एक बार एक गड़रिये को सिंह शावक मिल गया। दो-चार दिन उसने उसे अलग रखा, फिर उसे अपने भेड़ों में छोड़ दिया। उन्हीं के साथ वह उठता बैठता, उन्हीं के साथ जंगल में चरने जाता। उन्हीं जैसा वह गर्दन दबा कर चलता और उनकी जैसी ही आवाज करता। एक बार जब सब भेड़ें जंगल में चर रही थी, एक वनकेसरी गरजता हुआ आया और उन भेड़ों पर टूट पड़ा। दो भेड़ों उठाकर वह जा ही रहा था, तब उसकी नजर उस सिंह शावक पर पड़ी।
उसके मन में विचार आया, ‘‘अरे, यह सिंह का बच्चा होते हुए ऐसा क्यों चल रहा है?’’ उस सिंह ने भेड़ों को छोड़ा, और उस बच्चे को उठाया। सिंह ने पूछा ‘‘अरे तू कौन है ?’’ तब वह डरने लगा और फुरफुर जैसी आवाज करने लगा। तब वह सिंह उसे जलाशय के पास ले गया।
प्रतिबिंब दिखाकर उसने कहा, ‘‘देख तू कौन है! मूर्ख! तू सिंह है। भेड क्यों बनता है ? सीना तान, गर्दन ऊंची कर, और बिबियाना छोड़ कर एक दहाड मार।’’ तब उस बच्चे को ध्यान आया कि मैं भी सिंह हूं। वैसी ही आज भारतीय समाज की स्थिति हो गई है।
हम अमृत-पुत्रा हैं, विश्वभर के पथप्रदर्शक हैं।
हमें आत्मग्लानि त्याग देनी चाहिये।
मीमांसा जोशी