पं. दीनदयाल उपाध्याय राजनेता मात्र नहीं थे, वह उच्च कोटि के चिंतक, विचारक और लेखक भी थे। उनका व्यक्तित्व व कृतित्व बहुआयामी था। समाजसेवा व राजनीति में लगे लोग आज भी उनसे प्रेरणा ले सकते हैं। उन्होंने निजी हित व सुख सुविधाओं का त्याग कर दिया था। व्यक्ति गत जीवन में उनकी कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं थी। उन्होंने अपना जीवन समाज और राष्ट्र को समर्पित कर दिया था। यही बात उन्हें महान् बनाती है। राजनीति में लगातार सक्रियता के बाद भी वे अध्ययन व लेखन के लिये समय निकालते थे। इसके लिये वह अपने विश्राम से समय कटौती करते थे। इसी में लोगों से मिलने जुलने और अनवरत यात्राओं का क्रम भी चलता था। आमजन के बीच रहना उन्हें अच्छा लगता था। शायद यही कारण था कि वह देश के आम व्यक्ति की समस्याओं को भलीभांति समझ चुके थे। यह विषय उनके चिंतन व अध्ययन में समाहित था। इनका वह कारगर समाधान भी प्रस्तुत करते थे। पं. दीनदयाल भविष्य द्रष्टा थे। भविष्य की समस्याओं को भी वह देख रहे थे। उनके प्रति वे सावधान करते हैं। उन्होंने उस समय की चर्चित विचारधाराओं या वाद पर गहनता से विचार किया था।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर 1916 को उत्तर प्रदेश की पवित्र ब्रजभूमि में मथुरा के पास नगला चंद्रभान नामक गाँव में हुआ था। उनके परदादा का नाम पंडित हरिराम उपाध्याय था, जो एक प्रख्यात ज्योतिषी थे। उनके पिता का नाम श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा मां का नाम रामप्यारी था। इनके बचपन में एक ज्योतिषी ने इनकी जन्मकुंडली देख कर भविष्यवाणी की थी कि आगे चलकर यह बालक एक महान् विद्वान एवं विचारक बनेगा, एक अग्रणी राजनेता और निस्वार्थ सेवाव्रती होगा, मगर ये विवाह नहीं करेगा। अपने बचपन में ही दीनदयालजी को एक गहरा आघात सहना पड़ा, जब सन 1934 में बीमारी के कारण उनके भाई की असामयिक मृत्यु हो गयी। उन्होंने अपनी हाई स्कूल की शिक्षा राजस्थान के सीकर में प्राप्त की। विद्याध्ययन में उत्कृष्ट होने के कारण सीकर के तत्कालीन नरेश ने बालक दीनदयाल को एक स्वर्ण पदक, किताबों के लिए 250 रुपये और दस रुपये की मासिक छात्रवृत्ति से पुरस्कृत किया।
दीनदयालजी ने अपनी इंटरमीडिएट की परीक्षा पिलानी में विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। तत्पश्चात वो बी.ए. की शिक्षा ग्रहण करने के लिए कानपुर आ गए जहां वो सनातन धर्मं कॉलेज में भर्ती हो गए। अपने एक मित्र श्री बलवंत महाशब्दे की प्रेरणा से सन 1937 में वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आए। उसी वर्ष उन्होंने बी.ए. की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद एम.ए. की पढ़ाई के लिए वो आगरा आ गए।
आगरा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता के नाते उनका परिचय श्री नानाजी देशमुख और श्री भाउ जुगडे से हुआ। इसी समय दीनदयालजी की बहन सुश्री रमादेवी बीमार पड़ गयीं और अपने इलाज के लिए आगरा आ गयीं। मगर दुर्भाग्यवश उनकी मृत्यु हो गयी। दीनदयालजी के लिए जीवन का यह दूसरा बड़ा आघात था। इसके कारण वह अपने एम.ए. की परीक्षा नहीं दे सके और उनकी छात्रवृत्ति भी समाप्त हो गयी।
अपनी चाचीजी के कहने पर दीनदयालजी एक सरकारी प्रतियोगितात्मक परीक्षा में सम्मिलित हुए। इस परीक्षा में वो धोती और कुरता पहने हुए थे और अपने सर पर टोपी लगाए हुए थे। अन्य परीक्षार्थी पश्चिमी ढंग के सूट पहने हुए थे। मजाक में उनके साथियों ने उन्हें ‘पंडितजी’ कह कर पुकारना शुरू कर दिया। उनको क्या पता कि आगे चलकर उनके लाखों प्रशंसक और अनुयायी आदर और प्रेम से उन्हें इसी नाम से पुकारने वाले थे। इस परीक्षा में भी उन्होंने प्रथम स्थान प्राप्त किया।
