श्रीकृष्ण का विराट व्यक्तित्व भारतीय इतिहास के लिये ही नहीं, विश्व इतिहास के लिये भी अलौकिक एवं आकर्षक व्यक्तित्व है और सदा रहेगा। उन्होंने विश्व के मानव मात्र के कल्याण के लिये अपने जन्म से लेकर निर्वाण पर्यन्त अपनी सरस एवं मोहक लीलाओं तथा परम पावन उपदेशों से अन्तः एवं बाह्य दृष्टि द्वारा जो अमूल्य शिक्षण दिया था वह किसी वाणी अथवा लेखनी की वर्णनीय शक्ति एवं मन की कल्पना की सीमा में नहीं आ सकता।
शास्त्रों की मान्यता के अनुसार कृष्ण षोडश कला सम्पन्न पूर्णावतार होने के कारण ‘‘कृष्णस्तु, भगवान स्वयम्’’ हैं। श्रीकृष्ण का चरित्र अत्यन्त दिव्य है, हर कोई उनकी ओर खिंचा चला जाता है। जो सबको अपनी ओर आकर्षित करे, भक्ति का मार्ग प्रशस्त करे, भक्तों के पाप दूर करे, वही कृष्ण है।
श्रीकृष्ण एक ऐसा आदर्श चरित्र है जो अर्जुन की मानसिक व्यथा का निदान करते समय एक मनोवैज्ञानिक, कंस जैसे असुर का संहार करते हुए एक धर्मावतार, स्वार्थ पोषित राजनीति का प्रतिकार करते हुए एक आदर्श राजनीतिज्ञ, विश्व मोहिनी बंसी बजैया के रूप में सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ, बृज वासियों के समक्ष प्रेमावतार, सुदामा के समक्ष एक आदर्श मित्र, सुदर्शन चक्रधारी के रूप में एक योद्धा व सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता हैं।
श्रीकृष्ण के जीवन की छोटी से छोटी घटना से यह सिद्ध होता है कि वे सर्वेश्वर्य सम्पन्न थे, धर्म की साक्षात् मूर्ति थे। संसार के जिस-जिस सम्बन्ध और जिस-जिस स्तर पर जो-जो व्यवहार हुआ करते हैं उन सबकी दृष्टि से और देश, काल, पात्र, अवस्था, अधिकार आदि भेदों से व्यक्ति के जितने भिन्न-भिन्न धर्म अथवा कर्तव्य हुआ करते हैं उन सबमें कृष्ण ने अपने विचार, व्यवहार और आचरण से एक सद्गुरु की भांति पथ-प्रदर्शन किया है।
कर्तव्य चाहे माता पिता के प्रति रहा हो, चाहे गुरु-ब्राह्मण के प्रति, चाहे बड़े भाई के प्रति अथवा गौ माता और अपने भक्तों के प्रति रहा हो। चाहे शत्रु से व्यवहार हो अथवा मित्र से, चाहे शिष्य और शरणागत हो, सर्वत्र ही धर्म का उच्चतम् स्वरूप और कर्तव्यपालन का सार्वभौम आदर्श उनके आचरण में प्रकट होता है। राजनीति के क्षेत्र में भी उनकी अनुपम एवं अद्वितीय राजनीतिक कुशलता व्यक्त होती है।
समग्र विश्व के प्रति व्यवहार में उनका आचरण ‘‘अमानी मानदो मान्यः’’ अर्थात् अहंकार रहित होकर दूसरों को मान देने वाला सिद्ध होता है। राजनीति में भी किस प्रकार राग-द्वेष से रहित होकर निष्पक्ष और निष्कपट व्यवहार किया जा सकता है। इसका उदाहरण भी कृष्ण के व्यक्तित्व के अतिरिक्त और कहीं ढूँढे से भी नहीं मिल सकता।
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म सामाजिक समता का उदाहरण है। श्रीकृष्ण ने मथुरा नगर में जन्म लिया और गोकुल गाँव में खेलते हुए उनका बचपन व्यतीत हुआ। इस प्रकार श्रीकृष्ण का चरित्र गाँव व नगर की संस्कृति को जोड़ता है, गरीब को अमीर से जोड़ता है।
गो चारक से गीता उपदेशक होना, दुष्ट कंस को मारकर महाराज उग्रसेन को उनका राज्य लौटाना, धनी घराने का होकर गरीब ग्वाल बाल एवं गोपियों के घर जाकर माखन खाना आदि जो लीलाएँ हैं ये सब एक सफल राष्ट्रीय महामानव होने के उदाहरण हैं। कोई भी साधारण मानव श्रीकृष्ण की तरह समाज की प्रत्येक स्थिति को छूकर, सबका प्रिय होकर राष्ट्रोद्धारक बन सकता है। कंस के वीर राक्षसों को पल में मारने वाला अपने प्रिय ग्वालों से पिट जाता है, खेल में हार जाता है, यही है दिव्य प्रेम की स्थापना का उदाहरण।
