न्तर्जगत् में महर्षि श्री अरविन्द आत्मवान थे। आत्मा को समाहित कर वे आत्मवान् बने। जो आत्मवान् होता है, वही दूसरों का हृदय छू सकता है। उन्होंने जन-जन का मानस छुआ। प्रसन्न मन, सहज ऋजुता, सबके प्रति समभाव, आत्मीयता की तीव्र अनुभूति, राष्ट्रीयता एवं हिन्दुत्व का दर्शन, विशाल चिंतन, जातीय, प्रांतीय, साम्प्रदायिक और भाषाई विवादों से मुक्त- यह था उनका महान् व्यक्तित्व, जो अदृश्य होकर भी समय-समय पर दृश्य बनता रहा। उन्होंने धर्म के शाश्वत सत्यों से युग को प्रभावित किया, इसलिए वे युगधर्म के व्याख्याता बन गए। उन्होंने नैतिक क्रांति एवं स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया, इसलिए वे युगपुरुष और क्रांतिकारी कहलाए। वे संघर्षों की दीवारों को तोड़-तोड़ कर आगे बढ़े, इसलिए वे प्रगतिशील थे। सब वर्ग के लोगों ने उन्हें सुना, समझने का यत्न किया। वे सबके होकर ही सबके पास पहुंचे, इसलिए वे विशाल-दृष्टि थे।
प्रतिभा सम्पन्न देशभक्त अरविन्द
महर्षि श्री अरविन्द एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी, महान् स्वतंत्रता सेनानी, कवि, प्रकांड विद्वान, योगी और महान् दार्शनिक थे। उन्होंने अपना जीवन भारत को आजादी दिलाने, नये मानव का निर्माण और पृथ्वी पर जीवन के विकास की दिशा में समर्पित कर दिया। उनका 15 अगस्त 1872 को कलकत्ता में जन्म हुआ। उनके पिता डाॅक्टर कृष्णधन घोष उन्हें उच्च शिक्षा दिला कर उच्च सरकारी पद दिलाना चाहते थे, अतएव मात्र 7 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने इन्हें इंग्लैण्ड भेज दिया। उन्होंने केवल 18 वर्ष की आयु में ही आइ. सी .एस की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी।
इसके साथ ही उन्होंने अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, ग्रीक एवं इटेलियन भाषाओं में भी निपुणता प्राप्त की थी।
देशभक्ति से प्रेरित महर्षि श्री अरविन्द ने राष्ट्र-सेवा करने की ठान ली। इनकी प्रतिभा से बड़ौदा नरेश अत्यधिक प्रभावित थे, अतः उन्होंने इन्हें अपनी रियासत में शिक्षाशास्त्री के रूप में नियुक्त कर लिया। बड़ौदा में ये प्राध्यापक, वाइस प्रिंसिपल, निजी सचिव आदि कार्य योग्यतापूर्वक करते रहे और इस दौरान हजारों छात्रों को चरित्रवान एवं देशभक्त बनाया। रियासत की सेना में क्रान्तिकारियों को प्रशिक्षण भी दिलाया था। हजारों युवकों को उन्होंने क्रान्ति की दीक्षा दी थी। पुरुषार्थ की इतिहास परम्परा में इतने बड़े पुरुषार्थी पुरुष का उदाहरण कम ही है, जो अपनी सुख-सुविधाओं को गौण मानकर जन-कल्याण के लिए जीवन जिए।
लार्ड कर्जन के बंग-भंग की योजना रखने पर सारा देश तिलमिला उठा। बंगाल में इसके विरोध के लिये जब उग्र आन्दोलन हुआ तो अरविन्द ने इसमें सक्रिय रूप से भाग लिया। नेशनल लाॅ काॅलेज की स्थापना में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। मात्र 75 रुपये मासिक पर इन्होंने वहाँ अध्यापन-कार्य किया। पैसे की जरूरत होने के बावजूद उन्होंने कठिनाई का मार्ग चुना। उन्होंने किशोरगंज (वर्तमान में बंगलादेश में) में स्वदेशी आन्दोलन प्रारम्भ किया। अब वे केवल धोती, कुर्ता और चादर ही पहनते थे। उसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय विद्यालय से भी अलग होकर अग्निवर्षी पत्रिका वन्देमातरम् का प्रकाशन प्रारम्भ किया।
स्वातन्त्र्य आन्दोलन में भूमिका
