकते रुकते चाकी पुलिस देख भागे लेकिन जल्द ही चारों तरफ घिरने पर उन्होंने खुद को गोली मार दी।
खुदीराम बोस की गिरफ्तारी और फाँसी
दूसरी तरफ खुदीराम भी गिरफ्तार हो गए और उन पर मुकदमा चलाने के बाद उन्हें फाँसी की सजा सुना दी गई। दो बार तारीख बदलने के बाद अंततः बोस को 11 अगस्त 1908 को फाँसी दी गई। उस समय उनकी उम्र 18 साल 8 महीने और 8 दिन थी। फाँसी के बाद खुदीराम बंगाल में बहुत लोकप्रिय हो गए। विद्यार्थियों सहित बहुत से लोगों ने उनकी फाँसी का शोक मनाया था और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे, जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।
सरदार अजीत सिंह (1881-1947)
भारत के सुप्रसिद्ध राष्ट्रभक्त एवं क्रांतिकारी थे। वे भगत सिंह के चाचा और प्रेरणा स्रोत भी थे। उन्होने भारत में ब्रितानी शासन को चुनौती दी तथा भारत के औपनिवेशिक शासन की आलोचना की और खुलकर विरोध भी किया। उन्हें राजनीतिक ‘विद्रोही’ घोषित कर दिया गया था। उनका अधिकांश जीवन जेल में बीता। 1906 ई. में लाला लाजपत राय जी के साथ ही साथ उन्हें भी देश निकाले का दण्ड दिया गया था।
‘पगड़ी संभाल जट्टा’ आंदोलन के जनक
साल 1907 में अंग्रेज सरकार तीन किसान विरोधी कानून लेकर आई, जिसके खिलाफ देशभर में किसानों ने नाराजगी जताई। सबसे ज्यादा विरोध पंजाब में हुआ और सरदार अजीत सिंह ने आगे बढ़कर इस विरोध को सुर दिया। उन्होंने पंजाब के किसानों को एकजुट किया और जगह-जगह सभाएँ की। इन सभाओं में लाला लापजत राय को भी बुलाया गया। मार्च 1907 की लायलपुर की सभा में पुलिस की नौकरी छोड़ आंदोलन में शामिल हुए लाला बाँके दयाल ने ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ शीर्षक से एक कविता सुनाई। बाद में यह कविता इतनी लोकप्रिय हुई कि उस किसान आंदोलन का नाम ही ‘पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन’ पड़ गया।
इनके बारे में कभी श्री बाल गंगाधर तिलक ने कहा था ये स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनने योग्य हैं। जब तिलक ने ये कहा था तब सरदार अजीत सिंह की उम्र केवल 25 साल थी। 1909 में सरदार अपना घर बार छोड़ कर देश सेवा के लिए विदेश यात्रा पर निकल चुके थे, उस समय उनकी उम्र 28 वर्ष की थी। इरान के रास्ते तुर्की, जर्मनी, ब्राजील, स्विट्जरलैंड, इटली, जापान आदि देशों में रहकर उन्होंने क्रांति का बीज बोया और आजाद हिन्द फौज की स्थापना की। नेताजी को हिटलर और मुसोलिनी से मिलाया। मुसोलिनी तो उनके व्यक्तित्व के मुरीद थे। इन दिनों में उन्होंने 40भाषाओं पर अधिकार प्राप्त कर लिया था। रोम रेडियो को तो उन्होंने नया नाम दे दिया था, ‘आजाद हिन्द रेडियो’ तथा इसके मध्यम से क्रांति का प्रचार प्रसार किया। मार्च 1947 में वे भारत वापस लौटे।