पंडित दीनदयालजी इसके बाद बी.टी. का कोर्स करने के लिए प्रयाग (इलाहाबाद) आ गए और यहाँ पर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से उत्तरोत्तर सम्पर्क दृढ़ होता गया। बी.टी. का कोर्स पूरा करने के बाद वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए पूर्णकालिक रूप से समर्पित हो गए और प्रचारक के रूप में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में आ गए। सन 1955 में वो अपने समर्पण के दम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक बन गए।
पंडित दीनदयालजी ने लखनऊ में राष्ट्र धर्म प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और यहाँ से ‘‘राष्ट्र धर्म’’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया।
सन् 1950 में डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया और देश में एक वैकल्पिक राजनीतिक मंच के सृजन के लिए संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से आदर्शवादी और देशभक्त नौजवानों को उपलब्ध कराने के लिए सहायता माँगी।
इस राजनीतिक घटनाक्रम में दीनदयालजी ने अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। दिनांक 21 सितम्बर, सन 1951, के ऐतिहासिक दिन उन्होंने उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक सम्मेलन का सफल आयोजन किया। इसी सम्मेलन में देश में एक नए राजनीतिक दल भारतीय जनसंघ की राज्य इकाई की स्थापना हुई। इसके एक माह के बाद 21 अक्टूबर, सन 1951, को डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ के प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की।
दीनदयालजी में संगठन का अद्वितीय और अद्भुत कौशल था। समय बीतने के साथ भारतीय जनसंघ की विकास यात्रा में वह ऐतिहासिक दिन भी आया जब सन 1968 में विनम्रता की मूर्ति इस महान् नेता को दल के अध्यक्ष के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। अपने महती उत्तरदायित्व के निर्वहन और जनसंघ के देशभक्ति का सन्देश लेकर दीनदयालजी ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया।
एकात्म मानव दर्शन और पंडित दीनदयाल उपाध्याय
दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन शाश्वत विचारधारा से जुड़ता है। इसके आधार पर वह राष्ट्रभाव को समझने का प्रयास करते हैं। समस्याओं पर विचार करते हैं। उनका समाधान निकालते हैं। यह तथ्य ही भारत के अनुकूल प्रमाणित होता है। ऐसे में पहली बात यह समझनी होगी कि अन्य विचारों के भांति दीनदयाल उपाध्याय ने कोई वाद नहीं बनाया। एकात्म मानव, अन्त्योदय जैसे विचार वाद की श्रेणी में नहीं आते। यह दर्शन है। जो हमारी ऋषि परंपरा से जुड़ता है। इसके केंद्र में व्यक्ति या सत्ता नहीं है। जैसा कि पश्चिम या वामपंथी विचारों में कहा गया है। इसके विपरीत व्यक्ति, मन, बुद्धि, आत्मा सभी का महत्व है। प्रत्येक जीव में आत्मा का निवास होता है। आत्मा को परमात्मा का अंश माना जाता है। यह एकात्म दर्शन है। इसमें समरसता का विचार है। इसमें भेदभाव नहीं है। व्यक्ति का अपना हित स्वभाविक है। लेकिन यही सब कुछ नहीं है। उपभोगवाद से लोक कल्याण संभव नहीं है। इसमें व्यक्ति का भी कल्याण नहीं है। यदि ऐसा होता तो भौतिकवाद की दौड़ में कभी तो व्यक्ति को संतोष मिलता। लेकिन