शिक्षा पूर्ण मानव को प्राप्त करने, एक न्यायसंगत और न्यायपूर्ण समाज के विकास और राष्ट्रीय विकास को बढ़ावा देने के लिए मूलभूत आवश्यकता है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक सार्वभौमिक पहुँच प्रदान करना वैश्विक मंच पर सामाजिक न्याय और समानता, वैज्ञानिक उन्नति, राष्ट्रीय एकीकरण और सांस्कृतिक संरक्षण के संदर्भ में भारत की सतत प्रगति और आर्थिक विकास की कुंजी है। सार्वभौमिक उच्चतर स्तरीय शिक्षा वह उचित माध्यम है, जिससे देश की समृद्ध प्रतिभा और संसाधनों का सर्वोत्तम विकास और संवर्द्धन व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की भलाई के लिए जा सकता है। अगले दशक में भारत दुनिया का सबसे युवा जनसंख्या वाला देश होगा और इन युवाओं को उच्चतर गुणवत्तापूर्ण शैक्षिक अवसर उपलब्ध कराने पर ही भारत का भविष्य निर्भर करेगा।
रोजगार और वैश्विक पारिस्थिति की में तीव्र गति से आ रहे परिवर्तनों की वजह से यह जरुरी हो गया है कि बच्चे, जो कुछ सिखाया जा रहा है, उसे तो सीखें ही और साथ ही वे सतत सीखते रहने की कला भी सीखें। इसलिए शिक्षा में विषयवस्तु को बढ़ाने की जगह जोर इस बात पर अधिक होने की जरूरत है कि बच्चे समस्या-समाधान और तार्किक एवं रचनात्मक रूप से सोचना सीखें, विविध विषयों के बीच अंतर्संबंधों को देख पायें, कुछ नया पायें, कुछ नया सोच पायें और नयी जानकारी को नए और बदलती परिस्थितियों या क्षेत्रों में उपयोग में ला पाये।
जरूरत है कि शिक्षण प्रकिया शिक्षार्थी- केन्द्रित हो, जिज्ञासा, खोज, अनुभव और संवाद के आधार पर संचालित हो, लचीली हो और समग्रता और समन्वित रूप से देखने- समझने में सक्षम बनाने वाली और, अवश्य ही रुचिपूर्ण हो। शिक्षा शिक्षार्थियों के जीवन के सभी पक्षों और क्षमताओं का संतुलित विकास करे इसके लिए पाठयक्रम में विज्ञान और गणित के अलावा बुनियादी कलाा, शिल्प, मानाविकी, खेल और फिटनेस, भाषाओं, साहित्य, संस्कृति और मूल्य का अवश्य ही समावेश किया जाये। शिक्षा से चरित्र निर्माण होना चाहिए, शिक्षार्थियों में नैतिकता, तार्किकता, करुणा और संवेदनशीलता विकसित करनी चाहिए और साथ ही रोजगार के लिए सक्षम बनाना चाहिए।
सीखने के परिणामों की वर्तमान स्थिति और जो आवश्यक है, उनके बीच की खाई को प्रारंभिक बाल्यवस्था देखभाल और उच्चतर गुणवत्ता, इकिटी औैर सिस्टम में अखंडता लाने वाले प्रमुख सुधारो के जरिए पाटा जाना चाहिए।
2040 तक भारत के लिए एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का लक्ष्य होना चाहिए जो कि किसी के पीछे नही है, एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था जहां किसी भी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने वाले शिक्षार्थियों को समान रूप से सर्वोच्च गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध हो।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, 21वीं शताब्दी की पहली शिक्षा नीति है जिसका लक्ष्य हमारे देश के विकास के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करना है।यह नीति भारत की परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार को बरकरार रखते हए, 21वीं सदी की शिक्षा के लिए आकांक्षात्मक लक्ष्यों, जिनमें एसडीजी 4 शमिल हैं, के संयोजन में शिक्षा व्यवस्था, उसके नियमन और गवनैंस सहित, सभी पक्षों के सुधार और पुनर्गठन का प्रस्ताव रखती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति प्रत्येक व्यक्ति में निहित रचनात्मक क्षमताओं के विकास पर विशेष जोर देती है। यह नीति इस सिद्धांत पर आधारित है कि शिक्षा से न केवल साक्षरता और संख्याज्ञान जैसी ‘बुनियादी क्षमताओं’ के साथ साथ ‘उच्चतर स्तर’ की तार्किक और समस्या समाधान संबंधी संज्ञानात्मक क्षमताओं का विकास होना चाहिए बल्कि नैतिक, सामाजिक और भावनात्मक स्तर पर भी व्यक्ति का विकास होना आवश्यक है।