ब्रिटिश सरकार इनके क्रन्तिकारी विचारों और कार्यों से अत्यधिक आतंकित थी। अतः 2 मई 1908 को चालीस युवकों के साथ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इतिहास में इसे ‘अलीपुर षड्यन्त्र केस’ के नाम से जानते हैं। उन्हें एक वर्ष तक अलीपुर जेल में कैद रखा गया। अलीपुर जेल में ही उन्हें हिन्दू धर्म एवं हिन्दू-राष्ट्र विषयक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूति हुई। इस षड्यन्त्र में अरविन्द को शामिल करने के लिये सरकार की ओर से जो गवाह तैयार किया था उसकी एक दिन जेल में ही हत्या कर दी गयी। घोष के पक्ष में प्रसिद्ध बैरिस्टर चितरंजन दास ने मुकदमे की पैरवी की थी। उन्होंने अपने प्रबल तर्कों के आधार पर अरविन्द को सारे अभियोगों से मुक्त घोषित करा दिया। इससे सम्बन्धित अदालती फैसला 6 मई 1909 को जनता के सामने आया। 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा में एक संवर्धन सभा की गयी वहाँ अरविन्द का एक प्रभावशाली व्याख्यान हुआ जो इतिहास में ‘उत्तरपाड़ा अभिभाषण’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने अपने इस अभिभाषण में धर्म एवं राष्ट्र विषयक कारावास-अनुभूति का विशद विवेचन किया।
भारतीय संस्कृति के बारे में महर्षि अरविन्द ने ” फाउंडेशन आॅफ इंडियन कल्चर’’ तथा ”ए डिफेंस आॅफ इंडियन कल्चर’’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। उनका काव्य ”सावित्री’’ अनमोल धरोहर है । सन् 1926 से 1950 तक वे अरविन्द आश्रम में तपस्या और साधना में लींन रहे। यहाँ उन्होंने सभाओं और भाषणों से दूर रहकर मानव कल्याण के लिए चिंतन किया। वर्षो की तपस्या के बाद उनकी अनूठी कृति ”लाइफ डिवाइन’’ (दिव्य जीवन) प्रकाशित हुई । इसकी गणना विश्व की महान कृतियों में की जाती है ।
महर्षि श्री अरविन्द का प्रमुख साहित्यिक काम जीवन को सुन्दर बनाना था, सावित्री- उनके जीवन की अद्भुत एवं महान् रचना है। सावित्री एक महाकाव्य की कविता है जिसमें महाराष्ट्र को परिभाषित किया गया है, जहाँ उनके चरित्र को सम्पूर्ण योग करते हुए दर्शाया गया है। 1943 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए उनका नाम निर्देशित किया गया था और 1950 के शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए भी उनका नाम निर्देशित किया गया था। महात्मा गांधी के अहिंसा के तत्व का पालन करते हुए वे भारत में मानवी जीवन का विकास और लोगों की आध्यात्मिकता को बदलना चाहते थे। 1900 के आसपास उन्होंने आध्यात्मिक जीवन एवं योगाभ्यास में भी रुचि लेना प्रारम्भ कर दिया था।
राजनीति और भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन उस समय बड़ी निराशा व विषाद की स्थिति से गुजर रहा था, इस कारण वे एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करना चाहते थे जो उन्हें सहारा दे व उनका पथ प्रदर्शन करे। सन् 1904 के आसपास उन्होंने विभिन्न धार्मिक गुरुओं एवम् समकालीन योगियों से संपर्क परामर्श किया जिनमें ब्रह्मानन्दजी, इन्द्रस्वरूपजी, माधवदासजी आदि थे। सन् 1893 से 1906 तक वे नौकरी, योग साधना, राजनीति-स्वतन्त्रता आन्दोलन तीनों कार्य करते रहे। सन 1906 से 1910 तक वे भारतीय राजनीति में सक्रिय रूप से भारतीय राष्ट्रीयता के नायक बनकर उभरे।