ऐसा नहीं होता। मन कभी संतुष्ट नहीं होता। व्यक्ति प्रारंभिक इकाई मात्र है। लेकिन वह परिवार का हिस्सा मात्र है। परिवार का हित हो तो व्यक्ति अपना हित छोड़ देता है। समाज का हित हो तो परिवार का हित छोड़ देना चाहिये। देश का हित हो तो समाज का हित छोड़ देना चाहिये। राष्ट्रवाद का यह विचार प्रत्येक नागरिक में होना चाहिये। मानव जीवन का लक्ष्य भौतिक मात्र नहीं है। जीवन यापन के साधन अवश्य होने चाहिए। ये साधन हैं, साध्य नहीं है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का विचार भी ध्यान रखना चाहिये। सभी कार्य धर्म से प्रेरित होने चाहिये। अर्थात् लाभ की कामना हो, लेकिन का शुभ होना अनिवार्य है।
एकात्म मानव दर्शन की प्रासंगिकता सदैव रहेगी, क्योंकि यह शाश्वत विचारों पर आधारित है। दीनदयाल जी ने संपूर्ण जीवन की रचनात्मक दृष्टि पर विचार किया। उन्होंने विदेशी विचारों को सार्वलौकिक नहीं माना। यह तथ्य सामने भी दिखाई दे रहे हैं। भारतीय संस्कृति संपूर्ण जीवन व संपूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है। इसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़ों – टुकड़ों में विचार नहीं हो सकता। संसार में एकता का दर्शन, उसके विविध रूपों के बीच परस्पर पूरकता को पहचानना, उनमें परस्पर अनुकूलता का विकास करना तथा उसका संस्कार करना ही संस्कृति है। प्रकृति को ध्येय की सिद्धि हेतु अनुकूल बनाना संस्कृति और उसके प्रतिकूल बनाना विकृति है। संस्कृति प्रकृति की अवहेलना नहीं करती। भारतीय संस्कृति में एकात्म मानव दर्शन है। मानव केवल एक व्यक्ति मात्र नहीं है। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय व्यक्ति केवल एकवचन मैं तक सीमित नहीं है। समाज व समष्टि तक उसकी भूमिका होती है। राष्ट्र की भी आत्मा होती है। समाज और व्यक्ति में संघर्ष का विचार अनुचित है। राज्य ही सब कुछ नहीं होता। यह राष्ट्र का एकमात्र प्रतिनिधि नहीं होता। राज्य समाप्त होने के बाद भी राष्ट्र का अस्तित्व रहता है।
दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्र की आत्मा से लेकर जैविक खाद व व्यापार तक पर चिंतन करते हैं। उनके अध्ययन व मनन का दायरा कितना व्यापक था, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। उनका विचार था कि अर्थव्यवस्था सदैव राष्ट्रीय जीवन के अनुकूल होनी चाहिये। भरण, पोषण, जीवन के विकास, राष्ट्र की धारणा व हित के लिये जिन मौलिक साधनों की आवश्यकता होती है, उनका उत्पादन अर्थव्यवस्था का लक्ष्य होना चाहिये। पाश्चात्य चिंतन, इच्छाओं को बराबर बढ़ाने और आवश्यकताओं की निरंतर पूर्ति को अच्छा समझता है। इसमें मर्यादा का कोई महत्व नहीं होता। उत्पादन सामग्री के लिये बाजार ढूंढना या पैदा करना अर्थनीति का प्रमुख अंग है। लेकिन प्रकृति की मर्यादा को नहीं भूलना चाहिये। प्रकृति के साथ उच्छृंखलता का व्यवहार नहीं होना चाहिये। खाद्य सुरक्षा की बात तो अब सामने आई है, दीनदयाल जी ने इस पर बहुत पहले ही विचार कर लिया था। उनके अनुसार हमारा नारा यह होना चाहिये कि कमाने वाला खिलायेगा तथा जो जन्मा सो खायेगा। अर्थात् खाने का अधिकार जन्म से प्राप्त होता है। बच्चे, बूढ़े, रोगी, अपाहिज सबकी चिंता समाज को करनी पड़ती है। इस कर्तव्य के निर्वाह की क्षमता पैदा करना ही अर्थव्यवस्था का काम है। अर्थशास्त्र इस कर्तव्य की प्रेरणा का विचार नहीं कर पाता। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी अर्थव्यवस्था का न्यूनतम स्तर है।