आजादी की सुबह देखकर ही ली अंतिम साँस साल 1946 आते-आते भारत की आजादी की राह साफ होने लगी थी। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अजीत सिंह से बात की और उन्हें वापस भारत बुला लिया। कुछ समय तक दिल्ली में रहने के बाद वह हिमाचल प्रदेश के डलहौजी चले गए। आखिरकार 15 अगस्त 1947 की वह सुबह आई जिसके लिए उन्होंने इतने साल संघर्ष किया, जिस आजादी की राह में उन्होंने अपने भतीजे भगत को भी खो दिया। मगर आजादी के उस जश्न को वह बाकी लोगों की तरह मना पाते उससे पहले ही उनकी सांसें थम चुकी थीं। भारत के विभाजन से वे इतने व्यथित थे कि 15 अगस्त 1947 के सुबह 4 बजे उन्होंने अपने पूरे परिवार को जगाया, और जय हिन्द कह कर दुनिया से विदा ले ली। सरदार अजीत सिंह का भारत की आजादी के दिन ही 66 साल की उम्र में देहांत हुआ था। उनकी याद में डलहौजी के पंजपुला में एक समाधि बनाई गई है, जो अब एक मशहूर पर्यटन स्थल है।
बारीन्द्र कुमार घोष
भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास मे कई बलिदानी ऐसे भी है जो अपना सर्वस्व न्योछावर करने के बाद भी गुमनाम रहे। ऐसे ही गुमनाम क्रांतिकारियों में बारीन्द्र कुमार घोष का नाम अग्रणी है जिन्होंने ब्रिटिश भारत में क्रांतिकारी आंदोलन को प्रारम्भ करने में महती भूमिका निभाई। बारीन्द्र कुमार घोष का जन्म 5 जनवरी 1880 में लंदन में हुआ था। इनको बारिन घोष के नाम से भी जाना जाता है। वे आध्यात्मवादी अरविंद घोष के छोटे भाई थे एवं उनके क्रांतिकारी विचारों से काफी प्रभावित थे। बंगाल में क्रांतिकारी विचारधारा को फैलाने का श्रेय बारीन्द्र कुमार और भूपेन्द्र नाथ दत्त, जो कि स्वामी विवेकानंद के छोटे भाई थे, को ही जाता है।
बारीन्द्र कुमार घोष और जतिन्द्रनाथ दास ने साथ मिलकर बंगाल में अनेक क्रांतिकारी समूहों को संगठित किया। इन्होंने अनुशीलन समिति के साथ काम किया एवं क्रांतिकारी आंदोलन को पूरे बंगाल में फैलाने में सक्रिय भूमिका निभाई। इन्होंने क्रांति से सम्बंधित ‘भवानी मंदिर’ नामक पुस्तक लिखी। बारीन्द्र कुमार घोष ने भूपेन्द्र नाथ दत्त के साथ मिलकर ‘युगांतर’ नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। जल्द ही युगांतर के नाम से एक क्रांतिकारी संगठन भी बनाया गया एवं इसने पूरे बंगाल में सर्वत्र क्रांति का बिगुल बजाया। बारीन्द्र कुमार घोष के द्वारा लिखी गई दूसरी पुस्तक ‘वर्तमान रणनीति’ बंगाल के क्रांतिकारियों की पाठ्यपुस्तक बन गई।
बारीन्द्र कुमार घोष और बाघा जतिन ने पूर्वी बंगाल में युवा क्रांतिकारियों की फौज खड़ीकर दी। इसके साथ ही इन लोगों ने कलकत्ता के मनिक्तुल्ला में ‘मनिकतल्ला समूह’ बनाया।इस स्थान पर क्रांतिकारी गुप्त रूप से बम बनाते थे। कई सारे क्रांतिकारी गतिविधियों में बारीन्द्र कुमार घोष की सक्रिय भूमिका रही। बारीन्द्र गुट द्वारा समर्थित खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी के द्वारा किंग्सफोर्ड की हत्या का भी प्रयास किया गया लेकिन उसमें असफल हो गए। इसके उपरांत पुलिस के द्वारा क्रांतिकारियों की धरपकड़ तेज हो गई जिसमें बारीन्द्र कुमार घोष कई साथियों के साथ गिरफ्तार हो गए।
