गाँधी जी अपने नियम के बड़े पक्के थे। उनका प्रत्येक कार्य नियमित और निर्धारित समय- सीमा के अनुसार ही होता था। हरेक क्षण का पूर्ण सदुपयोग हो इस बात के लिए वे सदैव सचेत रहते थे। उनके आश्रम में सुबह-शाम प्रार्थना का कड़ा नियम था, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की उपस्थिति अनिवार्य होती थी। शाम की हाजिरी में हर व्यक्ति अपना नाम आने पर ‘¬’ बोलता, साथ ही दिन भर में काते गये सूत के तारों की संख्या भी बताता।
एक बार गाँधी जी सूत कात रहे थे। उसी समय उन्हें किसी आवश्यक कार्य से बाहर जाना पड़ा। उन्होंने अपने स्टेनो टाइपिस्ट सुबैया से कहाः ‘‘सूत चरखे से उतार लेना, तार गिन लेना और शाम को प्रार्थना से पहले मुझे बता देना।’’ सुबैया ने उत्तर दियाः ‘‘जी, मैं बता दूँगा।’’
संध्या हुई, प्रार्थना स्थल पर सभी कतारबद्ध खड़े हो गये। अब हाजिरी प्रारम्भ हुई, पहला नाम गाँधी जी का ही था। उन्होंने ‘¬’ बोला परंतु सूत के तारों की संख्या तो सुबैया ने उन्हें बतायी ही नहीं थी। गाँधी जी गम्भीर हो गये। एक बार सुबैया की ओर नजर उठायी परंतु चुप ही रहे। गाँधी जी के अंतर्मन में तीव्र वेदना हो रही थी। प्रार्थना समाप्त हुई। प्रतिदिन प्रार्थना के बाद गाँधी जी प्रसन्नचित्त से आश्रमवासियों के साथ बातचीत करते थे, परंतु आज उनके चेहरे पर प्रसन्नता के भाव नहीं दिख रहे थे। जैसे उनका कुछ खो गया हो, इस तरह की गम्भीर चिंतन-मुद्रा में बैठे थे। अंदर की व्यथा को बाहर लाते हुए वे बोलेः मैंने आज भाई सुबैया से कहा था कि ‘मेरा सूत चरखे से उतार लेना और मुझे तारों की संख्या बता देना।’ मैं मोह में फँस गया। मैंने सोचा था, ‘सुबैया मेरा काम कर देंगे’ लेकिन यह मेरी भूल थी। मुझे अपना काम स्वयं करना चाहिए था। मैं सूत कात चुका था, तभी एक जरूरी काम सामने आ गया और मैं सुबैया से सूत उतारने को कहकर बाहर चला गया। जो काम मुझे पहले करना चाहिए था वह नहीं किया। भाई सुबैया का इसमें कोई दोष नहीं, दोष मेरा ही है। मैंने क्यों अपना काम उनके भरोसे छोड़ा! मुझसे यह प्रमाद क्यों हुआ! सत्य के साधक को ऐसा प्रमाद नहीं करना चाहिए। उसे अपना काम किसी दूसरे के भरोसे नहीं छोड़ना चाहिए। आज की इस भूल से मैंने बहुत बड़ा पाठ सीखा है। अब मैं फिर कभी ऐसी भूल नहीं करूँगा।’’
सीखः गाँधी जी तो एक बार की गलती से सावधान हो गये और दुबारा कभी प्रमाद न करने का व्रत ले लिया परंतु हम क्या करते हैं….. कई बार धोखा खाने के बाद भी अपना आलस्य-प्रमाद और पराश्रयितता नहीं छोड़ते, फिर-फिर से वही भूल दोहराते रहते हैं। इससे जीवन का अमूल्य समय यों ही बीत जाता है और इन छोटी-छोटी गलतियों से जीवन तुच्छ, साधारण व्यक्तियों जैसा बन जाता है।
सुरेश दक