एकात्म मानव-दर्शन में परस्पर निर्भरता की बात कही गई। सबको एक-दूसरे के साथ एकात्म मानकर विचार किया गया। व्यक्ति, परिवार, समाज, प्रदेश, देश, दुनिया और ब्रह्माण्ड सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, सबको एक तत्व जोड़ता है, सब परस्पर निर्भर हैं। इसलिए जब व्यक्ति एकात्म मानवदर्शन को आत्मसात कर व्यवहार करेगा, तब वह किसी को भी चोट नहीं पहुँचाएगा, बल्कि अधिक से अधिक रचनात्मक कार्यों में संलग्र रहेगा। इसलिए विचारकों का यह कहना उचित ही है कि पारिवारिक विघटन, मानसिक तनाव, अवसाद, प्रकृति का शोषण, प्राकृतिक आपदा, प्रदूषण, जल संकट और जीव प्रजातियों के विलोपन जैसे गंभीर संकटों का समाधान एकात्म मानवदर्शन में निहित है।
आज शिक्षा की व्यवस्था भी चिंता उत्पन्न करती है। एक तरफ महंगी शिक्षा है। इसका लाभ सीमित वर्ग उठा सकता है। दूसरी ओर जहां शिक्षा सस्ती है, उनकी दशा खराब है। वहां मूलभूत सुविधाएं भी नहीं हैं। शिक्षा व्यवसाय का रूप ले चुकी है। जिनका शिक्षा से कोई मतलब नहीं वह शिक्षण संस्थान के संचालक बन गये। दीनदयालजी को इसका भान था इसलिये उन्होंने कहा था कि शिक्षा समाज का दायित्व है। बच्चों को शिक्षा देना समाज के अपने हित में है। आज शिक्षा की भांति चिकित्सा की दशा है। यह भी व्यवसाय का रूप धारण कर रही है। दीनदयाल जी निःशुल्क चिकित्सा का सुझाव देते हैं। वह मानते थे कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था मानव का विकास करने में असमर्थ सिद्ध हुई है। इसके विरोध में समाजवादी अर्थव्यवस्था आई। यह भी विफल हुई। इसने पूंजी का स्वामित्व राज्य के हाथों में देकर संतोष कर लिया। दीनदयाल जी का अंत्योदय विचार आज भी प्रासंगिक है। भारत में अनेकवाद अपनाये गये। अब तो वैश्विकरण और उदारीकरण को भी लंबा समय हो गया। लेकिन अमीर व गरीब के बीच की खाई बढ़ी है। यह व्यक्तिवादी व उपभोगवादी चिंतन का भी परिणाम है। विकास हुआ, मगर असंतुलित है। सत्ता व समाज दोनों को जिम्मेदारी से काम करने की दीनदयालजी उपाध्याय प्रेरणा देते थे। समाज के सबसे निचले पायदान पर जो व्यक्ति है, उसके उत्थान का प्रयास प्राथमिकता से होनी चाहिये। भवन निर्माण में पहले छत नहीं बनायी जा सकती। निर्माण नींव से शुरू होता है। इसी प्रकार जब भवन की सफाई करनी होती है तो यह कार्य ऊपर से प्रारंभ होता है। फर्श का नंबर सबसे बाद में आता है। यह समाज और सत्ता दोनों पर लागू होने वाला विचार है।
इसी प्रकार दीनदयालजी ने ‘हर खेत को पानी, हर हाथ को काम’ का विचार दिया था। विडंबना देखिए आज सात दशक बाद भी यह समस्या बनी हुई है। यहां खेत में पानी का व्यापक अर्थ है। भारत कृषि प्रधान देश है। उन्नत खेती के लिए गंभीरता से प्रयास करने की आवश्यकता थी। खेती लाभप्रद होती, भंडारण बाजार की उचित व्यवस्था होती, तो गांव से शहर की ओर इतना पलायन नहीं होता। तब बड़ी संख्या में हमारे युवा कृषि कार्य में लगे होते। किसान तेजी से मजदूर बनते गए। उन्हें रोकने का कारगर प्रयास नहीं हुआ। शहर व गांव दोनों के बीच संतुलन स्थापित हो गया। विकास चाहे जितना हो जाए मगर हर हाथ को काम नहीं मिलेगा, तो भविष्य में सामाजिक स्तर पर गंभीर समस्याओं का सामना करना होगा। कृषि व उद्योग व्यापार का भी टकराव नहीं होना चाहिये। संतुलित विकास में दोनों का योगदान है। दीनदयाल उपाध्याय के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। इन्हीं के माध्यम से देश की वर्तमान समस्याओं का समाधान हो सकेगा।
हरीदत्त शर्मा