पकड़े गए क्रांतिकारियों पर ‘अलीपुर बम केस’ चलाया गया जिसके परिणाम स्वरूप बारीन्द्र कुमार घोष को आजीवन कारावास के रूप में काले पानी की सजा दी गई। बारीन्द्र कुमार घोष को अंडमान निकोबार में स्थित भयावह सेल्युलर जेल में भेज दिया गया जहाँ पर वह 1920 तक कैद में रहे। प्रथम विश्व उपरांत बारीन्द्र कुमार घोष को को रिहा कर दिया गया जिसके उपरांत उन्होंने पत्रकारिता प्रारंभ की। उन्होंने अंग्रेजी साप्ताहिकd ßThe Dawn of India” का प्रकाशन किया एवं a ^The statesman’ समाचार पत्र से भी वह जुड़े रहें। इन्होंने बांग्ला दैनिक समाचार पत्र ‘दैनिक बसुमती’ का भी संपादन किया। बारीन्द्र कुमार घोष ने अनेक पुस्तकों की भी रचना की, जैसे- द्वीपांतर बंशी, पाथेर इंगित, अमर आत्मकथा, अग्नियुग, ऋषि राजनारायण, द टेल ऑफ माई एक्साइल, श्री अरविन्द। 18 अप्रैल 1959 को इस महान्क्रां तिकारी स्वतंत्रता सेनानी का देहांत हो गया।
महर्षि अरविन्द
क्रांतिकारी महर्षि अरविन्द का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता (बंगाल की धरती) में हुआ। उनके पिता का नाम डाॅक्टर कृष्ण धन घोष और माता का नाम स्वर्णलता देवी था। इनके पिता पश्चिमी सभ्यता में रंगे हुए थे। इसलिए उन्होंने अरबिंदो को दो बड़े भाइयों के साथ दार्जिलिंग के एक अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया। दो वर्ष बाद सात वर्ष की अवस्था में उनके पिता उन्हें इंग्लैण्ड ले गए। अरविंद को भारतीय एवं यूरोपीय दर्शन और संस्कृति का अच्छा ज्ञान था। यही कारण है कि उन्होंने इन दोनों के समन्वय की दिशा में उल्लेखनीय प्रयास किया। कुछ लोग उन्हें भारत की ऋषि परम्परा (संत परम्परा) की नवीन कड़ी मानते हैं।
बंगाल के महान् क्रांतिकारियों में से एक महर्षि अरविन्द देश की आध्यात्मिक क्रांति की पहली चिंगारी थे। उन्हीं के आह्वान पर हजारों बंगाली युवकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए हँसते-हँसते फाँसी के फंदों को चूम लिया था। सशस्त्र क्रांति के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी।
वैसे तो अरविन्द ने अपनी शिक्षा खुलना में पूर्ण की थी, लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए वे इंग्लैंड चले गए और कई वर्ष वहाँ रहने के पश्चात् कैंब्रिज विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की। वे आईसीएस अधिकारी बनना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने भरपूर कोशिश की पर वे अनुत्तीर्ण हो गए। उनके ज्ञान तथा विचारों से प्रभावित होकर गायकवाड़ नरेश ने उन्हें बड़ौदा में अपने निजी सचिव के पद पर नियुक्त कर दिया।
बड़ौदा से कोलकाता आने के बाद महर्षि अरविन्द आजादी के आंदोलन में उतरे। कोलकाता में उनके भाई बारिन ने उन्हें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेंद्रनाथ टैगोर जैसे क्रांतिकारियों से मिलवाया। उन्होंने 1902 में अनु समिति ऑफ कलकत्ता की स्थापना में मदद की। उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ कांग्रेस के गरमपंथी धड़े की विचारधारा को बढ़ावा दिया।
