देश की स्वाधीनता के लिए जिसने भी त्याग और बलिदान दिया, वह धन्य है; पर जिस घर के सब सदस्य फांसी चढ़ गये, वह परिवार तो सदा सदा के लिए पूज्य है। चाफेकर बंधुओं का परिवार भी ऐसा ही था। चापेकर बंधु ‘दामोदर हरि चापेकर, बालकृष्ण हरि चापेकर, तथा वासुदेव हरि चापेकर’ तीनों भाइयों को कहा जाता है। चापेकर बंधु तिलक जी को गुरुवत सम्मान देते थे।
1897 में पुणे में भयंकर प्लेग फैल गया। इस बीमारी को नष्ट करने के बहाने से वहां का प्लेग कमिश्नर सर वाल्टर चार्ल्स रैण्ड मनमानी करने लगा। उसके अत्याचारों से पूरा नगर त्रस्त था। वह जूतों समेत रसोई और देवस्थान में घुस जाता था। उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए चाफेकर बंधुओं दामोदर एवं बालकृष्ण ने 22 जून, 1897 को उसका वध कर दिया।
इस योजना में उनके दो मित्र गणेश शंकर और रामचंद्र द्रविड़ भी शामिल थे। ये दोनों सगे भाई थे; पर जब पुलिस ने रैण्ड के हत्यारों के लिए 20,000 रु. पुरस्कार की घोषणा की तो इन दोनों ने मुखबिरी कर दामोदर हरि चाफेकर को पकड़वा दिया। जिन्हें 18 अपै्रल, 1898 को फांसी दे गयी। कारागृह में तिलक जी ने उनसे भेंट की और उन्हें ‘गीता’ प्रदान की। 18 अप्रैल 1898 को प्रातः वही ‘‘गीता’ पढ़ते हुए दामोदर हरि चाफेकर फांसीघर पहुंचे और फांसी के तख्ते पर लटक गए। उस क्षण भी वह ‘‘गीता’ उनके हाथों में थी। बालकृष्ण की तलाश में पुलिस निरपराध लोगों को परेशान करने लगी। यह देखकर उसने स्वयं आगे होकर आत्मसमर्पण कर दिया।
इनका एक तीसरा भाई वासुदेव भी था। वह समझ गया कि अब भाई बालकृष्ण को भी फांसी दी जाएगी। ऐसे में उसका मन भी केसरिया बाना पहनने को मचलने लगा। उसने मां से अपने बड़े भाइयों की तरह ही बलिपथ पर जाने की आज्ञा मांगी। वीर माता ने अश्रुपूरित नेत्रों से उसे छाती से लगाया और उसके सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख दिया।
अब वासुदेव और उसके मित्र महादेव रानाडे ने दोनों द्रविड़ बंधुओं को उनके पाप की सजा देने का निश्चय किया। द्रविड़ बन्धु पुरस्कार की राशि पाकर खाने-पीने में मस्त थे। आठ फरवरी, 1899 को वासुदेव तथा महादेव पंजाबी वेश पहन कर रात में उनके घर जा पहुंचे। वे दोनों अपने मित्रों के साथ ताश खेल रहे थे। नीचे से ही वासुदेव ने पंजाबी लहजे में उर्दू शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा कि तुम दोनों को बु्रइन साहब थाने में बुला रहे हैं।
थाने से प्रायः इन दोनों को बुलावा आता रहता था। अतः उन्हें कोई शक नहीं हुआ और वे खेल समाप्त कर थाने की ओर चल दिये। मार्ग में वासुदेव और महादेव उनकी प्रतीक्षा में थे। निकट आते ही उनकी पिस्तौलें गरज उठीं। गणेश की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गयी और रामचंद्र चिकित्सालय में जाकर मरा। इस प्रकार दोनों देशद्रोहियों को देशद्रोह का समुचित पुरस्कार मिल गया।
पुलिस ने शीघ्रता से जाल बिछाकर दोनों को पकड़ लिया। वासुदेव को तो अपने भाइयों को पकड़वाने वाले गद्दारों से बदला लेना था। अतः उसके मन में कोई भय नहीं था। अब बालकृष्ण के साथ ही इन दोनों पर भी मुकदमा चलाया गया। न्यायालय ने वासुदेव, महादेव और बालकृष्ण की फांसी के लिए क्रमशः आठ, दस और बारह मई, 1899 की तिथियां निश्चित कर दी।
आठ मई को प्रातः जब वासुदेव फांसी के तख्ते की ओर जा रहा था, तो मार्ग में वह कोठरी भी पड़ती थी, जिसमें उनके बड़े भाई बालकृष्ण बंद थे। वासुदेव ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘भैया, अलविदा। मैं जा रहा हूँ।’’ बालकृष्ण ने भी उतने ही उत्साह से उत्तर दिया, ‘‘हिम्मत से काम लेना। मैं बहुत शीघ्र ही आकर तुमसे मिलूंगा।’’ इस प्रकार तीनों चाफेकर बंधु मातृभूमि की बलिवेदी पर चढ़ गये।
बलिदान की अमर तिथियाँ
दामोदर हरि चापेकर : 18 अप्रैल 1899
वासुदेव हरि चापेकर : 8 मई 1899
बालकृष्ण हरि चापेकर : 12 मई 1899
इस प्रकार अपने जीवन-दान के लिए उन्होंने देश या समाज से कभी कोई प्रतिदान की चाह नहीं रखी। वे महान बलिदानी कभी यह कल्पना नहीं कर सकते थे कि यह देश एक दिन ऐसे गद्दारों से भर जाएगा, जो भारत माता की वन्दना करने से भी इनकार करेंगे। आज भी हम मानसिक रूप से तो अंगेजों के ही गुलाम हैं और जब तक हम खुद इन गुलामी की जंजीरों को नहीं तोड़ेंगे तब तक हमें स्वतंत्रता दिलाने के लिए अपने जीवन की परवाह न करने वाले वीर शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि नहीं मिलेगी !!
प्रतिमा सामर