4 जून 1940 को उधम सिंह को गवर्नर माइकल ओ’ड्वायर की हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई,1940 को उन्हें ‘पेंटनविले जेल’ में फाँसी दे दी गयी। इस प्रकार यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अपनी शहादत देकर अमर हो गया। इसके 34 वर्ष बाद 31 जुलाई,1974 को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंपे। ऊधम सिंह की अस्थियाँ सम्मान सहित भारत लायी गईं। उनके गाँव में उनकी समाधि बनी हुई है।
मार्च 1940 की उस शाम लंदन का कैक्सटन हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था। मौका था ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की बैठक का। हॉल में बैठे कई भारतीयों में एक ऐसा भी था जिसके ओवरकोट में एक मोटी किताब थी। यह किताब एक खास मकसद के साथ यहां लाई गई थी। इसके भीतर के पन्नों को चतुराई से काटकर इसमें एक रिवॉल्वर रख दिया गया था।
बैठक खत्म हुई। सब लोग अपनी-अपनी जगह से उठकर जाने लगे। इसी दौरान इस भारतीय ने वह किताब खोली और रिवॉल्वर निकालकर बैठक के वक्ताओं में से एक माइकल ओ’ ड्वायर पर फायर कर दिया। ड्वॉयर को दो गोलियां लगीं और पंजाब के इस पूर्व गवर्नर की मौके पर ही मौत हो गई। हॉल में भगदड़ मच गई। लेकिन इस भारतीय ने भागने की कोशिश नहीं की। उसे गिरतार कर लिया गया। ब्रिटेन में ही उस पर मुकदमा चला और 31 जुलाई 1940 को उसे फांसी हो गई। इस महान क्रांतिकारी का नाम उधम सिंह था।
जन्म से लेकर अनाथालय तक
सरदार उधम सिंह 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में पैदा हुए। पिता सरदार तेजपाल सिंह जम्मू उपल्ली गांव में रेलवे चौकीदार थे। पिता ने नाम दिया शेर सिंह। इनके एक भाई भी थे। मुख्ता सिंह। सात साल की उम्र में उधम अनाथ हो गए। पहले मां चल बसीं और उसके 6 साल बाद पिता। मां-बाप के मरने के बाद दोनों भाइयों को अमृतसर के सेंट्रल खालसा अनाथालय में रखवा दिया गया।
वहां लोगों ने दोनों भाइयों को नया नाम दिया। शेर सिंह बन गए उधम सिंह और मुख्ता सिंह बन गए साधु सिंह। वर्ष 1917 में साधुसिंह की भी मौत हो गई। 1918 में उधम ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया। जलियांवाला बाग कांड और उनकी प्रतिज्ञा
उधम सिंह के सामने ही 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था। उन्होंने अपनी आंखों से डायर की करतूत देखी थी। वे गवाह थे, उन हजारों बेनाम भारतीयों की हत्या के जो जनरल डायर के आदेश पर गोलियों के शिकार हुए थे। यहीं पर उधम सिंह ने जलियांवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर जनरल डायर और तत्कालीन पंजाब के गर्वनर माइकल ओ’ ड्वायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ली थी।
सरदार भगत सिंह से हुए प्रेरित
उधम सिंह को भगत सिंह बहुत पसंद थे। उनके काम से उधम बहुत इंप्रेस थे। भगत सिंह को वो अपना गुरु मानते थे। साल 1935 में जब वो कश्मीर गए थे। वहां उधम को भगत सिंह के पोट्रेट के साथ देखा गया। इन्हें देशभक्ति गाने गाना बहुत अच्छा लगता था। ये राम प्रसाद बिस्मिल के भी फैन थे। कुछ महीने कश्मीर में रहने के बाद वो विदेश चले गए।
क्रांतिकारी राजनीति :
इसके बाद उधम सिंह क्रांतिकारी राजनीति में शामिल हो गए और भगत सिंह एवं उनके क्रांतिकारी समूह का उन पर काफी प्रभाव पड़ा। 1924 में उधम सिंह गदर पार्टी से जुड़ गए। अमेरिका और कनाडा में रह रहे भारतीयों ने 1913 में इस पार्टी को भारत में क्रांति भड़काने के लिए बनाया था। क्रांति के लिए पैसा जुटाने के मकसद से उधम सिंह ने दक्षिण अफ्रीका,