सन् 1906 में जब बंग-भंग का आंदोलन चल रहा था तो उन्होंने बड़ौदा से कलकत्ता की ओर प्रस्थान कर दिया। जनता को जागृत करने के लिए अरविन्द ने उत्तेजक भाषण दिए। जिसमे उत्तरपाड़ा का उनका भाषण बहुत प्रसिद्ध है। उन्होंने अपने भाषणों तथा ‘वंदे मातरम्’ में प्रकाशित लेखों के द्वारा
अंग्रेजसरकार की दमन नीति की कड़ी निंदा की थी।
अरविन्द का नाम 1905 के बंगाल विभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ा और 1908-09 में उन पर अलीपुर बम कांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चला। जिसके फलस्वरूप अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल की सजा सुना दी। अरविन्द ने कहा था चाहे सरकार क्रांतिकारियों को जेल में बंद करे, फांसी दे या यातनाएँ दे पर हम यह सब सहन करेंगे और यह स्वतंत्रता का आंदोलन कभी रूकेगा नहीं। एक दिन अवश्य आएगा जब अंग्रेजों को हिन्दुस्तान छोड़कर जाना होगा। यह इत्तेफाक नहीं है कि 15 अगस्त को भारत की आजादी मिली और इसी दिन उनका जन्मदिन मनाया जाता है।
जब सजा के लिए उन्हें अलीपुर जेल में रखा गया। जेल में अरविन्द का जीवन ही बदल गया। वे जेल की कोठी में ज्यादा से ज्यादा समय साधना और तप में लगाने लगे। वे गीता पढ़ा करते और भगवान श्रीकृष्ण की आराधना किया करते। ऐसा कहा जाता है कि अरविन्द जब अलीपुर जेल में थे, तब उन्हें साधना के दौरान भगवान कृष्ण के दर्शन हुए। कृष्ण की प्रेरणा से वह क्रांतिकारी आंदोलन को छोड़कर योग और अध्यात्म में रम गए।
जेल से बाहर आकर वे किसी भी आंदोलन में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे। अरविन्द गुप्त रूप से पांडिचेरी चले गए। वहीं पर रहते हुए अरविन्द ने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त की और आज के वैज्ञानिकों को बता दिया कि इस जगत को चलाने के लिए एक अन्य जगत और भी है।
सन् 1914 में मीरा नामक फ्रांसीसी महिला की पांडिचेरी में अरविन्द से पहली बार मुलाकात हुई। जिन्हें बाद में अरविन्द ने अपने आश्रम के संचालन का पूरा भार सौंप दिया। अरविन्द और उनके सभी अनुयायी उन्हें आदर के साथ ‘श्री माँ’ (मदर) कहकर पुकारने लगे।
अरविन्द एक महान् योगी और दार्शनिक थे। उनका पूरे विश्व में दर्शनशास्त्र पर बहुत प्रभाव रहा है। उन्होंने जहाँ वेद, उपनिषद आदि ग्रंथों पर टीका लिखी, वहीं योग साधना पर मौलिक ग्रंथ लिखे। खासकर उन्होंने डार्विन जैसे जीव वैज्ञानिकों के सिद्धांत से आगे चेतना के विकास की एक कहानी लिखी और समझाया कि किस तरह धरती पर जीवन का विकास हुआ। उनकी प्रमुख कृतियाँ लेटर्स आॅन योगा, सावित्री, योग समन्वय, दिव्य जीवन, फ्यूचर पोयट्री और द मदर हैं।
महर्षि अरविन्द का देहांत 5 दिसंबर 1950 को हुआ। बताया जाता है कि निधन के बाद चार दिन तक उनके पार्थिव शरीर में दिव्य आभा बने रहने के कारण उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया और अंततः 9 दिसंबर को उन्हें आश्रम में समाधि दी गई।
