करीब ढाई हजार साल पुरानी बात है। महावीर स्वामी का जन्म राजसी क्षत्रिय परिवार में ईसा से 599 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के क्षत्रिय कुण्डलपुर (वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 27 मील उत्तर में गंगा के दक्षिण में स्थित बसाड़ नाम का गाँव है। जहाँ उस काल में क्षत्रिय कुंड और कुण्डपुर नाम के दो उपनगर थे) में पिता सिद्धार्थ और माता महारानी त्रिशला के यहाँ तीसरी संतान के रूप में वर्द्धमान का जन्म हुआ। वर्द्धमान के बड़े भाई का नाम था नंदिवर्धन व बहन का नाम सुदर्शना था। महावीर का जन्म वीर निर्वाण संवत पंचांग के अनुसार चैत्र मास के चढ़ते चन्द्रमा के 13 वें दिन हुआ था। ग्रेगोरियन पंचाग के अनुसार यह दिनांक मार्च या अप्रैल में पड़ती है। जिसे महावीर जयंती के रूप में मनाया जाता है। वे ज्ञातृ वंश के थे, उनकी गोत्र कश्यप थी। महावीर को ‘वीर’, ‘अतिवीर’, सज्जंस (श्रेयांस), जसस (यशस्वी) और ‘सन्मति’ भी कहा जाता है।
भारत में श्रमण और वैदिक, ये दो परम्पराएँ बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। इनका अस्तित्व ऐतिहासिक काल से आगे प्राग्-ऐतिहासिक काल मे भी जाता है। भगवान ऋषभ प्राग्-ऐतिहासिक काल मे हुए थे। वे जैन परम्परा के आदि तीर्थंकर थे और धर्म-परम्परा के भी प्रथम प्रवर्तक थे। भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीसवें और इस युग के अन्तिम तीर्थंकर के रूप में मान्य हैं।
तीस वर्ष की यौवनावस्था में, महावीर पूर्ण संयमी बनकर श्रमण बन गये। दीक्षित होते ही उन्हें मनःपर्यव ज्ञान हो गया। दीक्षा के बाद, महावीर प्रभु ने घोर तपस्या एवं साधना की। अनेक महान् उपसर्गों को अपूर्व समता भाव से सहन किया। ग्वालों का उपसर्ग, संगम देव के कष्ट, शूलपाणि यक्ष का परिषह, चण्डकौशिक का डंक, व्यन्तरी के उपसर्ग आदि भगवान महावीर की समता एवं सहनशीलता के असाधारण उदाहरण हैं।गृहस्थ जीवन त्याग करने के बाद महावीर ने साढ़े 12 सालों की अपूर्व, कठोर तपस्या की, जिसकी परिणिति में वैशाख शुक्ल दशमी को ऋजुबालुका नदी के किनारे साल के पेड़ के नीचे उनको ‘कैवल्य ज्ञान’ की प्राप्ति हुई थी।
भगवान महावीर को केवल ज्ञान उत्पन्न होते ही, देवगणों ने पंचदिव्यों की वृष्टि की और सुन्दर समवसण की रचना की। भगवान के समवसण में आकाश मार्ग से देव-देवियों के समुदाय आने लगे। प्रमुख पंडित इंद्रभूति को जब मालूम हुआ कि नगर के बाहर सर्वज्ञ महावीर आए हैं और उन्हीं के समवसण में ये देव गण जा रहें हैं, तो उनके मन मे अपने पांडित्य का अहंकार जाग्रत हो उठा। वे भगवान के अलौकिक ज्ञान की परख करने और उनको शास्त्रार्थ में पराजित करने की भावना से समवसण में आये।
भगवान की शांत मुद्रा एवं तेजस्वी मुख-मण्डल को देखकर तथा उनकी अमृत वाणी का पान करने से इंद्रभूति के सब अन्तरंग संशयों का छेदन हो गया और वे उसी समय अपने शिष्यों सहित भगवान के चरणों में दीक्षित हो गये। इसी प्रकार अन्य दस विद्वान भी अपनी शिष्य मण्डली के साथ उसी दिन दीक्षित हुए। ये ग्यारह प्रमुख शिष्य ही गणधर कहलाए।
भगवान महावीर ने अहिंसा, संयम, तप, पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का उपदेश दिया। अवतारवाद की मान्यता का खण्डन करते हुए, उत्रारवाद प्रस्तुत किया। यज्ञ के नाम पर होने वाली
पशु एवं नरबलि का घोर विरोध किया तथा सभी वर्ग के सभी जाति के लोगों को धर्मपालन का अधिकार बतलाया। जाति-पाँति व लिंग के भेदभाव को मिटाने हेतु उपदेश दिए। चंदनबाला प्रकरण महावीर की स्त्री जाति के प्रति संवेदना का विशेष उदाहरण है।
भगवान महावीर का उपदेश सार
सत्य