भगवान श्रीकृष्ण की सभी लीलाएँ सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रप्रियता का प्रेरक मानदण्ड हैं, यही कारण है कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अनूठा, अपूर्व और अनुपमेय है। श्रीकृष्ण अतीत के होते हुए भी वर्तमान की शिक्षा और भविष्य की अमूल्य धरोहर हैं। उनका व्यक्तित्व इतना विराट है कि उसे पूर्ण रूप से समझ पाना हम सभी के लिए वास्तव में कठिन कार्य है।
कालिया नामक नाग को नाथने की लोक प्रसिद्ध लीला का तात्पर्य यही है कि स्वार्थपरता, निर्दयता आदि ऐसे दोष हैं जो जीवन रूपी यमुना के निर्मल जल को विषाक्त कर देते हैं। जब तक शुद्ध सात्विक बुद्धि रूपी कृष्ण अपने पैरों से इन दोषों को कुचल कर नष्ट नहीं कर देता तब तक जीवन सरिता की सरसता एवं शुद्धता असम्भव रहेगी।
इसी प्रकार उनकी बाल लीलाओं में सर्वत्र ही कोई न कोई रहस्य दृष्टिगोचर होता है। न केवल बाललीलाओं में, वरन् समस्त लीलाओं में ही कोई न कोई रहस्य, कोई न कोई अर्थ छिपा हुआ है।
श्रीकृष्ण का चरित्र सौन्दर्य, शक्ति और शील का समन्वय था, अपनी शक्ति और सामर्थ्य से ही उन्होंने बृजवासियों को अनेक विपत्तियों से बचाया था। गोवर्धन पर्वत के नीचे समस्त ग्रामवासियों को एकत्र करके उन्हें घोर वर्षा से बचाते समय कृष्ण ने एक सेवक के रूप में कार्य किया था, दावानल में भस्म होते ग्वालों की रक्षा की।
पूतना मोक्ष, नलकुबेर और मणिग्रीव का उद्धार, द्रौपदी पर कृपा, दुर्योधन को अपनी समस्त सेना युद्ध के लिये देकर अर्जुन की ओर से अकेले निहत्थे खड़े हो जाना, अपनी सेना का संहार होते देखकर भी विचलित न होना, यह सब कृष्ण जैसे योगी के लिये ही सम्भव था।
अपने कुटुम्बीजन भी जब मिलकर नहीं रह सके तो उनका भी सर्वनाश ही हुआ, इससे भी यही स्पष्ट होता है कि यदि समाज को उन्नति के शिखर पर पहुँचाना है तो व्यर्थ की बातों को लेकर अशान्ति तथा वैमनस्य उत्पन्न करने से कोई लाभ नहीं होगा, ऐसा करने से तो विनाश ही होगा उन्नति नहीं। साथ ही समाज को यदि उन्नति की ओर अग्रसर होना है तो प्रत्येक व्यक्ति को व्यावहारिक भी होना होगा, कृष्ण-सुदामा का प्रसंग इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। श्रीकृष्ण जैसा ऐश्वर्य सम्पन्न व्यक्ति सुदामा जैसे निर्धन व्यक्ति के तन्दुल निकालकर खा लेता है और सुदामा को ऐश्वर्यशाली बना देता है। यह घटना एक ओर जहाँ मित्रता में आस्था को दर्शाती है वहीं सामन्तवादी मनोवृत्ति का भी मखौल उड़ाती है और प्राणीमात्र में समता की स्थापना करती है।
सुदामा अध्ययन, मनन, रचना-सर्जना में ऐसे डूबे कि बुद्धि वैभव को ही स्वधर्म मान उसी में जीवन की सार्थकता खोजने लगे। परिवार पालन के लिये धन की भी आवश्यकता होती है इस सत्य को वे भुला ही बैठे। सुदामा परिग्रह और अभाव में अन्तर भुला बैठे थे, जबकि आवश्यकता है दोनों में सन्तुलन स्थापित करने की, परिग्रह मत करो पर अभावग्रस्त भी मत रहो। श्री कृष्ण यह भी सिद्ध करना चाहते थे कि व्यक्ति को व्यावहारिक भी होना चाहिये।
भौमासुर के विनाश के पश्चात् उसके द्वारा बन्दी बनाई गई सोलह हजार स्त्रियों को कृष्ण ने इसलिये स्वीकार किया क्योंकि वे जानते थे कि समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा। वे जानते थे कि एक अनाचारी की कैद से छूटी इन निर्दोष युवतियों को सदा के लिये कुलटा मान लिया जाएगा और कोई भी इनके साथ विवाह के लिये आगे नहीं आएगा। उनके सम्मान की रक्षा के लिये तथा समाज के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करने के लिये कृष्ण ने उन्हें स्वीकार किया।
