कर्मयोग का अर्थ अपने कर्म को पूरी एकाग्रता के साथ पूर्ण रूप से करना है और कोई भी कार्य पूर्णता के साथ तभी सम्भव है जब उसके साथ कुछ पाने की इच्छा न हो। उसका क्या परिणाम होगा। इस तरफ मन न ले जाकर पूरी एकाग्रता के साथ कर्म किया जाए। जब इंसान अपना कर्म बिना आसक्त हुए करता है तो मनुष्य की सारी शक्ति याँ केन्द्रीभूत होती हैं और एक आध्यात्मिक ऊर्जा उत्पन्न करती है और इस आध्यात्मिक ऊर्जा से जो ज्ञान प्राप्त होता है उससे मनुष्य सुख दुःख से पार होकर परम आनंद प्राप्त करता है।
कृष्ण भगवान ही नहीं महायोगी भी थे। महाभारत काल में जब अनीति चरम पर पहुँच चुकी थी तब भगवान कृष्ण ने अपने प्रिय सखा अर्जुन का साथ देकर कुरुक्षेत्र में रणबिगुल बजाया था। गीता के अध्याय चार में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है।
‘यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।’
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ। सज्जन पुरुषों के रक्षार्थ पाप कर्म करने वालों का समाप्त करने के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं युग-युग में यानी हर समय प्रकट होता हूँ।
कृष्ण ने तृतीय अध्याय में कर्मयोग को स्पष्ट किया है- हे अर्जुन जो व्यक्ति आसक्तिरहित होकर काम-भावना को वश में रख कर्म करता है वही सच्चा कर्म योगी है।
गीता में भगवान कृष्ण ने ज्ञान के मार्ग का रास्ता खोला है। जिसे आज का मानव मनन कर अपने उद्धार का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। गीता के कर्मयोग का सबसे महत्त्वपूर्ण श्लोक हैं
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।। (गीता 2046)
अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं ‘तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में नहीं। मनुष्य के कौन-से कर्म का क्या फल होगा और वह फल उसको किस जन्म में और किस प्रकार मिलेगा, इसका न तो उसको कुछ पता है और न वह अपने इच्छानुसार समय पर उसे प्राप्त कर सकता है और न ही वह उस कर्म के फल से बच सकता है। इसीलिए मनुष्य चाहता कुछ और है और होता कुछ और है। कर्मों के फल का विधान करना पूरी तरह विधाता के हाथ में है। इसलिए हे! अर्जुन तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।’
मानव जीवन के लिए कर्म करना अनिवार्य –
गीता में भगवान ने कर्म की अनिवार्यता बताते हुए कहा है कि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है क्योंकि कर्म न करने से सिद्धि मिलना तो दूर रहा शरीर का निर्वाह भी नहीं होगा और जीवन भी न चलेगा। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैंदृ
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्माणि।। (गीता 3022)
अर्थात्दृ ‘अर्जुन! मुझे ही देखो न, तीनों लोकों में मुझे कुछ भी करना नहीं है, और न कोई ऐसी वस्तु ही बाकी है, जो अब तक मुझे प्राप्त न हुई हो, तो भी मैं कर्म में प्रवृत्त होता हूँ।’ वेदों में भी कहा गया हैं ‘मनुष्य को कर्म करते हुए सौ वर्षों तक जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए।’
समस्त संसार कर्म का ही परिणाम –
संसार की कोई भी वस्तु चाहे वह चर हो या अचर निष्क्रिय नहीं रह सकती क्योंकि प्रकृति सबको कर्म में बांधे रखती है। कर्म के कारण ही कोई लता-बेल, तो कोई पशु-पक्षी, कोई राजा तो कोई रंक और कोई अपराधी या न्यायाधीश बनता है। यद्यपि नदी-नाले, पेड़-पौधे, पहाड़ आदि जड़ पदार्थ निष्क्रिय-से लगते हैं किन्तु सभी कर्मशील हैं। नदी-नाले अपना जल बहाकर संसार को जीवन प्रदान करते हैं, बीजों से निकला अंकुर वृक्ष बनकर संसार को छाया, फल आदि प्रदान करता है, पर्वत अपने घने बादलों से टकरा कर पृथ्वी को वर्षा का जल प्रदान करते हैं। जब जड़ पदार्थ भी इतने क्रियाशील हैं तो हाथ-पैर धारी मनुष्य की तो बात ही क्या है? मनुष्य जो कुछ करता है अर्थात् खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना- जागना, जीना-मरना सब क्रियाएँ ही हैं ।