प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परंपरा के आलोक में यह नीति तैयार की गयी है। ज्ञान, प्रज्ञा और सत्य की खोज को भारतीय विचार परंपरा और दर्शन में सदा सर्वाेच्च मानवीय लक्ष्य माना जाता था। प्राचीन भारत में शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा स्कल के बाद के जीवन की तैयारी के रूप में ज्ञान अर्जन नहीं बल्कि पूर्ण आत्म ज्ञान और मुक्ति के रूप में माना गया था। तक्षशिला, नालंदा
विक्रमशिला और वल्लभी जैसे प्राचीन भारत के विश्व स्तरीय संस्थानों ने अध्ययन के विविध क्षेत्रों में शिक्षण और शोध के ऊँचे प्रतिमान स्थापित किये थे और विभिन्न पृष्ठभूमि और देशों से आने वालें विद्यार्थियों और विद्वानों को लाभान्वित किया था। इसी शिक्षा व्यवस्था ने चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, चाणक्य, चक्रपाणि दत्ता, माधव, पाणिनि, पतंजलि, नागार्जुन, गौतम, पिंगला, शंकरदेव, मैत्रेयी, गार्गी और थिरुवल्लुवर जैसे अनेक महान् विद्वानों को जन्म दिया। इन विद्वानों ने वैश्विक स्तर पर ज्ञान के विविध क्षेत्रों जैसे- गणित, खगोल विज्ञान, धातु विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान और शल्य चिकित्सा, सिविल इंजीनियरिंग, भवन निर्माण, नौकायान-निर्माण और दिशा ज्ञान, योग, ललित कला, शतरंज इत्यादि में प्रामाणिक रूप से मौलिक योगदान किये। भारतीय संस्कृति और दर्शन का विश्व में बड़ा प्रभाव रहा है। वैश्विक महत्व की इस समृद्ध विरासत को आने वाली पीढ़ियों के लिए न सिर्फ सहेज कर संरक्षित रखने की जरूरत है बल्कि हमारी शिक्षा व्यवस्था द्वारा उस पर शोध कार्य होने चाहिए, उसे और समृद्ध किया जाना चाहिए और नए-नए उपयोग भी सोचे जाने चाहिए।
शिक्षा व्यवस्था में किये जा रहे बुनियादी बदलावों के केंद्र में अवश्य ही शिक्षक होने चाहिए। शिक्षा की नई नीति को निश्चित तौर पर, हर स्तर पर शिक्षकों को समाज के सर्वाधिक सम्माननीय और अनिवार्य सदस्य के रूप में पुनः स्थान देने में सहायता करनी होगी, क्योंकि शिक्षक ही नागरिकों की हमारी अगली पीढ़ी को सही मायने में आकार देते हैं। इस नीति द्वारा शिक्षकों को सक्षम बनाने के लिए हर संभव कदम उठाये जाने की आवश्यकता है जिससे वे अपने कार्य को प्रभावी रूप से कर सकें। नयी शिक्षा नीति को हर स्तर पर शिक्षण के पेशे में सबसे होनहार लोगों का चयन करने में सहायता करनी होगी। जिसके लिए उनकी आजीविका, सम्मान, मान-मर्यादा और स्वायत्तता सुनिश्चित करनी होगी। साथ ही तंत्र में गुणवत्ता नियंत्रण और जवाबदेही की बुनियादी प्रक्रियाएं भी स्थापित करनी होंगी।
नयी शिक्षा नीति को सभी विद्यार्थियों के लिए, चाहे उनका निवास स्थान कहीं भी हो, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध करानी होगी। इस कार्य में ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रह रहे समुदायों, वंचित और अल्प-प्रतिनिधित्व वाले समूहों पर विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत होगी। शिक्षा बराबरी सुनिश्चित करने का बड़ा माध्यम है और इसके द्वारा समाज में समानता, समावेशन और सामाजिक-आर्थिक रूप से गतिशीलता हासिल की जा सकती है। ऐसे समूहों के सभी बच्चों के लिए, परिस्थितिजन्य बाधाओं के बावजूद, हर संभव पहल की जानी चाहिए जिससे वे शिक्षा व्यवस्था में प्रवेश भी पा सकें और उत्कृष्ट प्रदर्शन भी कर सकें।
