एक गांव में एक आदमी रहता था। वह मिट्टी की मूर्तियाँ बनाया करता था। उसकी बनाई मूर्तियाँ सुंदर होती थी इसलिए वह बाजार में आसानी से बिक जाती थी। अच्छे दिन थे। उस का गुजारा मजे में हो रहा था। जब उसका लड़का बड़ा होने लगा तो बाप ने बेटे के हाथ का हुनर देखकर उसे भी मूर्ति बनाने का काम सिखा दिया। अब बाप और बेटे दोनों मूर्तियाँ बनाने लगे। बेटे का हाथ बाप से ज्यादा साफ था। वैसे भी नवयुवक होने के कारण वह अधिक चुस्त और फुर्तीला था। उसकी मूर्तियाँ अपने पिता से अच्छी बनने लगी। शुरु में तो उसकी बनाई मूर्तियाँ उसी दाम में बिकती थी जितने में उसके पिता की। लेकिन पिता की झिडकियाँ खाने के बाद और अधिक ध्यान से काम करने के कारण उसकी बनाई मूर्तियाँ अपने पिता से अधिक दाम में बिकने लगी। जहाँ उसके पिता की मूर्ति बिकती 7 रुपए में, बेटे की बिकती 10 रूपये में।
लेकिन इस पर भी उसके पिता की डाँट डपट और झिड़कियाँ कम नहीं हुई। वह बेटे की बनाई हुई मूर्तियों में दोष निकालता रहता। बेटे ने मूर्तियाँ बनाने की ओर अधिक ध्यान दिया। वह बहुत मेहनत से मूर्तियाँ बनाने लगा। अब बेटे की मूर्तियाँ अधिक तरासी हुई होने के कारण बाजार में उनका दाम भी बढ़ गया। बाप की बनाई मूर्तियाँ 7 रूपये में बिकती रही जबकि बेटे की बनाई मूर्ति की कीमत बढ़कर 12, 15 और 20 रूपये तक पहुँच गई मगर बाप को संतोष नहीं हुआ वह बेटे की बनाई मूर्ति में दोष निकालता रहा।
‘‘यह आँख दूसरी आँख से अधिक बड़ी बन गई, कंधों की गोलाई बराबर नहीं है, कोने अच्छे से नहीं तरासे है’’
इस तरह से वह उसकी बनाई मूर्तियों में तरह तरह के दोष निकालता रहता।
एक दिन बेटे ने जलकर कहा- ‘‘पापा! तुम मेरी बनाई मूर्ति में दोष निकालते हो तुम्हारी खुद की बनाई मूर्तियाँ दोषों से
भरी हुई है। मैं तुम्हारी मूर्ति में 20 दोष निकाल सकता हूँ। अब देख लो तुम्हारी बनाई मूर्ति अभी तक 7 रूपये रुपए में ही बिकती है और मेरी बनाई मूर्ति के लिए लोग 20 रूपये आसानी से दे जाते हैं। मेरे ख्याल से मेरी मूर्तियों में दोष नहीं होता। इतनी सजी-सँवरी होती है कि अब उनमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं होती।’’
पुत्र की यह बात सुनकर उसका पिता उदास हो गया। दुखी स्वर में वह बोला- “बेटे मुझे यह बात मालूम है। लेकिन तेरे मुँह से यह बात सुनकर मुझे लगने लगा है कि अब तुझे तेरी मूर्तियों के लिए 20 रूपये से अधिक कभी नहीं मिलेंगे।”क्यों?’’ -बेटे के स्वर में आश्चर्य था।
बेटे की ओर देखते हुए बाप बोला- क्योंकि जब मूर्तियों को बनाने वाले कलाकार को यह लगने लगता है कि उसके काम में निखार आ गया है और उसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं रही है तो मान लेना कि उसका विकास रुक गया है कलाकार का संतोष उसकी प्रगति को यूँही रोक देता है। एक दिन मुझे भी अपने काम से संतोष हो गया था और आज तक मुझे इन मूर्तियों की कीमत कभी 7 रुपए से अधिक नहीं मिली।
बेटा लज्जित हो गया और उसका सिर शर्म से झुक गया।
शिक्षाः इस कहानी से यह सीख मिलती है कि व्यक्ति को कभी संतुष्ट नहीं होना चाहिए तथा उसे लगातार अपने कार्य को और अच्छी तरह से निखारना चाहिए।
अथर्व जोशी