ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि विदेशी आक्रांता बाबर के आदेश पर सन् 1527-28 में अयोध्या में राम जन्मभूमि पर बने भव्य राम मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद का निर्माण किया गया। कालांतर में बाबर के नाम पर ही इस मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद रखा। पर यह सब इतनी सहजता से नहीं हुआ था। मंदिर की रक्षा के लिए हुए संघर्षों का इतिहास बहुत पुराना होने के साथ ही हमारे पूर्वजों की अपनी संस्कृति, अपने मान बिन्दुओं की रक्षा के प्रखर संकल्प को दर्शाता है।
रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। अयोध्या हिन्दुओं के प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है। जिसमें अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवंतिका (उज्जयिनी) और द्वारका शामिल किया गया है। प्रबल धार्मिक आस्था के अनुसार माना जाता है कि भगवान राम का जन्म वर्तमान उत्तरप्रदेश के अयोध्या नगर में हुआ था। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का जन्म भी अयोध्या में हुआ था। आक्रांताओं के आने के पहले यहां हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्म के सैंकड़ों मंदिर और स्तूप थे।
जब मंदिर तोड़ा जा रहा था तब जन्मभूमि मंदिर पर सिद्ध महात्मा श्यामनंदजी महाराज का अधिकार था। उस समय भीटी के राजा महताब सिंह बद्रीनारायण ने मंदिर को बचाने के लिए बाबर की सेना से युद्ध लड़ा। कई दिनों तक युद्ध चला और अंत में हजारों वीर सैनिक शहीद हो गए।
इतिहासकार कनिंघम अपने ‘लखनऊ गजेटियर’ के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है कि 1,74,000 हिन्दुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीर बांकी अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान में सफल हुआ। उस समय अयोध्या से 6 मील की दूरी पर सनेथू नाम के एक गांव के पं. देवीदीन पाण्डेय ने वहां के आसपास के गांवों सराय, सिसिंडा, राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय क्षत्रियों को एकत्रित किया और फिर से युद्ध हुआ। पं. देवीदीन पाण्डेय सहित हजारों हिन्दू शहीद हो गए और बाबर की सेना जीत गई।
पाण्डेयजी की मृत्यु के 15 दिन बाद हंसवर के महाराज रणविजय सिंह ने हजारों सैनिकों के साथ मीर बांकी की विशाल और शस्त्रों से सुसज्जित सेना से रामलला को मुक्त कराने के लिए आक्रमण किया, लेकिन महाराज सहित जन्मभूमि के रक्षार्थ सभी वीरगति को प्राप्त हो गए। स्व. महाराज रणविजय सिंह की पत्नी रानी जयराज कुमारी हंसवर ने अपने पति की वीरगति के बाद खुद जन्मभूमि की रक्षा के कार्य को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और 3,000 नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल दिया और हुमायूं के समय तक उन्होंने छापामार युद्ध जारी रखा।
रानी जयराज कुमारी हंसवर के नेतृत्व में यह युद्ध चलता रहा। स्वामी महेश्वरानंदजी ने संन्यासियों की सेना बनाई। लेकिन हुमायूं की शाही सेना से इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और रानी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई सेना के साथ शहीद हो गई और जन्मभूमि पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया।
मुगल शासक अकबर के काल में शाही सेना हर दिन के इन युद्धों से कमजोर हो रही थी, अतः अकबर ने बीरबल और टोडरमल के कहने पर खस की टाट से उस चबूतरे पर 3 फीट का एक छोटा-सा मंदिर बनवा दिया। अकबर की इस कूटनीति से कुछ दिनों के लिए जन्मभूमि में रक्त, नहीं बहा। यही क्रम शाहजहां के समय भी चलता रहा।फिर औरंगजेब के काल में भयंकर दमनचक्र चलाकर उत्तर भारत से हिन्दुओं के संपूर्ण सफाए का संकल्प लिया गया। उसने लगभग 10 बार अयोध्या में मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलाकर यहां के सभी प्रमुख मंदिरों और उनकी मूर्तियों को तोड़ डाला। औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्रीरामदासजी महाराज के शिष्य श्री वैष्णव दासजी ने जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए 30 बार छोटे-बड़े आक्रमण किए।
नासिरुद्दीन हैदर के समय में मकरही के राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुनः अपने रूप में लाने के लिए हिन्दुओं के 3 आक्रमण हुए जिसमें बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गए। इस संग्राम में भीती, हंसवर, मकरही, खजूरहट, दीयरा, अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मिलित थे। हारती हुई हिन्दू सेना के साथ वीर चिमटाधारी साधुओं की सेना आ मिली और इस युद्ध में शाही सेना को हारना पड़ा और जन्मभूमि पर पुनः हिन्दुओं का कब्जा हो गया। लेकिन कुछ दिनों के बाद विशाल शाही सेना ने पुनः जन्मभूमि पर अधिकार कर लिया और हजारों रामभक्तों का कत्ल कर दिया गया।
