भारतीय परम्परा में माना गया है कि सुसंस्कृत परिवार और बच्चों के भावी जीवन का सारा श्रेय माँ के हाथों में होता है। यदि माँ चाहे तो बालक की आतंरिक वृत्तियों को किसी भी ओर मोड़कर उसके जीवन को एक नयी दिशा दे सकती है। जीजाबाई ने भी अपने इस कर्तव्य को प्राणप्रण से निभाया और देश को शिवाजी महाराज के रूप में एक देशभक्त सपूत दिया। ये विचार प्रताप गौरव केंद्र के निदेशक ओमप्रकाश जी ने समुत्कर्ष समिति द्वारा आयोजित समुत्कर्ष संस्कार माला में व्यक्त किये।
भारत गौरव परिचय शृंखला में इस वर्ष समुत्कर्ष संस्कार माला की पहली कड़ी ‘‘संस्कारों की अधिष्ठात्री माँ’’ शीर्षक से प्रताप गौरव केन्द्र के कुम्भा सभागार में संपन्न हुई। इस प्रकार की संस्कार मालाओं के माध्यम से समाज को अपनी गौरवशाली महान सांस्कृतिक परम्पराओं से परिचित करने का प्रयास किया समुत्कर्ष समिति द्वारा किया जा रहा है। समिति के सचिव विनोद चपलोत ने समिति परिचय कराते हुए बताया कि समुत्कर्ष द्वारा समाज सेवा के विविध आयामों यथा रक्तदान, पर्यावरण संरक्षण के साथ साथ सांस्कृतिक पारिवारिक पत्रिका समुत्कर्ष के 66 वें अंक का प्रकाशन, निरन्तर 50 विचार गोष्ठियों तथा व्याख्यान मालाओं का आयोजन किया जा चुका है। 100 से अधिक विद्यालयों, महाविद्यालयों में समुत्कर्ष क्लब के माध्यम से समुत्कर्ष समिति की गतिविधियाँ संचालित हैं।
विशिष्ट अतिथि के रूप में बोलते हुए सामाजिक कार्यकर्ता अलका मूंदड़ा दीदी ने कहा कि मां जीजाबाई, शिवाजी की सिर्फ माता ही नहीं बल्कि उनकी मित्र और मार्गदर्शक भी थीं। उनका स्वयं का सारा जीवन साहस और त्याग से भरा रहा। उन्होंने जीवन भर कठिनाइयों और विपरीत परिस्थितियों का सामना किया, किन्तु धैर्य नहीं खोया और अपने पुत्र ‘शिवाजी’ को स्वधर्म और समाज कल्याण के प्रति समर्पित रहने की सीख दी।
अपने मुख्य प्रबोधन में ओमजी भाई साहब ने कहा कि जीजाबाई ने दादा कोंडदेव तथा समर्थ गुरु रामदास के शुभाशीष से शिवाजी के पालन- पोषण में खुद को पूरी तरह झोंक दिया। साथ ही उनके अंदर भारतीय संस्कृति और वीरता के बीज हमेशा रोपित करती रहीं। यही कारण था कि बहुत छोटी उम्र में ही छत्रपति शिवाजी महाराज ने आततायी मुगलों को सफल चुनौती दी और समूचे भारत के लिये प्रेरणा पुंज बने। शिवाजी ने बाल्यकाल में ही गौमाता को कत्लखाने ले जा रहे कसाई को सबक सिखा अपने गौरक्षण का संकल्प व्यक्त कर दिया था। माँ की प्रेरणा से शिवाजी के चरण अपने सुशील आचरण से दृढ़ संकल्प की पूर्ति की ओर बढ़ चले।
शिवाजी ने तोरण विजय से प्रारंभ किया विजय अभियान प्रतापगढ़, रायगढ़, विशालगढ़, राजगढ़, सूरत तक व्यापक रूप से फैलाया। बीजापुर, आदिलशाही समेत दिल्ली दरबार शिवाजी की बढ़ती ताकत को रोक पाने में असमर्थ रहे। अफजल खां, शाइस्ता खाँ को शिवाजी द्वारा दिया गया सबक इतिहास प्रसिद्ध है। जयसिंह को राष्ट्रीय भावना से जोड़ने के लिये शिवाजी द्वारा लिखा पत्र आज भी प्रेरक है। आगरा में औरंगजेब की कैद से जिस चतुराई और निर्भीकता से शिवाजी निकल आए वह बडे बड़े रणनीतिकारों को भी अचम्भित करने वाला था।
शिवाजी के जीवन का ध्येय माँ जीजाबाई द्वारा निर्धारित जीवन लक्ष्य था। समर्थ गुरु रामदास की प्रबल प्रेरणा से शिवाजी ने अपने रण कौशल से आदिलशाही, कुतुबशाही, निजामशाही को नाकों चने चबवा दिए थे। यह सब विलक्षण कार्य उन्होंने अपने विश्वस्त सहयोगियों तानाजी मालसुरे, नेताजी पालकर, दत्ता जी पंत, बाजी प्रभु देशपांडे, येसाजी कंक, सोनोपंत , प्रताप राव गुर्जर आदि के स्वराज्य के प्रति निष्ठा के बल पर पूरे किए।
मुख्य प्रबोधन से पूर्व रविन्द्र राठौड़ ने छत्रपति शिवाजी से संदर्भित काव्य गीत प्रस्तुत किया। समिति अध्यक्ष संजय कोठारी ने अतिथियों समेत सभी आगंतुकों विशेष रूप से बड़ी संख्या में उपस्थित मातृशक्ति का आभार व्यक्त किया।