चाहे कोई देखे या न देखे फिर भी कोई है जो हर समय देख रहा है। जिसके पास हमारे पाप-पुण्य सभी कर्मों का लेखा-जोखा है। इस दुनिया की सरकार से शायद कोई बच भी जाय पर उस सरकार से आज तक न कोई बचा है और न बच पायेगा। किसी प्रकार की सिफारिश अथवा रिश्वत वहाँ काम नहीं आयेगी। उससे बचने का कोई मार्ग नहीं है। कर्म करने में तो मानव स्वतंत्र है किन्तु फल भोगने में कदापि नहीं। मन, प्राण, बुद्धि और इंद्रियों का एकाकार ही मानव शरीर की भौतिकवादी सरंचना है। इसमें दुःख और सुख समाहित है। प्रतिकूल परिस्थितियां दुःख का आभास देती हैं और अनुकूल परिस्थितियां सुख का बोध कराती हैं। ये दोनों हमें प्रभु की कृपा से ही प्राप्त होते हैं जो प्रत्येक मनुष्य के अपने-अपने कर्मों, अकर्मों, विकर्मों और सकर्मों का प्रतिफल है। यह परिवर्तनशील है और प्रारब्ध के ही अंश हैं। न चाहते हुए भी मनुष्य दुःख और सुख भोगकर मिटा देता है। चाहकर भी उसमें परिवर्तन नहीं कर सकता।
जब हम दूसरों की खुशहाली देखें तो, यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वे सुख भोग रहे हैं। यदि हम उनसे पूछें तो सुख में भी दुःख के कई कारण निकलेंगे। यदि उनके पास धन अधिक है तो भय और मोह रहेगा। ये राग, द्वेष आदि गुणों और अवगुणों से उत्पन्न होते हैं। जब गुणों से राग उत्पन्न होता है तो मनुष्य शांत और अंतर्मुखी हो जाता है। यदि अवगुणों के प्रभाव से द्वेष होता है तो मनुष्य क्रोधी और ईष्यालु हो जाता है। पूर्व प्रारब्ध को सुख और दुःख मानने वाले मनुष्य संघर्ष करके इसे सरलतापूर्वक मिटा देते हैं। जो लोग प्रारब्ध को नहीं मानते, वे रो-रोकर समय काटते हैं।
यहां यह समझना श्रेयस्कर होगा कि मनुष्य की इच्छा से कुछ नहीं होता, समय से ही वह सब कुछ होता है। कर्म करते ही कर्म का फल हमारे साथ चिपक जाता है, उससे बचा नहीं जा सकता! अच्छा कर्म करने से चित्त में पुण्य कर्म जमा होते है और बुरा कर्म करने से पाप कर्म! इन दोनों तरह के कर्मों का फल व्यक्ति को अवश्य भोगना होता है! जब अच्छे कर्म करते है तो पुण्य फल की प्राप्ति होती है! यदि इस जन्म में वो प्राप्त नहीं हो पाया तो अगले जन्म में पुण्य फल मिलेगा या फिर एक जन्म से दूसरे जन्म के बीच के समय में भी चित्त उसी भाव में रहने से सुख का अनुभव करता है, जिसको स्वर्ग कहा जाता है, स्वर्ग कोई अलग से स्थान नहीं बल्कि चित्त के सुख में रहने की अवस्था है! इसी प्रकार बुरे कर्म पाप फल देने वाले होते हैं जो नरक की ओर ले जाते हैं! अच्छे कर्म करो तो सुख मिलता है बुरे कर्म करो तो दुःख मिलता है! जैसा कर्म किया जाता है वैसा ही फल हमारे सामने उपस्थित होने लगता है! कर्म पाप हो या पुण्य हमें दोनों ही इस संसार में बाँधने वाले होते हैं!
कहने का तात्पर्य यह है कि सारी परिस्थितियों के कार्यकलाप का लेखा- जोखा जरूर होगा, जिससे दुःख और सुख समाहित होगा। इसकी गणना जीवों को नहीं मालूम होती। इस जीवन चक्र में परम कारण का रहस्य आध्यात्मिक चिंतन के ज्ञान से ही संभव है। पृथ्वी के सर्वोच्च पद पर आसीन होकर भी हम प्रभु के इस परम कारण को नहीं समझ सकते। श्रुतियों और शास्त्रों में जगह-जगह कहा गया है कि परब्रह्मा ही जगत का कारण है जो आनंदमय है।
आनंद से भी प्राणी उत्पन्न होते हैं, आनंद में ही जीते हैं तथा अंत में आनंद में ही प्रविष्ट हो जाते हैं। मनुष्य अपने ही कर्मों का शुभ एवं अशुभ फल भोगता है, ईश्वर उसे सुख-दुःख नहीं देते। आराध्य का स्मरण ही सुमिरन है और सुमिरन आराध्य के प्रति श्रद्धानिष्ठ बनने की सतत प्रक्रिया है। इस आराधन प्रक्रिया को जो जितने मनोयोग से निष्पादित करता है, वह उतना ही आत्मतोष की अनुभूति करता है। आत्मतोष की यह संजीवनी उसे तनावमुक्त रखने के साथ ही शांत-सुखद जीवन जीने एवं कार्यक्षेत्र में सफल होने की अक्षय ऊर्जा प्रदान करती है। सुमिरन का सुख लाभ अप्रत्यक्ष एवं अनिर्वचनीय है। कर्म का फल पृथ्वी पर वहन करना ही होता है।
आइए! अपने कर्मफल का आनन्द लें। अच्छे कर्म करें। समस्याओं एवं दुःख की परिस्थिति में अन्य को दोष न देकर अपने कर्म फल को स्वीकार करें।