सत्य के बारे में भगवान महावीर स्वामी कहते हैं, हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्व समझ। जो बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।
अहिंसा
इस लोक में जितने भी त्रस जीव (एक, दो, तीन, चार और पाँच इंद्रिय वाले जीव) आदि की हिंसा मत कर, उनको उनके पथ पर जाने से न रोको। उनके प्रति अपने मन में दया का भाव रखो। उनकी रक्षा करो। यही अहिंसा का संदेश भगवान महावीर अपने उपदेशों से हमें देते हैं।
अपरिग्रह
परिग्रह पर भगवान महावीर कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसको दुःखों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। यही संदेश अपरिग्रह का माध्यम से भगवान महावीर दुनिया को देना चाहते हैं।
ब्रह्मचर्य
महावीर स्वामी ब्रह्मचर्य के बारे में अपने बहुत ही अमूल्य उपदेश देते हैं कि ब्रह्मचर्य उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय की जड़ है। तपस्या में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तपस्या है। जो पुरुष स्त्रियों से संबंध नहीं रखते, वे मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ते हैं।
क्षमा
क्षमा के बारे में भगवान महावीर कहते हैं- ‘मैं सब जीवों से क्षमा चाहता हूँ। जगत के सभी जीवों के प्रति मेरा मैत्रीभाव है। मेरा किसी से वैर नहीं है। मैं सच्चे हृदय से धर्म में स्थिर हुआ हूँ। सब जीवों से मैं सारे अपराधों की
क्षमा माँगता हूँ। सब जीवों ने मेरे प्रति जो अपराध किए हैं, उन्हें मैं क्षमा करता हूँ।’
वे यह भी कहते हैं ‘मैंने अपने मन में जिन-जिन पाप की वृत्तियों का संकल्प किया हो, वचन से जो-जो पाप वृत्तियाँ प्रकट की हों और शरीर से जो-जो पापवृत्तियाँ की हों, मेरी वे सभी पापवृत्तियाँ विफल हों। मेरे वे सारे पाप मिथ्या हों।’
महावीर ने 30 वर्षों तक, तीर्थंकर के रूप में विचरण कर, जिन धर्म का सदुपदेश दिया। आपका अन्तिम चातुर्मास पावापुरी में हुआ। जब वर्षाकाल का चौथा मास चल रहा था, कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन, भगवान ने रात्रि में चार अघाति कर्मों का क्षय किया और पावापुरी में परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। पावापुरी बिहारशरीफ के सन्निकट है। यहाँ पर सुन्दर एवं मनोरम जल-मंदिर है। जैन लोग इसे भगवान महावीर की पुण्यभूमि मानते हैं और इस पवित्र तीर्थभूमि का दर्शन कर अपने जीवन को कृतकृत्य समझते हैं। निर्वाण के समय भगवान की आयु 72 वर्ष थी।
भगवान महावीर प्रतिशोधात्मक हिंसा, प्रतीकारात्मक हिंसा और आशंकाजनित हिंसा से उपरत थे, अनर्थ हिंसा की तो बात ही कहाँ? भगवान महावीर अपने साधना काल में, प्रायः मौन रहते थे। अधिकांश समय ध्यानस्थ रहते और अनाहार ही तपस्या करते थे। वे अपने विशिष्ट साधना बल के आधार पर कैवल्य को प्राप्त हुए।
भगवान श्री महावीर का साधनाकाल घोर कष्टमय रहा था। शूलपाणि यक्ष और संगम देव ने एक-एक रात, प्रभु को बीस-बीस मरणान्तिक कष्ट दिये। जिनको पढ़ने और सुनने मात्र से काया काँप उठती है। शास्त्रों के अनुसार, अभिनिष्क्रमण के बाद कई महीनों तक महावीर की देह को जहरीले मच्छर, कीड़े आदि नोचते रहे और उनका रक्त पीते रहे। लाढ़ देश के अनार्य लोगों ने भगवान को बहुत यातनाएँ दी। मारा, पीटा, शिकारी कुत्तों को पीछे लगाया। चण्ड कौशिक साँप ने काटा। ग्वालों ने कानों में कीलियाँ ठोकी, पावों में आग जलाकर खीर पकाई, फिर भी समता के सुमेरू महावीर अडोल और अकम्प रहे। ध्यानयोग, तपोयोग और अन्तमौन में लीन रहे। उनकी चेतना सदा अस्पर्श योग के ‘शिखर’ पर प्रतिष्ठित रही। वे आत्केन्द्रित थे।
महावीर का पूरा साधना काल समता की साधना में बीता। उनके सामने अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही प्रकार के परीषह उत्पन्न हुए। उन्होंने अपनी सहिष्णुता के द्वारा उन परीषहों को निरस्त किया। उनकी समता की साधना थी।