रासबिहारी बोस
25 मई 1886 को बंगाल के बर्धमान जिले के सुबालदह नामकएक गाँव में रास बिहारी बोस का जन्म हुआ था। मात्र तीन वर्ष की आयु में रास बिहारी ने अपनी माँ को खो दिया। माँ के निधन के पश्चात रास बिहारी की मामी ने ही उनका पालन- पोषण किया। चन्दननगर के विद्यालय से अपनी स्कूली शिक्षा हासिल करने के पश्चात् रास बिहारी चिकित्सा शास्त्र और इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए क्रमशः फ्रांस और जर्मनी चले गए।
बंगाल विभाजन के विरुद्ध प्रदर्शन
वर्ष 1905 में भारत के तत्कालीन वाइसराय कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया था। इसी दौरान रास बिहारी पहली बार क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े। विभाजन को रोकने के लिए अरबिंदो घोष और जतिन बनर्जी के साथ मिलकर रास बिहारी ने बंगाल विभाजन के पीछे अंग्रेजी हुकूमत की मंशा का खुलासा करने का प्रयास किया। इसी दौरान उनका परिचय बंगाल के प्रमुख क्रांतिकारियों जैसे युगान्तर क्रान्तिकारी संगठन, संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश) और आर्य समाजी क्रांतिकारियों से हुआ।
तत्कालीन वाइसराय लाॅर्ड हाॅर्डिंग की बग्गी पर फेंका बम 1911 तक आते-आते रास बिहारी के अंदर का क्रांतिकारी जग चुका था। दिसंबर माह की बात है ‘दिल्ली दरबार’ के बाद तत्कालीन वाइसराय लाॅर्ड हार्डिंग की सवारी दिल्ली के चांदनी चैक में निकाली जा रही थी। तब रास बिहारी ने उन पर बम फेंकने की योजना बनाई। युगांतर दल के सदस्य बसन्त कुमार विश्वास ने हार्डिंग की बग्गी पर बम फेंका, लेकिन निशाना चूक गया और पुलिस ने बसंत तो पकड़ लिया। बम की वजह से मची भगदड़ का फायदा उठाकर रास बिहारी पुलिस से बच निकले और रातों-रात रेलगाड़ी से देहरादून चले गए। बम फेंकने के अगले ही दिन अपने कार्यालय में इस तरह काम करने जैसे कुछ हुआ ही न हो। अंग्रेजी प्रशासन को उनपर कोई शक नहो इसलिए उन्होंने देहरादून में ही सभा बुलाई और अंग्रेजों को दिखाने के लिए वाइसराय हार्डिंग पर हुए हमले की निंदा करने लगे।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान बनाई क्रान्ति की योजना
वर्ष 1913 की बात है, बंगाल बाढ़ आने की वजह से रास बिहारी राहत कार्य में जुट गए थे। इसी दौरान उनकी मुलाकात जतिन मुखर्जी से हुई। उन्होंने रास बिहारी के अंदर एक नया जोश भर दिया। जिसके बाद वह दोगुने उत्साह से साथ काम करने लगे। उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत को आजादी दिलाने के लिए क्रान्ति की योजना बनाई। वर्ष 1915 के फरवरी माह में उन्होंने अपने भरोसेमंद क्रांतिकारियों को सेना से युद्ध करने की योजना बनाई। उनका मानना था कि प्रथम विश्वयुद्ध के वजह से अधिकतर सैनिक देश से बाहर गए हुए हैं, ऐसे में देश में मौजूद सैनिकों के साथ युद्ध करना सरल हो सकता है। किंतु उनकी यह योजना असफल साबित हुई। परिणामस्वरूप कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया।
