जब हम स्वतंत्रता सेनानियों को याद करते हैं तब हमें काला पानी की सजा भी याद आ जाती है। उस वक्त के लोगों के काला पानी नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते थे, हालांकि अब देश में काला पानी की सजा का कोई अस्तित्व नहीं रह गया है।
इस सेल्युलर जेल को काला पानी की जेल इसलिए कहा जाने लगा क्योंकि ये जगह भारत की भूमि से हजारों किलोमीटर दूर थी। यह क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में आता है, इस जेल में जिन कैदियों को रखा जाता था उन्हें पूरी तरह अलग-अलग रखा जाता था। अंग्रेजों का अलग रखने का मकसद यह भी था कि सारे कैदी अलग रहेंगे तो वह कोई स्वतंत्रता संग्राम की रणनीति नहीं बना पाएंगे और अकेलापन रहेगा तो वह अंदर से टूट जाएंगे और सरकार की बात उनको मजबूरन मानना ही पड़ेगी।
ऐसे में किन परिस्थितियों में इन देशभक्त क्रान्तिकारियां ने यातनाएँ सहकर आजादी की अलख जगाई वह सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते है । सेल्यूलर जेल में बन्दियां को हर दिन कोल्हू (घाणी) में बैल की भांति घूम घूमकर 20 पौंड नारियल का तेल निकालना पड़ता था। इसके अलावा प्रतिदिन 30 पौंड नारियल की जटा कूटने का भी कार्य करना होता। काम पूरा न होने पर बेंतो की मार पडती। टाट का घुटन्ना और बनियान पहनने को दिए जाते थे, जिससे पूरा दिन रगड़ खाकर शरीर और भी चोटिल हो जाता था। अंग्रेजां की नाराजगी पर नंगे बदन पर कोड़े बरसाए जाते थे। इस जेल मे कैदियों के साथ बहुत ज्यादा अत्याचार किया जाता था और यातना भरा काम और पूरा न होने पर कठोर दंड दिया जाता था। खराब व्यवस्था, जंग और काई लगे टूटे-फूटे लोहे के बर्तनों में गंदा भोजन जिसमें कीड़े मकौड़े होते थे, पीने के लिए बस दिन भर दो डिब्बा गंदा पानी, पेशाब-शौच तक पर बंदिशें झेलनी पड़ती थी।
भय पैदा करने के लिए क्रान्तिकारी बन्दियों को फांसी के लिए ले जाते व्यक्ति को तथा उसे फांसी पर लटकते देखने के लिए विवश किया जाता था। वीर सावरकर को तो जान बूझकर फांसीघर के सामने वाले कमरे में ही रखा गया था। फांसी के बाद मृत शरीर को समुद्र में फेंक दिया जाता था।