समस्त ब्रह्माण्ड में जो विराट नृत्य चल रहा है प्रकृति और पुरुष (परमात्मा) का, श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य उस विराट नृत्य की ही तो एक झलक है, उस रास में किसी प्रकार की काम भावना नहीं है। कृष्ण पुरुष तत्व है और गोपिकाएँ प्रकृति तत्व, इस प्रकार कृष्ण और गोपियों का नृत्य प्रकृति और पुरुष का महानृत्य है। विराट प्रकृति और विराट पुरुष का महारास है यह, तभी तो प्रत्येक गोपी यही अनुभव करती है कि कृष्ण उसी के साथ नृत्यलीन हैं। सांसारिक दृष्टि से यह रासनृत्य मनोरंजन मात्र हो सकता है, किन्तु यह नृत्य पूर्ण रूप से पारमार्थिक नृत्य है। एक ओर महारास तो दूसरी ओर वस्त्रहरण द्वारा गोपियों को सामाजिक मर्यादा का उपदेश।
कृष्ण गोपियों के प्रेम में आसक्त दिखाई देते तो हैं, किन्तु उनका वह आकर्षण भी उन्हें मथुरा में उनके कर्तव्य से विमुख नहीं कर पाता। इस प्रकार कृष्ण और गोपियों का प्रेम प्रसंग कामुकता का खण्डन करके लोकहित की भावना का समर्थन करता है।
भगवान कृष्ण एक ऐसा विराट स्वरूप हैं कि किसी को उनका बालरूप पसन्द आता है तो कोई उन्हें आराध्य के रूप में देखता है तो कोई सखा के रूप में। किसी को उनका मोर मुकुट और पीताम्बरधारी, यमुना के तट पर कदम्ब वृक्ष के नीचे बंशी बजाता हुआ तो कोई उनके महाभारत के पराक्रमी और रणनीति के ज्ञाता योद्धा के रूप की सराहना करता है और उन्हें युगपुरुष मानता है, वास्तव में श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुष हैं।
आज की राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं के निदान के लिये कृष्ण के चरित्र से प्रेरणा ली जा सकती है। आज के नेता लोग यदि कृष्ण की विलक्षण राजनीति को समझ जाएँ तो देश का कल्याण हो जाए। इसी प्रकार आज का युवा यदि समझ जाए कि कृष्ण ने जीवन से पलायन करने का अथवा निषेध का सन्देश कभी नहीं दिया तो बहुत सी कुण्ठाओं से मुक्ति पा सकता है।
कृष्ण एक ओर जहाँ महान् योगी थे तो दूसरी ओर ऐसे ऋषि भी थे कि जिन्होंने कभी वासना को महत्त्व नहीं दिया, जीवन के रस को महत्व दिया। वे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान और सर्व का कल्याण व शुभ चाहने वाले हैं, अत्यन्त रूपवान होने के साथ साथ सत्-असत् के ज्ञाता भी हैं। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नहीं मिला वरन् एक महान् कर्मयोगी और दार्शनिक भी प्राप्त हुआ, जिसका गीता ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है।
आर्य जीवनचर्या का सम्पूर्ण विकास हमें कृष्ण के चरित्र में सर्वत्र दिखाई देता है। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसे उन्होंने अपनी प्रतिभा के द्वारा प्रभावित नहीं किया, सर्वत्र उनकी अद्भुत मेधा तथा प्रतिभा के दर्शन होते हैं। एक ओर वे महान् राजनीतिज्ञ, क्रान्तिविधाता, धर्म पर आधारित नवीन साम्राज्य के सृष्टा राष्ट्रनायक के रूप में दिखाई पड़ते हैं तो दूसरी ओर धर्म, अध्यात्म, दर्शन तथा नीति के सूक्ष्म चिन्तक, विवेचक तथा प्रचारक के रूप में भी उनकी भूमिका कम महत्व की नहीं है।
भगवान श्रीकृष्ण प्रेममय, दयामय, दृढ़व्रती, धर्मात्मा, नीतिज्ञ, समाजवादी दार्शनिक, विचारक, राजनीतिज्ञ, लोकहितैषी, न्यायवान, क्षमावान, निर्भय, निरहंकार, तपस्वी एवं निष्काम कर्मयोगी हैं, वे लौकिक मानवी शक्ति से कार्य करते हुए भी अलौकिक चरित्र के महामानव हैं।