जापान में नाम बदलकर रहने लगे रास बिहारी सेना से युद्ध के बाद से ही ब्रिटिश पुलिस रास बिहारी को ढूँढने लगी। जिसकी वजह से वर्ष 1915 के जून माह में उन्हें भारत से भागना पड़ा। रास बिहारी छुपने के लिए जापान में राजा पी. एनटैगोर के नाम से रहने लगे और वहाँ रहकर भारत की आजादी के लिए काम करने लगे। जापान में जापानी क्रान्तिकारी मित्रों के साथ मिलकर भारत को आजाद कराने के लिए काम करते रहे। इसी दौरान उन्होंने अंग्रेजी अध्यापन, लेखन और पत्रकारिता का कार्य किया। ‘न्यू एशिया’ नामक समाचार-पत्र शुरू किया और जापानी भाषा में कुल 16 पुस्तकें लिखीं। यहाँ तक कि उन्होंने हिन्दू धर्म ग्रन्थ ‘रामायण’ का जापानी भाषा में अनुवाद किया।
टोक्यो में की इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना
सन 1916 में रास बिहारी बोस ने प्रसिद्ध पैन एशियाई समर्थक सोमा आइजो और सोमा कोत्सुको की पुत्री से विवाह कर वर्ष 1923 में जापानी नागरिकता हासिल की। उन्होंने इस दौरान भारतीय स्वाधीनता आंदोलन और राष्ट्रवादियों के पक्ष में जापानी अधिकारियों का समर्थन पाने की कोशिश की और वे इसमें सफल भी हुए। उन्होंने मार्च 1942 में टोक्यो में ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग’ की स्थापना की और भारत की स्वाधीनता के लिए एक सेना बनाने का प्रस्ताव भी पेश किया।
जापानी सैन्य ने रास बिहारी को आईएनए के नेतृत्व से हटाया
वर्ष 1942 में रास बिहारी ने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की सैन्य शाखा के रूप इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) का गठन किया और सुभाषचंद्र बोस को अध्यक्ष बनाया गया।। जापानियों की सहायता से नेताजी की फौजें चटगाँव, कोहिमा, इंफाल तक जा पहुँचीं। लेकिन जापान पर हुए आक्रमण ने विश्वयुद्ध की दिशा बदल दी। जापानी सैन्य कमान ने रास बिहारी बोस और जनरल मोहन सिंह को आईएनए के नेतृत्व से हटा दिया। लेकिन आईएनए का संगठनात्मक ढाँचा बना रहा। 21 जनवरी 1945 को रास बिहारी का निधन हो गया। उनके निधन के चार साल बाद आजाद भारत का उनका सपना पूरा हुआ और सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के नाम से आईएनए का पुनर्गठन किया। मरणोपरांत के बाद जापानी सरकार द्वारा रास बिहारी को जापान का तीसरा सर्वोच्च पुरस्कार ‘आर्डर आफ द राइजिंग सन’ से सम्मानित किया गया।
बाघा जतिन
7 दिसम्बर 1879 को कुष्टिया में जतिन का जन्म हुआ। आज ये जगह बांग्लादेश में पड़ती है। पिता का देहांत छोटी उम्र में ही हो गया था। इसलिए जतिन माँ के आंचल में पलकर बड़े हुए। और छोटी उम्र में ही स्टेनोग्राफी सीखकर एक नौकरी पर लग गए। बात 1906 की है। जतिन अपने गाँव गए हुए थे। पता चला कि गाँव के आसपास एक बाघ घूम रहा है। बाघ मवेशियों को ना मार दे। इसलिए गाँव के लड़कों ने एक टोली बनाई और बाघ को खदेड़ने पहुँच गए। इतने लोगों को सामने से आता देख बाघ ने टोली पर हमला कर दिया। इनमें से एक जतिन का चचेरा भाई भी था। भाई को मुसीबत में देख जतिन बाघ के ऊपर चढ़ बैठे। कुछ देर चले संघर्ष में बाघ ने जतिन को लहूलुहान कर डाला। तभी जतिन को याद आया कि उनकी कमर में एक खुकरी (गोरखा लोगों का हथियार) रखी हुई है। जतिन ने खुकरी निकाली और बाघ के सीने में दे मारी। बाघ वहीं ढेर हो गया।