इन सभी बातों का नीति में समावेश भारत की समृद्ध विविधता और संस्कृति के प्रति सम्मान रखते हुए और साथ ही देश की स्थानीय और वैश्विक संदर्भ में आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए होना चाहिए। भारत के युवाओं को भारत देश के बारे में और इसकी विविध सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी आवश्यकताओं सहित यहाँ की अद्वितीय कला, भाषा और ज्ञान परंपराओं के बारे में ज्ञानवान बनाना, राष्ट्रीय गौरव, आत्मविश्वास, आत्मज्ञान, परस्पर सहयोग और एकता की दृष्टि से और भारत के सतत् ऊँचाइयों की ओर बढ़ने की दृष्टि से अतिआवश्यक है।
पिछली नीतियाँ
शिक्षा पर पिछली नीतियों का जोर मुख्य रूप से शिक्षा तक पहुँच के मुद्दों पर था। 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति, जिसे 1992 (एनपीई 1986/92) में संशोधित किया गया था, के अधूरे काम को इस नीति के द्वारा पूरा करने का भरपूर प्रयास किया गया है। 1986/92 की पिछली नीति के बाद से एक बड़ा कदम निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009 रहा है, जिसने सार्वभौमिक प्रारंभिक शिक्षा सुलभ कराने हेतु कानूनी आधार उपलब्ध करवाया।
इस नीति के आधार सिद्धांत
शैक्षिक प्रणाली का उद्देश्य अच्छे इंसानों का विकास करना है – जो तर्कसंगत विचार और कार्य करने में सक्षम हो, जिसमें करुणा और सहानुभूति, साहस और लचीलापन, वैज्ञानिक चिंतन और रचनात्मक कल्पनाशक्ति, नैतिक मूल्य और आधार हों। इसका उद्देश्य ऐसे उत्पादक लोगों को तैयार करना है जो कि अपने संविधान द्वारा परिकल्पित – समावेशी, और बहुलतावादी समाज के निर्माण में बेहतर तरीके से योगदान करे।
एक अच्छी शैक्षणिक संस्था वह है जिसमें प्रत्येक छात्र का स्वागत किया जाता है और उसकी देखभाल की जाती है। जहाँ एक सुरक्षित और प्रेरणादायक शिक्षण वातावरण मौजूद होता है। जहाँ सभी छात्रों को सीखने के लिए विविध प्रकार के अनुभव उपलब्ध कराए जाते हैं और जहाँ सीखने के लिए अच्छे बुनियादी ढाँचे और उपयुक्त संसाधन उपलब्ध हैं। ये सब हासिल करना प्रत्येक शिक्षा संस्थान का लक्ष्य होना चाहिए। तथापि, साथ ही विभिन्न संस्थानों के बीच और शिक्षा के हर स्तर पर परस्पर सहज जुड़ाव और समन्वय आवश्यक है।
मूलभूत सिद्धांत जो बड़े स्तर पर शिक्षा प्रणाली और साथ ही व्यक्तिगत संस्थानों दोनों का मार्गदर्शन करेंगे, ये हैं –
हर बच्चे की विशिष्ट क्षमताओं की स्वीकृति, पहचान और उनके विकास हेतु प्रयास करना – शिक्षकों और अभिभावकों को इन क्षमताओं के प्रति संवेदनशील बनाना जिससे वे बच्चे की अकादमिक और अन्य क्षमताओं में उसके सर्वांगीण विकास पर भी पूरा ध्यान दें।
बुनियादी साक्षरता और संख्याज्ञान को सर्वाधिक प्राथमिकता देना – जिससे सभी बच्चे कक्षा 3 तक साक्षरता और संख्याज्ञान जैसे सीखने के मूलभूत कौशलों को हासिल कर सके।
लचीलापन, ताकि शिक्षार्थियों में उनके सीखने के तौर-तरीके और कार्यक्रमों को चुनने की क्षमता हो, और इस तरह वे अपनी प्रतिभा और रुचियों के अनुसार जीवन में अपना रास्ता चुन सके।
कला और विज्ञान के बीच, पाठ्यक्रम और पाठ्येतर गतिविधियों के बीच, व्यावसायिक और शैक्षणिक धाराओं, आदि के बीच कोई स्पष्ट अलगाव न हों, जिससे ज्ञान क्षेत्रों के बीच हानिकारक ऊंच-नीच और परस्पर दूरी एवं असंबद्धता को दूर किया जा सके।
सभी ज्ञान की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने के लिए एक बहु-विषयक दुनिया के लिए विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, कला, मानविकी और खेल के बीच एक बहु-विषयक (multi-disciplinary) और समग्र शिक्षा का विकास।
अवधारणात्मक समझ पर जोर, न कि रटंत पद्धति और केवल परीक्षा के लिए पढ़ाई।
रचनात्मकता और तार्किक सोच तार्किक निर्णय लेने और नवाचार को प्रोत्साहित करने के लिए।
