एक राजा जंगल में घर का रास्ता भूल गया । सामने देखा एक तालाब था । उस तालाब के किनारे एक महात्मा तपस्या कर रहे थे । राजा ने सोचा मैं पहले तालाब में स्नान करके शरीर को पवित्र कर लूं फिर महात्मा के पास जाकर ज्ञान ध्यान की बातें सुनूं । राजा ने कपड़े उतारकर जब तालाब में गोता लगाया तो उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं शरीर नहीं हूँ । उसके बाद दूसरा गोता लगा तो अनुभव किया मैं आत्मा हूँ । अब तीसरा गोता लगाया तो अनुभव हुआ कि मैं आत्मा ही परमात्मा हूँ । और जब चौथा गोता लगाया तो अनुभव हुआ कि सर्व ब्रह्मांड में मैं ही सच्चिदानंद ब्रह्मा हूँ । मैं सर्व संसार का मूल आधार हूँ, अधिष्ठान हूँ, मेरी ज्ञान चेतना से सर्व संसार रोशन हो रहा है । मैं राजा नहीं हूँ मैं सर्व ब्रह्मांड का स्वामी सर्वनाम रूप की आधारशिला हूँ । यह जंगल संसार मेरी चेतना ज्ञान में मंगलमय हो रहा है । ऐसा विचार करते-करते तालाब में खड़े-खड़े उसकी समाधि लग गई ।
उधर महात्मा की समाधि खुली और देखा कि तालाब में एक राजा खड़ा हुआ है और समाधि लगी हुई है । तब महात्मा ने आकर कहा-राजन आंखें खोलो, पता नहीं कब से तालाब में खड़े हो। उधर राजा की समाधि टूटी और उसने कहा स्वामी जी, मैं राजा नहीं हूँ । मैं आत्मा परमात्मा हूँ, मेरे से ही सर्व ब्रह्मांड का निर्माण हो रहा है । पता नहीं इस जल में क्या करामात थी जो एक अज्ञानी मूर्ख राजा को पल भर में ज्ञान के धन से मालामाल कर दिया । जिस ज्ञान को ऋषि, मुनि, भोगी, तपस्वी बहुत यत्न से भी प्राप्त नहीं कर सकते। पर प्रभु मुझे इस जल में रहने दो।
तब महात्मा ने कहा जो तुम्हें तालाब में निश्चय मिल चुका है वह लुप्त नहीं हो सकता । तुम बाहर आ जाओ । तब राजा तालाब से बाहर आकर महात्मा के चरणों में नमस्कार करके बैठ गया और जल की करामात का प्रश्न पुनः कर दिया तो महात्मा ने कहा मैं बचपन से ही इस तालाब के किनारे तप, तपस्या, आराधना करता हूँ । मेरा निश्चय वही है जो तुम्हें मिला है । मेरी तपस्या से जल भी वैसा हो गया है, जब मैं स्नान करता हूं तो मेरी भी समाधि लग जाती है । हे राजन्, यह सब मेरी तपस्या निश्चय का फल है । अगर अज्ञानी लोग भी आकर इसमें गोता लगा ले तो उनका भी निश्चय हमारे जैसा हो जाएगा ।
संसारी लोग सूर्य,चंद्रमा,नक्षत्र की रोशनी को सत्य मानते हैं परन्तु यह नहीं जानते कि रोशन करने वाला यह चेतना है। इसी ज्ञान से तन मन रोशन हो रहा है । अपने ही ज्ञान की रोशनी को भूल कर यह भटक रही है । उनको माया का पसारा सत्य नजर आ रहा है । वह शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के कीचड़ से लथपथ हो रहे हैं और अपने को पवित्र मानते हैं । जैसे सूअर कीचड़ में स्नान करके अपने को पवित्र मानता हैं । मूर्ख प्राणी अपने ज्ञान की रोशनी में जागकर भी अज्ञान की रोशनी ने में भटक रहे हैं । ज्ञान का अंधकार बार-बार उनको जन्म मरण की खाई में गिरा देता है और खाई में गिरते तो काम-क्रोध, लोभ-मोह की जोकें चिपट जाती हैं । वह इसमें सुख मानती है । मीठी मीठी चुभन उन्हें अच्छी लगती है । खाई में गिरा प्राणी काम-क्रोध, लोभ-मोह की जोके चिपटी हुई ऐसे प्राणी को कैसे बोध हो सकता है । यह सब जादूगरी का खेल है । कभी हानि-लाभ कभी जय-पराजय आ जाती है । हानि लाभ में रोता है । जय पराजय में खुश होता है । जब आंखों से आंसू आता है, कोई पूछने वाला नहीं होता रोते-रोते जीवन बीत जाता है । चारों और अज्ञान के अंधकार में मौत की चट्टानों से टकराकर फिर मां के गर्भ में आता है । जब से सृष्टि का निर्माण हुआ है इसको चैन और शांति नहीं मिली और चेन और शांति के लिए उपाय भी तो नहीं करता । अंत में हारे हुए ज्वारी की तरह संसार से विदा हो जाता है ।
चट्टानों से टकराकर फिर मां के गर्भ में आता है । जब से सृष्टि का निर्माण हुआ है इसको चैन और शांति नहीं मिली और यह चैन और शांति के लिए उपाय भी तो नहीं करता । अंत में हारे हुए जुआरी की तरह संसार से विदा हो जाता है ।
हे राजन् ! तुम्हारे पिछले जन्मों के शुभ कर्म से तुम्हें यह आत्म ज्ञान का धन मिला है । रास्ता भूल जाना तालाब पर पहुंचकर स्नान करना और कोई कारण होगा । वह कारण ही आत्मज्ञान के समीप ले आया । यह आत्मज्ञान की प्राप्ति तुम्हारे लिए सुखदाई हो गई । हे राजन, तुम स्वयं नहीं आए, तुम्हारे शुभ कर्म यहाँ लाये और तुम्हारे शुभ कर्मो ने तुम्हें आत्मज्ञान दिया ।
हे राजन, अब जाओ और राज्य भी करो। आत्म ज्ञान का अभिमान करो। अधिकारी पुरुष का खुले दिल से इसका प्रसाद देना और सदा स्वांग करते हुए स्वांग से असंग अपने स्वरूप में विचार कर और इस ज्ञान की रोशनी को दूसरों को दान देने की कोशिश करना ।