इस मुठभेड़ में जतिन को भी काफी चोट आई थी। उनका इलाज किया ले. कर्नल डाॅक्टर सर्बाधिकारी ने। डाॅक्टर सर्बाधिकारी को बाघ से मुठभेड़ का पता चला तो उन्होंने इंग्लिश प्रेस में ये किस्सा छपवा दिया। साथ ही इंडियन सोल्जर्स की एक बटालियन का नाम भी जतिन के नाम पर रख दिया। तब से जतिन का नाम हो गया, बाघा जतिन।
बंगाल की क्रांति
1905 में बंगाल पार्टिशन के बाद स्वदेशी मूवमेंट की शुरुआत हुई तो जतिन भी उससे जुड़ गए। इन्हीं दिनों वो श्री अरविंद के भी सम्पर्क में आए। अरविंद और उनके भाई ने एक पार्टी बनाई हुई थी। नाम था जुगांतर पार्टी। अरबिंदो के मार्गदर्शन से जतिन ने नौजवानों को जुगांतर पार्टी से जोड़ने का काम सम्भाला। इसके लिए उन्होंने बंगाल के नौजवानों को एक नारा दिया।
‘आमरा मोरबो, जगत जागबे’
अर्थात् ‘हम अपनी जान देंगे, तभी देश जागेगा’ 1912 में बंगाल में भीषण बाढ़ आई।
जतिन बाढ़ पीड़ितों की मदद में लग गए। यहाँ उनकी मुलाकात हुई रास बिहारी बोस से दोनों ने मिलकर तय किया कि अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए पूरे भारत में क्रांति की जरूरत है।
इसके बाद आंदोलनकारियों के दो धड़े बनाए गए। उत्तर भारत में कमान सम्भाली रास बिहारी बोस ने, और पूर्व में जतिन के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के ख़िलाफ आंदोलन जारी रखा। बंगाल में क्रांतिकारी रोज किसी नई घटना को अंजाम दे रहे थे। अंग्रेज अपनी राजधानी कलकत्ता से उठाकरदिल्ली ले गए, उसकी एक बड़ी वजह बंगाल की क्रांति भी थी।
1915 में उत्तर भारत में गदर पार्टी और रास बिहारी बोस के नेतृत्व में एक क्रान्ति की कोशिश की गई, जिसे अंग्रेजों ने दबा दिया। अंग्रेजों ने बंगाल में भी धरपकड़ शुरू कर दी। अंग्रेजों की दबिश से बचने के लिए जतिन अपने चार साथियों के साथ बालासोर, उड़ीसा पहुँच गए।
बंगाल से उड़ीसा
दरअसल प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन और जर्मनी की लड़ाई चल रही थी। जर्मनों को लगा कि अगर वो भारत में आजादी के आंदोलन को हवा देंगे तो ब्रिटेन को झटका लगेगा। इसी के तहत एक जर्मन क्राउन प्रिंस ने भारत दौरे पर जतिन से मुलाकात की थी। जतिन क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर रहे थे। क्राउन प्रिंस ने जतिन से मुलाकात कर भरोसा दिलाया कि जर्मनी क्रांतिकारियों को हथियारों की सप्लाई करेगा। कोलकाता के तट पर अंग्रेजों ने जबरदस्त पहरा दिया हुआ था। उन्हें जर्मन और भारतीय क्रांतिकारियों के गठजोड़ की भनक लग चुकी थी। इसीलिए जतिन ने आगे के आंदोलन के लिए उड़ीसा को चुना क्योंकि उड़ीसा के तट पर जर्मन हथियारों की सप्लाई हो सकती थी।