महावीर को केवल धर्म से नहीं अपितु राष्ट्र निर्माण से भी जोड़ कर देखना चाहिये और हमें नहीं भूलना चाहिये कि अहिंसा की सबसे सूक्ष्म और असाधारण परिभाषा महावीर ने ही दी थी। वे कहते हैं-
जं किंचि सुहमुआरं पहुत्तणं पयइ सुन्दरम जं च।
आरूग्गम सोहग्गम तं तमहिंसा फलं सव्वं।।
अर्थात्- संसार में जो कुछ भी श्रेष्ठ सुख, प्रदीप्त, सहज सुन्दरता, आरोग्य एवं सौभाग्य दिखाई देते हैं, वे सब अहिंसा के ही फल हैं (भक्त प्रतिज्ञा)।
एक अन्य प्रसंग में भगवान महावीर उपदेश करते हैं-
सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं।
तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं।।
अर्थात्दृ संसार में सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते, इसलिए प्राणिवध को घोर समझ कर निग्रन्ध उसका परित्याग करते हैं (दशवैकालिक)। मुझे लगता है कि महावीर समय शास्वत हैं और उन्होंने जो मार्ग बताया है, वह संभवतः आज भी परिवर्तन, वीरता और क्रांति का ही मार्ग है, वही मार्ग जिसका अनुसरण कर महात्मा गाँधी ने जन आन्दोलन खड़ा कर दिया।
शोध विद्वानों के मत से महावीर को कोई ऐसा दिव्य ज्ञान प्राप्त था, जिससे, वह अपने प्राण उर्जा को चेतना के किसी ऐसे बिन्दु पर केन्द्रित कर लेते थे, जिससे शरीर पर घटित होने वाली किसी भी घटना का उनकी चेतना पर प्रभाव नहीं पड़ता था। वह गुण उनका विलक्षण अस्पर्शयोग ही था।
भगवान महावीर का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त अनेकान्तवाद व स्यादवाद है। भगवान महावीर ने कहा है, कि सभी मत और सिद्धान्त पूर्ण सत्य या पूर्ण असत्य नहीं हैं। सापेक्ष दृष्टि से विचार करने पर सभी दृष्टिकोण सत्य ही प्रतीत होते हैं। इसलिए, अपने-अपने मत या सिद्धान्त पर अड़े रहने से संघर्ष बढ़ता है। आज जो वर्ग-संघर्ष, अशान्ति और शस्त्रों का अन्धानुकरण बढ़ रहा है, उसे रोकने में अनेकान्त की दृष्टि, सहअस्तित्व की भावना महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।
महावीर ने कहा था, कि प्रत्येक इन्सान यदि अपने स्वरूप को पहचान ले, तो स्वयं भगवान बन जाता है। महावीर का भगवान सृष्टि संचालक नहीं हैं। महावीर का भगवान भगवत्ता को प्राप्त इन्सान है। महावीर ने स्वयं को पहचानने के तीन सूत्र दिए एकांत, मौन, और ध्यान। महावीर ने तप भी किया था-उपवास का तप। उपवास यानी, आत्मा में वास करना। भोजन छूटना उसका सहज परिणाम था। महावीर के लिए ध्यान और उपवास अलग अलग नहीं थे। ध्यान और उपवास दोनों का ही अर्थ है, आत्म केद्रित अवस्था।
महावीर की साधना हमारे जीवन की प्रयोगभूमि है। हम केवल महावीर के अनुयायी बनकर ना रह जाए। स्वयं के भीतर ध्यान की ज्योति जलाकर महावीर को पुनर्जीवित करें। जो महावीर चले गये, वो लौटकर नही आ सकते। किंतु हमारे भीतर का महावीर जरूर जाग सकता है। महावीर ने कहा था-अप्पणा सच्चमे सेज्जां मेत्ति भूएसु कप्पए, स्वयं सत्य को खोजें एवं सबके साथ मैत्री करें। महावीर ने कहा था, जीओ और जीने दो। इस प्रकार महावीर के पुराने सिद्धान्तों की आज भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी उस समय थी। आवश्कता सिर्फ उन्हें गहराई से समझकर अपनाने की है।
अहिंसा, संयम एवं तपोमय आदर्श जीवन के प्रतीक, भगवान महावीर को इस संतप्त विश्व में स्मरण कर, उनके जीवनादर्शों के चिन्तन एवं पालन की जितनी आवश्यकता आज उपस्थित हुई है, उतनी संभवतः पहले कभी नहीं रही होगी। इसलिए आज हम पुनः, हमारे सुंदर अतीत की इस परम विभूति की गौरव-गाथा गाकर, अपने राष्ट्रीय व्यक्तित्व को टटोलें और पुनः उनके मंगल मार्ग पर चलने का संकल्प करें।
संजय कोठारी