सर चंद्रशेखर वेंकट रमन द्वारा रमन इफेक्ट की खोज करने की स्मृति में हर वर्ष 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है। वेंकट रमन को उनके इस कार्य के लिये वर्ष 1930 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। पहला राष्ट्रीय विज्ञान दिवस वर्ष 1987 में मनाया गया था। विज्ञान के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान के लिए उन्हें 1954 में ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।
भारत के ज्ञान ने विश्व को हमेशा सद्मार्ग दिखाया है, भारत के विज्ञान और वैज्ञानिकों ने मानव का जीवन सरल और सुविधाजनक बनाया है। जब-जब भारत की उन्नति की बात कहीं होती है, तो इसमें भारत के वैज्ञानिकों का नाम सदैव शीर्ष पर आता है। भारत के महान् वैज्ञानिकों में से एक ”सीवी रमन“ भी थे, जिन्हें 20 वीं शताब्दी के सबसे प्रभावशाली वैज्ञानिकों की श्रेणी में सम्मानित स्थान प्राप्त है।
उनकी जिज्ञासा और सीखने की इच्छा ने ही उन्हें क्रांतिकारी खोजों की ओर हमेशा प्रोत्साहित किया, जो आधुनिक विज्ञान में मानव के लिए लाभकारी साबित हुईं। विज्ञान के क्षेत्र में उनके अविस्मरणीय योगदान के बारे में जानकर, युवा पीढ़ी विज्ञान क्षेत्र में कीर्ति कमाने के लिए खुद को प्रेरित कर सकती है।
7 नवंबर, 1888 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली शहर में जन्मे चंद्रशेखर वेंकट रमन अपने माता-पिता की दूसरे नंबर की संतान थे। उनके पिता चंद्रशेखरन रामनाथन अय्यर गणित और भौतिकी के शिक्षक थे। उनकी माँ पार्वती अम्मल को उनके पति ने पढ़ना-लिखना सिखाया था। रमन के जन्म के समय, परिवार आर्थिक रूप से अस्थिर था। रमन के चार वर्ष के होने पर उनके पिता एक लेक्चरर बन गए, जिससे उनके परिवार की स्थिति में सुधार हुआ। परिवार की आर्थिक स्थिति सुधरने के बाद उनका परिवार विशाखापट्टनम आ गया था। बहुत छोटी उम्र से ही उनकी शिक्षा असाधारण रही थी, सीवी रमन का हमेशा से ही विज्ञान की ओर विशेष झुकाव रहा था, जिसके परिणामस्वरूप वह एक वैज्ञानिक बने।
सन् 1917 में लंदन में ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के विश्वविद्यालयों का सम्मेलन था। रमन ने उस सम्मेलन में कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। इस विदेश यात्रा के समय उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना घटी। पानी के जहाज से उन्होंने भू-मध्य सागर के गहरे नीले पानी को देखा। इस नीले पानी को देखकर रमन के मन में एक विचार आया कि, यह नीला रंग पानी का है या नीले आकाश का सिर्फ परावर्तन।
रमन प्रभाव क्या है?
विश्व प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री सर सी. वी. रमन ने खोज करके दुनिया को पहली बार बताया कि लाइट यानी प्रकाश हमेशा सीधी लाइन में नहीं चलता। जब प्रकाश की किरण किसी भी पारदर्शी माध्यम (पानी, काँच या कोई भी ठोस, द्रव अथवा गैस) से गुजरती हैं तब उनके स्वभाव में परिवर्तन आ जाता है। प्रोफेसर रमन ने बताया कि प्रकाश की किरण जब माध्यम से टकराती है तो माध्यम में मौजूद कण प्रकाश की किरणों के संगठन को तोड़ देते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कैरम बोर्ड में स्ट्राइकर, गोटियों को बिखेर देता है।
रमन प्रकीर्णन को उच्च ऊर्जा स्तरों पर उत्तेजित अणुओं द्वारा फोटॉनों के प्रकीर्णन के रूप में परिभाषित किया गया है। इसे रमन प्रभाव के नाम से भी जाना जाता है। फोटॉन अप्रत्यास्थ रूप से बिखरे हुए हैं, जिसका अर्थ है कि किसी आपतित कण की गतिज ऊर्जा या तो नष्ट हो जाती है या बढ़ जाती है और यह स्टोक्स और एंटी-स्टोक्स भागों से बनी होती है।