उड़ीसा पहुँचकर उन्होंने यूनिवर्सल इम्पोरियम नाम की एक दुकान खोली। तय हुआ कि दो जर्मन जहाज उड़ीसा क तट पर पहुंचेंगे। एनी लारसन और मेवरिक नाम के दो जहाज हथियार लेकर भारत की तरफ निकले। लेकिन तट पर पहुँचने से पहले ही अंग्रेजों को इसकी खबर लग गई और उन्होंने हथियारों समेत दोनों जहाजों को अपने कब्जे में ले लिया। प्लान फेल हो चुका था। जतिन को इसकी खबर लगी तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,
‘ये घटना हमें कुछ संकेत दे रही है। आजादी अंदर से आती है, बाहर से नहीं’ लेकिन जतिन को अहसास ना था कि गद्दारी भी अंदर से ही आती है। कुछ लोगों ने जतिन के ठिकाने का पता अंग्रेजों को बता दिया। कुछ ही दिन में पुलिस उनके दरवाजे तक पहुँच गई। जतिन तब तक वहाँ से फरार हो चुके थे।
क्रान्ति के अन्तिम पथ पर
पुलिस से बचने के लिए जतिन अपने 4 साथियों के साथ पैदल निकल गए। मुख्य रास्तों को अवाॅइड करने के लिए उन्होंने कीचड़ से भरे खेतों को पार किया। उड़ीसा में एक नदी बहती हैं, बुदी बालम। एक रात जब वो उसके तट पर फँस गए तो उन्होंने मानसून में उफनती नदी को पार किया। इस दौरान पुलिस लगातार उनका पीछा कर रही थी। खतरनाक रास्तों को पार करते हुए वो बालासोर में चाशाखंड क्षेत्र के पास एक मैदान में पहुँचे। उसे अपना फाइनल वाॅर ग्राउंड बना लिया।
पाँचों क्रांतिकारी एक चट्टान की ओट लेकर छुप गए, उन दिनों माउजर पिस्तौलों के साथ एक लकड़ी का हत्था लगा होता था। उसकी टेक लगाकर उन्होंने उसे राइफल की तरह सेट कर दिया। पुलिस पहुँची तो दोनों तरफ से गोलियां चलने लगी। इस लड़ाई को ‘बैटल ऑफ बालेश्वर’ के नाम से जाना जाता है। जो आज ही के दिन यानी 9 सितम्बर, 1915 के दिन लड़ी गई थी। डेढ़ घंटे चली मुठभेड़ में जतिन का एकसाथी शहीद हो गया। इनका नाम था चित्ताप्रिया रे चैधरी। जतिन के पेट में भी एक गोली लग गई थी। मौत को नजदीक आता देख उन्होंने अपने बाकी साथियों से कहा कि वो सरेंडर कर दें। उन्होंने कहा कि तुम्हें हमारे भाइयों को बताना है कि हम डकैत नहीं बल्कि आजादी के सिपाही हैं। जतिन को बालासोर हाॅस्पिटल ले जाया गया। जहाँ उन्होंने अपने घावों को अपने ही हाथों से और गहरा कर दिया। इसके अगले ही दिन दम तोड़ दिया। उस वक्त उनकी उम्र सिर्फ 35 वर्ष थी।
उनके बाकी तीन साथियों निरेंद्रनाथ दासगुप्ता, मनोरंजन सेनगुप्ता और ज्योतिष चंद्र पाल को अदालत में पेश किया गया। निरेन और मनोरंजन को दो महीने बाद ही फाँसी पर चढ़ा दिया गया। दोनों की उम्र क्रमशः 23 और 16 साल थी। ज्योतिष को उम्र कैद की सजा दी गई। जेल में रहने के दौरान उन्होंने जतिन और उनके साथियों की कहानी कोयले से जेल की दीवारों पर लिख डाली। 1924 में जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई। जिस स्थान पर जतिन और इसके साथियों ने अंग्रेजों से लड़ाई की थी। वहाँ अब एक स्मारक बना हुआ है। जिसका नाम है रक्त तीर्थ।