चित्तरंजन दास एक महान् स्वतंत्रता सेनानी थे। जिनका जीवन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन मे युगांतकारी था। चित्तरंजन दास को प्यार से देशबंधु कहा जाताथा। वह महान् राष्ट्रवादी तथा प्रसिद्ध विधि शास्त्री थे। चित्तरंजन दास अलीपुर षड़यंत्र कांड के अभियुक्त अर¨वद घोष के बचाव के लिए पक्ष के वकील थे। असहयोग आंदोलन के अवसर पर उन्होंने अपनी वकालत छोड़ दी थी। 1921 में अहमदाबाद में कांग्रेस के हुए अधिवेशन में चित्तरंजन दास अध्यक्ष थे। चित्तरंजन दास स्वराज्य पार्टी के संस्थापक थे। उन्होंने 1923 में लाहौर तथा 1924 में अहमदाबाद में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की अध्यक्षता की थी।
चित्तरंजन दास एक महान् स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ, वकील तथा पत्रकार थे। उनको सम्मान पूर्वक ‘देशबंधु’ कहा जाता था। एक महत्वपूर्ण राष्ट्रवादी नेता के साथ-साथ वो एक सफल विधि-शास्त्री भी थे। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान उन्होंने ‘अलीपुर षड़यंत्र काण्ड’ (1908) के अभियुक्त अरविन्द घोष का बचाव किया था। कई और राष्ट्रवादियों और देशभक्तों की तरह इन्होंने भी ‘असहयोग आंदोलन’ के अवसर पर अपनी वकालत छोड़ दी और अपनी सारी संपत्ति मेडिकलकाॅलेज तथा स्त्रियों के अस्पताल को दे डाली। कांग्रेस के अन्दर इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही और वो पार्टी के अध्यक्ष भी रहे। जब कांग्रेस ने इनके ‘कौंसिल एंट्री’ प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया तब इन्होने ‘स्वराज पार्टी’ की स्थापना की।
कोलकाता में वकालत शुरू कर दी। शुरू में तो मामला जम नहीं पाया पर कुछ समय बाद उनकी वकालत खूब चमकी और फिर इनकी दक्षता के चर्चे होने लगे। चित्तरंजन दास ने अपनी कुशलता का परिचय ‘वंदेमातरम्’ के संपादक श्री अरविंद घोष पर चलाए गए राजद्रोह के मुकदमे में (अलीपुर षड़यंत्र काण्ड) उनका बचाव करके दिया और फिर मानिकतला बाग षड्यंत्र के मुकदमे ने तो कलकत्ता हाईकोर्ट में इनकी धाक अच्छी तरह जमा दी। इस मुकदमे के दौरान देशबंधु चित्तरंजन दास ने निस्वार्थ भाव से घोर परिश्रम करते हुए वकालत में अपनी दक्षता का परिचय दिया जिसके कारण समस्त भारत में इनकी ख्याति फैल गई। क्रांतिकारियों और राष्ट्रवादियों के मुकदमों में चित्तरंजन दास अपना पारिश्रमिक नहीं लेते थे।
राजनैतिक जीवन
चित्तरंजन दास सन् 1906 में कांग्रेस में शामिल हुए और सन् 1917 में बंगाल की प्रांतीय राजकीय परिषद् के अध्यक्ष बन गए। इस समय तक वो राजनीति में पूरी तरह सक्रिय हो गए थे। सन् 1917 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में एनी बेसंट को अध्यक्ष बनाने में इनका भी योगदान था। कांग्रेस के अन्दर देशबंधु अपनी उग्र नीति और विचारों के लिए जाने जाते थे और इसी कारण सुरेंद्रनाथ बनर्जी अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़कर चले गए। सन् 1918 में इन्होंने रौलट कानून का जमकर विरोध किया और महात्मा गाँधी के सत्याग्रह का समर्थन किया।