फोटॉनों का अप्रत्यास्थ प्रकीर्णन अप्रत्यास्थ टकराव की अवधारणा के समान है, जो बताता है कि कुल सूक्ष्म गतिज ऊर्जा संरक्षित नहीं है। एक लोचदार टकराव में, गतिज ऊर्जा का स्थानांतरण होता है, लेकिन प्रकीर्णन अभी भी कॉम्पटन प्रकीर्णन की तरह बेलोचदार होगा।
विज्ञान को समर्पित जीवन
कुशाग्र बुद्धि के रमन ने 16 साल की उम्र में ही तत्कालीन मद्रास (अब चेन्नई) के प्रेसिडेंसी कालेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त कर ली थी। वे अपनी कक्षा में टापर थे और उन्होंने भौतिक विज्ञान में स्वर्ण पदक प्राप्त किया था। स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान उन्होंने 18 साल की उम्र में अपना पहला रिसर्च पेपर लिखा, जो फिलासोफिकल मैगजीन में प्रकाशित हुआ। पिता के कहने पर रमन ने 1907 में फाइनेंशियल सिविल सर्विसेज परीक्षा दी, जिसमें वे अव्वल आए। उन्हें कलकत्ता (अब कोलकाता) में असिस्टेंट एकाउंटेंट जनरल के वरिष्ठ पद पर नियुक्ति मिली। बहुत अच्छी तनख्वाह और बड़ा पद होने के बावजूद रमन का मन उसमें नहीं रमता था।
ऐसे कई सालों तक चलता रहा लेकिन जब उनको लगा कि वह नौकरी के साथ अपनी लैब को समय नहीं दे पा रहे हैं, तो रमन ने वर्ष 1917 में सरकारी नौकरी छोड़ दी और प्।ब्ै के अंतर्गत फिजिक्स में पलित कुर्सी स्वीकार कर ली। सन् 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के फिजिक्स के प्रोफेसर के तौर पर वह नियुक्त हुए।
¯ ‘ऑप्टिक्स’ के क्षेत्र में उनके योगदान के लिये वर्ष 1924 में रमन को लंदन की ‘रॉयल सोसाइटी’ का सदस्य बनाया गया और यह किसी भी वैज्ञानिक के लिये बहुत सम्मान की बात थी।
¯ ‘रमन प्रभाव’ की खोज 28 फरवरी 1928 को हुई। रमन ने इसकी घोषणा अगले ही दिन विदेशी प्रेस में कर दी थी। प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर’ ने उसे प्रकाशित किया। उन्होंने 16 मार्च, 1928 को अपनी नयी खोज के ऊपर बैंगलोर स्थित दक्षिण भारतीय विज्ञान संघ में भाषण दिया। इसके बाद धीरे-धीरे विश्व की सभी लैब्स में ‘रमन प्रभाव’ पर रिसर्च होनी शुरू हो गई।
¯ वर्ष 1929 में रमन भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे। वर्ष 1930 में लाइट के स्कैटरिंग और रमन प्रभाव की खोज के लिए उन्हें फिजिक्स के क्षेत्र में प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
¯ वर्ष 1934 में रमन को बैंगलोर स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान ;प्प्ैद्ध का डायरेक्टर बनाया गया। उन्होंने स्टिल की स्पेक्ट्रम प्रकृति, अभी भी गतिशीलता के बेसिक मुद्दे, हीरे की संरचना और गुणों और अनेक रंगीन पदार्थ के ऑप्टिकल चालन पर भी रिसर्च की।
¯ उन्होंने ही पहली बार तबले और मृदंगम् के हार्मोनिक की प्रकृति की खोज की थी। वर्ष 1948 में वो प्प्ै से रिटायर हुए। इसके बाद उन्होंने बैंगलोर में रमन अनुसंधान संस्थान की स्थापना की।
डॉ. रमन अपने संस्थान में जीवन के अंतिम दिनों तक शोधकार्य करते रहे। डॉ. रमन ने संगीत का भी गहरा अध्ययन किया था। संगीत वाद्य यंत्रों की ध्वनियों के बारे में डॉ. रमन ने अनुसंधान किया, जिसका एक लेख जर्मनी के एक विश्वकोश में भी प्रकाशित हुआ था।
डॉ. रमन का देश-विदेश की प्रख्यात वैज्ञानिक संस्थाओं ने सम्मान किया। भारत सरकार ने ‘भारत रत्न’ की सर्वोच्च उपाघि देकर सम्मानित किया तथा सोवियत रूस ने उन्हें 1958 में ‘लेनिन पुरस्कार’ प्रदान किया। 21 नवम्बर 1970 को 82 वर्ष की आयु में डॉ. रमन की मृत्यु हुई।
लोकेश जोशी