नवाब वाजिद अली शाह के समय के समय में पुनः हिन्दुओं ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ आक्रमण किया गया। ‘फैजाबाद गजेटियर’ में कनिंघम ने लिखा है – ‘इस संग्राम में बहुत ही भयंकर खून-खराबा हुआ। 2 दिन और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध में सैंकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के बावजूद हिन्दुओं ने श्रीराम जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। इतिहासकार कनिंघम लिखता है कि ये अयोध्या का सबसे बड़ा हिन्दू-मुस्लिम बलवा था। हिन्दुओं ने अपना सपना पूरा किया और औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस बनाया। चबूतरे पर 3 फीट ऊंचे खस के टाट से एक छोटा-सा मंदिर बनवा लिया जिसमें पुनः रामलला की स्थापना की गई। लेकिन बाद के मुगल राजाओं ने इस पर पुनः अधिकार कर लिया। 1853 ई. में राम मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने के मुद्दे पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। इसके बाद सन् 1857 की क्रांति में बहादुरशाह जफर के समय में बाबा रामचरण दास ने एक मौलवी आमिर अली के साथ जन्मभूमि के उद्धार का प्रयास किया। कुछ कट्टरपंथी मुस्लिमों को यह बात स्वीकार नहीं हुई और उनके विरोध के चलते 18 मार्च 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के पेड़ में दोनों को एक साथ अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया।
हिन्दू-मुस्लिम पक्षों में विवाद के चलते 1859 में ब्रिटिश शासकों ने विवादित स्थल पर बाड़ लगा दी और परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलमानों को और बाहरी हिस्से में हिन्दुओं को प्रार्थना करने की अनुमति दे दी।
19 जनवरी 1885 को हिन्दू महंत रघुबीर दास ने पहली बार इस मामले को फैजाबाद के न्यायाधीश पं. हरिकिशन के सामने रखा था। इस मामले में कहा गया था कि मस्जिद की जगह पर मंदिर बनवाना चाहिए, क्योंकि वह स्थान प्रभु श्रीराम का जन्म स्थान है।
1949 में भगवान राम की मूर्तियां इस तथाकथित मस्जिद में पाई गईं। कहते हैं कि कुछ हिन्दुओं ने ये मूर्तियां वहां रखवाई थीं। मुसलमानों ने इस पर विरोध व्यक्त किया और दोनों पक्षों ने अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। सरकार ने इस स्थल को विवादित घोषित करके ताला लगा दिया।
1984 में कुछ हिन्दुओं ने विश्व हिन्दू परिषद के नेतृत्व में भगवान राम के जन्मस्थल को ‘मुक्त’ करने और वहां राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया। बाद में इस अभियान का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी ने संभाल लिया।
1986 में जिला मजिस्ट्रेट ने हिन्दुओं को प्रार्थना करने के लिए विवादित मस्जिद के दरवाजे पर से ताला खोलने का आदेश दिया। मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया।
1989 में विश्व हिन्दू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज किया और विवादित स्थल के नजदीक दलित बन्धु कामेश्वर चौपाल के हाथों राम मंदिर की नींव रखी गई। इसी वर्ष इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि विवादित स्थल के मुख्य द्वारों को खोल देना चाहिए और इस जगह को हमेशा के लिए हिन्दुओं को दे देना चाहिए।
इसके बाद रामभक्तों की आस्था का सैलाब 6 दिसंबर को कारसेवा हेतु अयोध्या पहुंचा। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचा ढ़हा दिया गया। 6 दिसंबर 1992 को जब विवादित ढांचा गिराया गया, उस समय राज्य में कल्याण सिंह की सरकार थी। उस दिन सुबह करीब 10.30 बजे हजारों-लाखों की संख्या में कारसेवक पहुंचने लगे। दोपहर में 12 बजे के करीब कारसेवकों का एक बड़ा जत्था मस्जिद की दीवार पर चढ़ गया। लाखों की भीड़ को संभालना सभी के लिए मुश्किल हो गया। दोपहर तक भीड़ ने पहला गुंबद तोड़ दिया और फिर शाम पड़ते-पड़ते पूरे का पूरा विवादित ढांचा जमींदोज हो चुका था। भीड़ ने उसी जगह पूजा-अर्चना की और ‘राम लला’ की स्थापना कर दी। पुलिस के आला अधिकारी मामले की गंभीरता को समझ रहे थे। गुंबद के आसपास मौजूद कारसेवकों को रोकने की हिम्मत किसी में नहीं थी। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का साफ आदेश था कि कारसेवकों पर गोली नहीं चलेगी।
इसी मसले पर विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल, भाजपा नेता आडवाणी, यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, मुरली मनोहर जोशी और मध्यप्रदेश की पूर्व सीएम उमा भारती सहित कई नेताओं के खिलाफ आपराधिक साजिश का मुकदमा चलाया गया। जो अब तक न्यायालय में विचाराधीन है।
संदर्भः प्राचीन भारत, लखनऊ गजेटियर, लाट राजस्थान, रामजन्मभूमि का इतिहास (आर.जी. पाण्डेय), अयोध्या का इतिहास (लाला सीताराम), बाबरनामा आदि स्रोतों से संकलित।
गोपाल लाल माली