एक बालक था बिल्कुल मूर्ख। उसकी स्मरणशक्ति अत्यंत दुर्बल थी। अपने सहपाठियों में उसकी गिनती पीछे से शुरू होती थी यानि कक्षा में सबसे मंदबुद्धि। जब वे पांच वर्ष के थे तभी वे गुरुकुल शिक्षा के लिए आ गये। दस वर्ष बीत जाने के बाद भी वह मूर्ख ही बने रहे। सभी साथी उसका मजाक उड़ाते हुए उसे वरदराज (बैलों का राजा) कहा करते थे।
एक दिन गुरु जी ने निराश होकर उसे अपने पास बुलाया और कहा-‘बेटा वरदराज! तुम किसी और काम में ज्यादा सक्षम हो सकते हो। अपना समय नष्ट न करो और घर जाओ। कुछ और काम करो।’ गुरुदेव की इशारों वाली बातों से बालक को बहुत दुःख हुआ। उसे अपने आप पर ग्लानि होने लगी। उसने विद्या विहीन होने से अच्छा तो जीवन को ही नष्ट करना श्रेष्ठ समझा।
वह गुरुकुल से चला गया और आत्महत्या करने का उपाय सोचने लगा। रास्ते में उसे एक कुंआ दिखाई दिया। वहां महिलायें रस्सी से पानी निकाल रही थी। उसने देखा कि रस्सी की रगड़ से पत्थर पर निशान बन गये हैं। वरदराज ने सोचा कि जब इतना कठोर पत्थर कोमल रस्सी के बार-बार रगड़ने से घिस सकता है तब परिश्रम करने से मुझे विद्या क्यों नही प्राप्त हो सकती? उसने तत्काल आत्महत्या का विचार त्याग दिया और गुरुदेव के पास लौट आया। उसने गुरुदेव को कुछ दिन और रखकर शिक्षा देने की प्रार्थना की।
सरल हृदय गुरूदेव राजी हो गये। वरदराज ने मन लगाकर पढ़ना आरम्भ कर दिया। उसकी ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा इतनी तीव्र थी कि समय और भोजन का भान भी नहीं रहता था। यही वरदराज आगे चलकर संस्कृत के महान विद्वान बने। संस्कृत व्याकरण समझने में बहुत कठिन होती है इसका वरदराज को बखूबी अनुभव था। उसको सरल बनाने में उन्होंने ‘लघुसिद्धान्तकौमुदी’ की रचना की। पाणिनीय व्याकरण का संक्षिप्त सारांश इस ग्रन्थ में है। वरदराज की कहानी से एक लोकोक्ति प्रचलित हो गयी, जो कि हर बच्चे के लिए स्मरण रखने योग्य है-
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रस्सी आवत जात ते सिल पर परत निसान।।
लक्ष्य बापना