कर्म बन्धन से छूटने का सरल उपाय –
जैसे सरोवर में कमलपत्र जलराशि से सदैव ऊपर उठे हुए उससे निर्लिप्त व अछूते रहते हैं। वैसे ही मनुष्य को सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित करके उनके कर्मफल व पाप-पुण्य से निर्लिप्त रहना चाहिए।
भगवान ने कहा है तुम आसक्ति छोड़कर निरन्तर कर्म करते रहो, कर्मों में कर्तापन का त्याग और फल की इच्छा का त्याग करने से मनुष्य मुझे अर्थात् मोक्षरूपी फल प्राप्त कर लेता है। यही ‘कर्म संन्यास’ है।
पश्चिम के अन्धानुकरण में गुम होता मनुष्यत्व –
आज हमारा जीवन आधुनिकता से परिपूर्ण है। आज मनुष्य का जीवन विज्ञान के भरपूर विकास के साथ जीवन की सभी उच्चकोटि सुविधाओं से परिपूर्ण लगता है। यदि हम पृथ्वी पर कुछ ऐसे विकसित देश या कुछ विकसित होने के करीब देशों की बात करें तो यहां के लोग सभी आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न हैं साथ ही उतने ही बेचैन एवं संताप से भरे हुए हैं, वो अपने जीवन में सुख सुविधाओं की चाहत में सुख और आनंद से उतना ही दूर होता जा रहा है। वर्तमान जीवन में दुःख, बेचैन एवं अवसाद के मूल कारण कर्मयोग के रहस्य को समझने से पहले हमें मनुष्य के मन के रहस्य को समझना होगा। यदि हम पूर्व के मानव विकास को देखें तो इन देशों में भौतिकतावादी विकास की बजाय, जो कि पश्चिम में आधार बना हुआ था इस प्रतिस्पर्धा के माहौल में उसे कुछ मिलता तो है लेकिन मानसिक संतोष नहीं मिल पाता और मनुष्य मानसिक रोगी होता चला जाता है। इसी बेचैनी का कारण घर के झगडे़, समुदाय के झगड़े और देश की सीमाओं की झगड़े हैं, जिनमें मनुष्य अपनी गुणवत्ता खोकर सम्पन्न होने की बजाय अधिक आशंकित और भयभीत नजर आता है और जिससे अभागे मनुष्य का कहीं संतुलन खो गया और वो अधूरा सा हो गया। पश्चिमी देशों ने मनुष्य के मन को न समझकर सिर्फ बाहर के एक के पहलू को ही देखा। आज जरूरत है मनुष्य के मन को समझने की।
यदि हम मनुष्य शब्द को गहराई से समझे तो मनुष्य का मतलब होगा… मन वाला। इस पृथ्वी पर जितना मन इंसान के पास है और किसी प्राणी के पास नहीं इसलिए जीवन की विकास यात्रा को इस पर काम करना एक अहम् हिस्सा बन जाता है अर्थात् आंतरिक यात्रा मन को समझना और बाहरी या विज्ञान के साथ विकास दोनों का संतुलन बनाते हुए मनुष्य एक ऐसी विकास यात्रा करके वहां पहुँच सकता है, जहां जीवन विषाद और भय से मुक्त आनंद की चरम सीमा को छू सकता है और यही वास्तविक विकास है।
विश्व में बढती जा रही है कृष्ण के जीवन दर्शन की उपादेयता
यदि हम श्री कृष्ण जी की गीता में अध्यात्म को देखें तो इसमें बहुत से मार्ग हैं जो मानवता को प्रगति की तरफ ले जाता है, जैसे ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्मयोग। गीता में जो कर्मयोग है, ये मार्ग एक ऐसा मार्ग है, जो बिना कुछ किये हुए अनायास ही मनुष्य से जुड़ा हुआ है। जरूरत है तो बस इसके रहस्य को नजदीक से समझने की और इसको समझकर अपने हर कार्य में अपनाने की, जिसकी सहायता से मनुष्य आध्यात्मिकता को प्राप्त करे और अपने कार्य को सम्पूर्णता देते हुए जब मनुष्य अपने मन को आध्यात्मिक बनाएगा तभी वह श्रेष्ठ कार्य कर पायेगा। कहने का अभिप्राय है कि अध्यात्म हमें सीधे मन से जोड़ता है।
इसके बाद का जो विकास होगा वह आसक्ति रहित मानवता का विकास होगा तथा व्यर्थ के दुःख और संतापों से रहित होगा क्योंकि उसने अपने मन को समाप्त कर लिया है और उसका प्रत्येक कार्य ही पूजा बन गया है। इसके बाद मनुष्य जितना अंदर की तरफ से शक्तिशाली होगा उतना ही बाहरी दुनिया की तरफ से विज्ञान के साथ मिलकर नई ऊंचाइयाँ छुएगा ।कहने का अभिप्राय है कि धर्म और विज्ञान के मिलन से एक नए मानव का जन्म होगा।