जिम्बाब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा भी की। भगत सिंह के कहने के बाद वे 1927 में भारत लौट आए। अपने साथ वे 25 साथी, कई रिवॉल्वर और गोला – बारूद भी लाए थे। जल्द ही अवैध हथियार और गदर पार्टी के प्रतिबंधित अखबार ‘गदर की गूंज’ रखने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर मुकदमा चला और उन्हें पांच साल जेल की सजा हुई। 1931 में जेल से रिहा होने के बाद, उधम सिंह के अभियान पर पंजाब पुलिस निरंतर निगरानी रख रही थी। इसके बाद वे कश्मीर चले गये और वहाँ वे पुलिस से बचने में सफल रहे और भागकर जर्मनी चले गए। सरदार उधम सिंह ने भारतीय समाज की एकता के लिए अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद सिंह आजाद रख लिया था। जो भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक है। सन् 1934 में उधम सिंह लंदन पहुंचे और वहां 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। वहां उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और साथ में अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली।
इस बीच देश के बड़े क्रांतिकारी एक-एक कर अंग्रेजों से लड़ते हुए जान देते रहे। ऐसे में उनके लिए आंदोलन चलाना मुश्किल हो रहा था। पर वो अपनी प्रतिज्ञा को पूरी करने के लिए मेहनत करते रहे। दैवयोग उधम सिंह के लंदन पहुंचने से पहले जनरल डायर लकवे व अन्य गम्भीर बीमारियों के चलते मर गया था। ऐसे में उन्होंने अपना पूरा ध्यान माइकल ओ’ ड्वायर को मारने पर लगाया।
देश के बाहर फांसी पाने वाले उधम सिंह दूसरे क्रांतिकारी थे। उनसे पहले मदन लाल ढ़ींगरा को कर्जन वाइली की हत्या के लिए साल 1909 में फांसी दी गई थी। संयोग देखिए कि 31 जुलाई को ही उधम सिंह को फांसी हुई थी और 1974 में इसी तारीख को ब्रिटेन ने इस महान क्रांतिकारी के अवशेष भारत को सौंपे थे।
ओंड्वायर को किए की सजा
डायर की प्राकृतिक मौत के बाद सरदार उधम सिंह में उपजे जलियांवाला बाग नरसंहार के आक्रोश का निशाना बना उस नरसंहार के वक्त पंजाब का गवर्नर रहा माइकल फ्रेंसिस ओ’ ड्वायर। 13 मार्च 1940 को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन कैक्सटन हॉल में बैठक थी। वहां माइकल ओ’ ड्वायर भी स्पीकर में से एक था। उधम सिंह उस दिन टाइम से वहां पहुंच गए।
अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा रखी थी। उन्होंने किताब के पन्नों को रिवॉल्वर के शेप में काट लिया था और बक्से जैसा बनाया था। उससे उनको हथियार छिपाने में आसानी हुई। बैठक के बाद मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने माइकल ओ’ ड्वायर को निशाना बनाया। दो गोलियां लगी जिससे उसकी तुरंत मौत हो गई। इसके साथ ही उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। उन्होंने दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी छोड़ा नहीं करते। उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और गिरफ्तार हो गए। उन पर मुकदमा चला। कोर्ट में पेशी हुई।
जज ने सवाल दागा कि उन्होंने ओ’ ड्वायर के अलावा उसके दोस्तों को क्यों नहीं मारा। उधम सिंह ने जवाब दिया कि वहां पर कई औरतें थीं और हमारी संस्कृति में औरतों पर हमला करना पाप है।
4 जून 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया। 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई। भारतीय स्वतंत्रता अभियान का एक जाना माना चेहरा उधम सिंह भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में अमर हो गए। इसके बाद उधमसिंह को शहीद-ए-आजम की उपाधि दी गई स्थानीय लोग अब भी उन्हें शहीद-ए-आजम सरदार उधम सिंह के नाम से भी जानते है। अक्टूबर 1995 में तत्कालीन सरकार ने उत्तराखंड के (उधम सिंह नगर) एक जिले का नाम उन्हीं के नाम पर रखा है।
राजेश सैनी