नैतिकता, मानवीय और संवैधानिक मूल्य जैसे, सहानुभूति, दूसरों के लिए सम्मान, स्वच्छता, शिष्टाचार, लोकतांत्रिक भावना, सेवा की भावना, सार्वजानिक संपत्ति के लिए सम्मान, वैज्ञानिक चिंतन, स्वतंत्रता, जिम्मेदारी, बहुलतावाद, समानता और न्याय।
बहु-भाषिकता और अध्ययन-अध्यापन के कार्य में भाषा की शक्ति को प्रोत्साहन।
जीवन कौशल जैसे, आपसी संवाद, सहयोग, सामूहिक कार्य, और लचीलापन।
सीखने के लिए सतत मूल्यांकन पर जोर, इसके बजाय कि साल के अंत में होने वाली परीक्षा को केंद्र में रखकर शिक्षण हो जिससे कि आज की ‘कोचिंग संस्कृति’ को ही बढ़ावा मिलता है।
तकनीकी के यथासंभव उपयोग पर जोर- अध्ययन- अध्यापन कार्य में, भाषा संबंधी बाधाओं को दूर करने में, दिव्यांग बच्चों के लिए शिक्षा को सुलभ बनाने में और शैक्षणिक नियोजन और प्रबंधन में।
सभी पाठ्यक्रम, शिक्षण-शास्त्र और नीति में स्थानीय संदर्भ की विविधता और स्थानीय परिवेश के लिए एक सम्मान, हमेशा ध्यान में रखते हुए कि शिक्षा एक समवर्ती विषय है।
सभी शैक्षिक निर्णयों की आधारशिला के रूप में पूर्ण समता और समावेशन, साथ ही शिक्षा को लोगों की पहुँच और सामथ्र्य के दायरे में रखना- यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी छात्र शिक्षा प्रणाली में सफलता हासिल कर सकें।
स्कूली शिक्षा से उच्चतर शिक्षा तक सभी स्तरों के शिक्षा पाठ्यक्रम में तालमेल, प्रारंभिक बाल्यवस्था देख-भाल तथा शिक्षा से।
शिक्षकों और संकाय को सीखने की प्रक्रिया का केंद्र मानना- उनकी भर्ती और तैयारी की उत्कृष्ट व्यवस्था, निरंतर व्यावसायिक विकास, और सकारात्मक कार्य वातावरण और सेवा की स्थिति।
शैक्षिक प्रणाली की अखंडता, पारदर्शिता और संसाधन कुशलता आडिट और सार्वजनिक प्रकटीकरण के माध्यम से सुनिश्चित करने के लिए एक ‘हल्का, लेकिन प्रभावी’ नियामक ढांचा – साथ ही साथ स्वायत्तता, सुशासन, और सशक्तीकरण के माध्यम से नवाचार और आउट- ऑफ़ -द-बाॅक्स विचारों को प्रोत्साहित करना।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और विकास के लिए उत्कृष्ट स्तर का शोध।
शैक्षिक विशेषज्ञों द्वारा निरंतर अनुसंधान और नियमित मूल्यांकन के आधार पर प्रगति की सतत् समीक्षा।
भारतीय जड़ों और गौरव से बंधे रहना, और जहाँ प्रासंगिक लगे वहाँ भारत की समृद्ध और विविध प्राचीन और आधुनिक संस्कृति और ज्ञान प्रणालियों और परंपराओं को शामिल करना और उससे प्रेरणा पाना।
शिक्षा एक सार्वजनिक सेवा है; गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच को प्र्रत्येक बच्चे का मौलिक अधिकार माना जाना चाहिए।
एक मजबूत जीवंत सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में पर्याप्त निवेश- साथ ही सच्चे परोपकारी निजी और सामुदायिक भागीदारी को प्रोत्साहन और सुविधा।
इस नीति का विज़न
इस राष्ट्रीय शिक्षा का विज़न भारतीय मूल्यों से विकसित शिक्षा प्रणाली है जो सभी को उच्चतर गुणवत्ता शिक्षा उपलब्ध कराके और भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति बनाकर भारत को एक जीवंत और न्यायसंगतज्ञान समाज में बदलने के लिए प्रत्यक्ष रूप से योगदान करेगी। नीति में परिकल्पित है कि हमारे संस्थानों की पाठ्यचर्या और शिक्षाविधि छात्रों में अपने मौलिक दायित्वों और संवैधानिक मूल्यों, देश के साथ जुड़ाव और बदलते विश्व में नागरिक की भूमिका और उत्तरदायित्वों की जागरुकता उत्पन्न करें। नीति का विज़न छात्रों में भारतीय होने का गर्व न केवल विचार में बल्कि व्यवहार, बुद्धि और कार्यो में भी और साथ ही ज्ञान, कौशल, मूल्यों और सोच में भी होना चाहिए जो मानवाधिकारों, स्थायी विकास और जीवनयापन तथा वैश्विक कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हो, ताकि वे सही मायने में वैश्विक नागरिक बन सकें।
तरुण शर्मा