श्री कृष्ण के कर्मयोग की बढ़ती प्रासंगिकता –
आज मनुष्य सबसे ज्यादा कर्मशील है और श्रीकृष्ण की गीता जो कर्मयोग के माध्यम से कर्म के रहस्य को समझाती है, वह आज के वर्तमान जीवन में मनुष्य के लिए सबसे ज्यादा कारगर सिद्ध हो सकती है। ये हजारों साल पुराना ग्रन्थ हमें आज के आधुनिक जीवन में जीने के लिए नया दृष्टिकोण दे सकता है।
न ही कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।
अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है। मनुष्य अपना गुण धर्म (रज, तम् और सत्) के अनुसार फल पाता है और काम करता है। ये प्रकृति गुण उसमें परिवर्तनशील भी होते हैं। जब मनुष्य का मन प्राकृतिक गुणों के कारण विचलित होता है तो वो अपने काम को सम्पूर्णता से नहीं कर पाता और इसका मुख्य कारण है- हम लोग कार्य करते हुए उसके लाभ-हानि के विषय में सोचते हैं। अपने कार्य को सिर्फ फायदे के लिए करना। इन सब से मनुष्य अहंकार और प्रतिस्पर्धा की भावना से युक्त होकर कार्य करता है, जिसकी वजह से मनुष्य हमेशा चिंता ग्रस्त तथा भययुक्त रहता है कोई काम अपने आप में छोटा और बड़ा नहीं है। बस जरूरत है अपने कार्य को बिना उसमें आसक्त हुए करने की अर्थात् फल की चिंता न करते हुए उसमें अपना पूर्ण लगाना। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि- ‘‘मनुष्य के चरित्र का निर्माण उसके अच्छे या बुरे कर्मों से होता हैं।“
आज मनुष्य अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में अर्जुन की तरह लगा हुआ है। बस समझने की जरूरत है वो अपने काम को कैसे बिना आसक्त हुए अंजाम दे सकता है यानि कि बिना फल की चिंता किए हुए लाभ, हानि की व्यर्थ चिंता से दूर होकर काम करना जिससे आप एक अध्यात्म की तरफ अग्रसर होंगे और एक मानसिक स्वास्थ्य को पाकर जीवन में परम आनद को प्राप्त होंगे।
महाभारत युद्ध में जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को परिवार के प्रति मोह को त्याग कर युद्ध में संलग्न रहने को कहा, तब अर्जुन ने कहा- कि ‘हे केशव! यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म से श्रेष्ठ समझते हैं तो फिर आप मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हो?
क्योंकि अर्जुन अपने बंधु-बांधवों से बहुत प्यार करता था, अर्जुन यहां अपनी मोह और अहंकार वश अपने कर्म में लाभ और हानि की सोच रहा है तथा वह युद्ध से बचना चाहता था। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा –
न कर्मणा मनारम्भा नैष्कर्म्य पुरुषोश्नुते।
न च संन्यासनादेव सिद्धिम् समधिगछति ।।
अर्थात् न तो कर्म से विमुख होकर कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न केवल संन्यासी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है क्योंकि भौतिकतावादी मनुष्यों के हृदयों को पवित्र करने के लिए जिन कर्मों का विधान किया गया है, उसमें मनुष्य कर्म से विरत होने से मनुष्य नारायण के समान हो जाता है।
जितेन्द्रिय बनने को उद्यत हो –
जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती है उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है। विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से वह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।
जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को वश में तो करता है परन्तु जिसका मन इन्द्रिय विषयों का चिंतन करता रहता है; वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है। श्रीकृष्ण कहते है- वे मनुष्य सबसे बड़े धूर्त हैं जो अपने कार्य इन्द्रिय सुख के लिए करते हैं और वह जो अपने आप को योगी बताते हुए इन्द्रिय तृप्ति के विषयों की खोज में लगा रहता है। यह सर्वविदित है कि अच्छे या बुरे कर्मों के फल भी अलग-अलग होते हैं और कोई भी फल मनुष्य को बाँध देता लेता है। इसलिए श्रीकृष्ण चाहते थे- अर्जुन गृहस्थ रहते हुए एक सेनानायक के कर्तव्य को भी पूरा करे क्योंकि तुम्हारा धर्म लड़ना है और तुम इस कर्म को बिना फल की चिंता किये हुए पूरे संलग्न होकर करो तो तुम्हें भी ज्ञान प्राप्त होगा और सुख दुःख के पार होकर परम सत्ता का भोग करोगे।
‘‘वह व्यक्ति निष्ठावान है जो अपने मन के द्वारा इंद्रियों को वश में करता है और बिना आसक्ति के कर्मयोग करता है क्योंकि जो व्यक्ति स्वार्थ से रहित होकर अपने कर्म करता है वह अपने लक्ष्य को भी पार कर सकता है। एक गृहस्थ व्यक्ति भी अपने ईश्वर रुपी प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है और इस प्रकार के निष्ठावान व्यक्ति उस धूर्त व्यक्ति से कहीं अधिक श्रेष्ठ है, जो धार्मिक बनकर आध्यात्मिकता का आवरण को ओढ़कर जनता को ठगता है।’’
गीता में जब अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं- ‘हे भगवान सब उस परम सत्ता को पाने के अनेक मार्ग हैं जैसे ज्ञान और भक्ति भी तो आप मुझे इस युद्ध में क्यों धकेल रहे हैं?’ इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘हे अर्जुन! तुम क्षत्रियों में श्रेष्ठ हो और तुम्हारा धर्म है युद्ध लड़ना तुम इस काम को ही संलग्नता से कर पाओगे और यही तुम्हारे लिए उचित मार्ग है। इसी मार्ग से तुम उस परम सत्ता तक पहुँच सकते हो चलो उठो और युद्ध करो तुम बिना फल की चिंता किए हुए युद्ध करो। इसी में तुम्हारा हित छिपा है तुम ये मत सोचो कौन मेरा संगी साथी है कौन पारिवारिक सदस्य है? ये मत सोचो कि इनको मारकर मुझे सत्ता भोगने का क्या मजा आएगा। तुम युद्ध के बाद होने वाले लाभ हानि की व्यर्थ चिंताओं में न पड़ो तुम बिना आसक्त हुए अपना कार्य करो और तुम जो चाह रहे हो उस परम ज्ञान को प्राप्त करना तो वो इसी मार्ग से प्राप्त होगा।
आज वर्तमान जीवन में मनुष्य को जरूरत है- भीतर और बाहर दोनों का संतुलन बनाने की मनुष्य अपना ये संतुलन रोजमर्रा के काम करते हुए प्राप्त कर सकता है और अपने आप को रूपांतरित कर सकता है और अहंकार, लोभ, जलन से दूर होकर एक नया मनुष्य बन सकता है। फिर उसका हर कर्म पूरी मानव जाति के लिए समृद्धि लाएगा। मनुष्य अपनी सारी बाहरी नई सुविधाओं के साथ आनंदमय नजर आएगा और आज की समस्याएं जैसे साम्प्रदायिक दंगे, युद्ध, पारिवारिक झगडे़ आदि समस्याओं से दूर होकर एक नया विकास होगा। बस जरूरत है अपने कार्य को आसक्त हुए बिना करके उसे श्रेष्ठ बनाने की।
श्रीकृष्ण का चरित्र सर्वज्ञ हैं, वे ही शास्त्र द्वारा मनुष्य को यह प्रेरणा देते हैं कि वह सत्कर्म करे और पाप से बचे। श्रीकृष्ण के चरित्र और दर्शन से स्पष्ट है कि मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार कर्म करने मे स्वतंत्र है और यह स्वतंत्रता सर्वज्ञ ईश्वर की सृष्टि में पहले से ही मौजूद है। मनुष्य कर्म करने के स्वतंत्र है, इसका अनुमोदन करते हुए श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो न्यायोचित कर्तव्य है, उसके लिए चेष्टा करना सभी के लिए उचित है। प्रकृति ने स्वयं मनुष्य का स्वभाव ऐसा बना दिया है कि वह कर्म किए रह ही नहीं सकता। गीता में एक वाक्य आया है कि ‘न हि कश्चित क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्’। अर्थात् मनुष्य का स्वभाव उसे चुपचाप बैठने नहीं देगा। भगवान ने पहले से निश्चय कर रखा है-यह विचार कर कोई भी हाथ-पर-हाथ धरे बैठा रह सके, यह संभव नहीं है। उसकी प्रकृति उसे कर्म में लगा देगी। श्रीकृष्ण कहते हैं जब मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार कार्य में लगेगा, बस यहीं से योग का उदय होगा और वह कर्मयोग बन जाएगा।।