चित्तरंजन दास ने अपनी जमी-जमाई वकालत छोड़कर असहयोग आंदोलन में भाग लिया और पूरी तरह से राजनीति में आ गए। विलासी जीवन छोड़कर उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया और कांग्रेस के सिद्धान्तों का प्रचार किया। यहाँ तक कि उन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति का भी राष्ट्रीय हित में समर्पण कर दिया।
इसके बाद वे कलकत्ता के नगर प्रमुख निर्वाचित हुए और इसी चुनाव में सुभाषचन्द्र बोस कलकत्ता निगम के मुख्य कार्याधिकारी नियुक्त हुए। इस प्रकार कलकत्ता निगम यूरोपीय नियंत्रण से मुक्त हो गया। असहयोग आंदोलन के दौरान हजारों विद्यार्थियों ने स्कूल काॅलेज छोड़ा था उनकी शिक्षा के लिए देशबंधु चित्तरंजन दास ने ढाका में ‘राष्ट्रीय विद्यालय’ की स्थापना की। असहयोग आन्दोलन के दौरान इन्होने कांग्रेस के लिए भारी संख्या में स्वयंसेवकों का प्रबंध किया। उन्होंने कांग्रेस के खादी विक्रय कार्यक्रम को भी बढ़ाने में मदद की।
ब्रिटिश सरकार ने असहयोग आंदोलन को अवैध करार दिया और चित्तरंजन दास को सपत्नीक गिरफ्तार कर छह महीने की सजा दी। उनकी पत्नी बसंती देवी असहयोग आंदोलन में गिरफ्तार होने वाली पहली महिला थीं। स्वाधीनता सेनानियों के बीच बसंती देवी बहुत ही आदरणीय थीं और सुभाष चन्द्र बोस तो उन्हें ‘माँ’ कहते थे।
सन् 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन का अध्यक्ष इन्हें चुना गया पर देशबंधु जेल में थे इसलिए इनके प्रतिनिधि के रूप में हकीम अजमल खाँ ने अध्यक्ष का कार्यभार सँभाला। जेल से छूटने के बाद उन्होंने बाहर से आंदोलन करने के बजाए कौंसिल्स (परिषदों) में घुसकर भीतर से अड़ंगा लगाने की नीति की घोषणा की पर कांग्रेस ने इनका यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया जिसके फलस्वरूप इन्होंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और मोतीलाल नेहरू और हुसैन शहीद सुहरावर्दी के साथ मिलकर ‘स्वराज्य दल’ की स्थापना की। अंततः कांग्रेस ने उनकी ‘कौंसिल एंट्री’ की पहल को माना और उनका कांउसिल प्रवेश का प्रस्ताव सितंबर, 1923 में दिल्ली में कांग्रेस के अतिरिक्त अधिवेशन में स्वीकार कर लिया गया।
मृत्यु
सन् 1925 में काम के बोझ के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और मई केमहीने में वो स्वास्थ्य लाभ के लिएदार्जिलिंग चले गए। महात्मा गाँधी भी उनको देखने के लिए दार्जिलिंग गए पर उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया और 16 जून 1925 को तेज बुखार के कारण उनकी मृत्यु हो गयी। गाँधीजी के नेतृत्व में उनकी अंतिम यात्रा कोलकाता में निकाली गयी और गाँधीजी ने कहा, ‘देशबंधु ऐसी महान् आत्मा थे जिन्होंने सिर्फ एक ही सपना देखा था। आजाद भारत का सपना और कुछ नहीं। उनके दिल में हिन्दू और मुसलमान के बीच कोई अंतर नहीं था और मैं अंग्रेजों को भी ये बताना चाहता हूँ कि देशबंधु के मन में उनके प्रति भी कोई दुर्भावना नहीं थी।
उनकी मृत्यु पर विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उनके प्रति असीम शोक और श्रद्धा प्रकट करते हुए लिखा-
एनेछिले साथे करे मृत्युहीन प्रान।
मरने ताहाय तुमी करे गेले दान।।
तरुणशर्मा