सन् 1901 में उनका विवाह राँची के निवासी श्री भूपालचन्द्र की सुपुत्री मृणालिनी देवी से हुआ। यद्यपि अपनी पत्नी के साथ श्री अरविन्द का व्यवहार सदैव प्रेम पूर्ण रहा, पर ऐसे असाधारण व्यक्तित्व वाले महापुरुष की सहधर्मिणी होने से उसे सांसारिक दृष्टि से कभी इच्छानुसार सुख की प्राप्ति नहीं हुई। प्रथम तो राजनीतिक जीवन की हलचल के कारण उसे पति के साथ रहने का अवसर ही कम मिल सका, फिर आर्थिक दृष्टि से भी श्री अरविन्द का जीवन जैसा सीधा-सादा था, उसमें उसे कभी वैभवपूर्ण जीवन का अनुभव करने का अवसर नहीं मिला, केवल जब तक वे बड़ौदा में रहे, वह कभी-कभी उनके साथ सुखपूर्वक रह सकीं। फिर जब वे पांडिचेरी जाकर रहने लगे, तो उनकी बढ़ी हुई योग-साधना की दृष्टि से पत्नी का साथ रहना निरापद न था तो भी कर्तव्य-भावना से उसे पांडिचेरी आने को कह दिया। इसी दौरान 5 दिसंबर, 1950 को इन्फ्लुऐंजा महामारी के आक्रमण से उनका देहावसान हो गया।
श्री अरविन्द आश्रम की स्थापना
आध्यात्म को लेकर श्री अरविन्द ने कई लेख लिखे और साल 1910 में कलकत्ता छोड़ कर पांडिचेरी चले गए। और वहाँ वे पहले तो अपने साथियों के साथ रहे लेकिन फिर उनके विचारों से प्रभावित होकर दूर-दूर से लोग आने लगे और इस तरह एक योग आश्रम की स्थापना की।
इसके बाद करीब 4 सालों तक योग पर ध्यान लगाने के बाद श्री अरविन्द ने अपने विचारों को ‘दार्शनिक’ नामक पत्रिका में लिखकर शेयर किया और बाद में उनकी यह पत्रिका काफी लोकप्रिय हो गई और बाद में एक टीवी सीरियल के रूप में भी प्रसारित की गई। आपको बता दें कि श्री अरविन्द ने इसमें वार एंड सेल्फ डिटरमिनेसन, द रेनेसां इन इंडिया, द फ्यूचर पोएट्री, द आइडियल आॅफ ह्मयूमन यूनिटी, शामिल थीं।
श्री अरविन्द का आध्यात्मिकता पर पूरा भरोसा था, उनके अनुसार आध्यात्मिकता ये हर एक इंसान से जुडी हुई है। 1926 में, उनके आध्यात्मिक सहकर्मियों, मिरा अल्फस्सा (श्री माँ), की सहायता से ‘‘श्री अरविन्द आश्रम’’ की स्थापना की। उनका मुख्य उद्देश्य मानवी विकास करना और मानवी जीवन और अधिक सुन्दर बनाना था।
श्री अरविंद ने भारत की पराधीनता के दिनों में पश्चिमी मूल्यों का खंडन करते हुए भारतीय परंपरा के गौरव का गुणगान किया और इस तरह भारतवासियों के मनोबल को ऊँचा किया। उन्होंने भौतिकवाद की जगह अध्यात्मवाद को, और तर्क बुद्धिवाद की जगह धार्मिकता को महत्व दिया । आलोचकों के अनुसार यह दृष्टिकोण भारत के आधुनिकीकरण के अनुकूल नहीं था परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि महर्षि अरविंद ने धर्म और अध्यात्मवाद का प्रयोग भारतीय जनमानस की जागृति के उद्देश्य से किया। उन्होंने धर्म को अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का प्रेरणा- स्रोत बनाकर एक नई भूमिका सौंपी।
उन्होंन व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए राष्ट्र की स्वतंत्रता का आह्नान किया, और समस्त राष्ट्रों की स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए सबके प्रति बराबर सम्मान का परिचय दिया। संक्षेप में, उन्होंने संपूर्ण मानवता के उद्धार का पथ प्रशस्त किया।
स्वतंत्रता संग्राम, योग, दर्शन, राष्ट्रीयता के अलावा अध्ययन, अध्यापन, स्वाध्याय और साहित्य-निर्माण- ये उनकी सहज प्रवृत्तियाँ थीं, इसलिए वे जंगम विद्यापीठ थे। अनेक मानवीय अल्पताओं के होते हुए भी वे महान् थे। उनकी गति महान् लक्ष्य की ओर रही। वे अपने को सिद्ध नहीं मानते थे। उनमें साध्य के प्रति अनुराग था, साधना के प्रति आस्था थी और सिद्धि में विश्वास था। आस्था ने ही उन्हें विलक्षण बनाया। उनकी जीवन- कहानी आस्था की ही कहानी है।
डाॅ. अनिल दशोरा