रानी चेन्नम्मा का जन्म सन् 1778 में काकतीय राजवंश में हुआ था। चेन्नम्मा के पिता का नाम घुलप्पा देसाई और माता का नाम पद्मावती था। चेन्नम्मा के माता पिता दोनों सद्गुण संपन्न वीर और देशभक्त थे। बालिका चेन्नम्मा बचपन में बडी सुंदर और गुणवान थी। बच्ची के रूप और सुंदरता के कारण ही बच्ची का नाम चेन्नम्मा रखा गया था। चेन्नम्मा का अर्थ होता है जो देखने में अति सुंदर हो। माता पिता भी सुंदर और गुणवान पुत्री पाकर हर्ष से फूले नहीं समाते थे। धीरे धीरे जब पुत्री बड़ी होती गई तो उसकी शिक्षा दीक्षा पर भी ध्यान दिया गया। चेन्नम्मा ने कन्नड, उर्दू, मराठी और संस्कृत भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। इसके साथ साथ वह घुड़सवारी और शस्त्र विद्या का भी अभ्यास करती थी। बारह तेरह साल की अवस्था में ही चेन्नम्मा शस्त्र विद्या और घुड़सवारी में निपुण हो चुकी थी।
चेन्नम्मा जब विवाह योग्य हुई तो उनका विवाह कित्तूर के राजा मल्लसर्ज के साथ कर दिया गया। उन दिनों कित्तूर का राज्य बडा वैभवशाली था। राज्य मे बहत्तर किले और तीन सौ अठ्ठावन गांव थे। कित्तूर व्यापार का बहुत बडा केंद्र था। वहा सोने-चांदी, हीरे जवाहरातों का बहुत बड़ा बाजार था। दूर दूर से व्यापारी वहां माल खरीदने और बेचने आते थे। खेती भी बहुत अच्छी होती थी। प्रतिवर्ष धान की फसल इतनी अच्छी होती थी कि खाने और खर्च करने के बाद भी काफी मात्रा में बच भी जाता था। राजा मल्लसर्ज बड़े वीर स्वाभिमानी और दयालु थे। वह किसी को दुःख नही देते थे प्रजा की सुख सुविधाओं का हमेशा ख्याल रखते थे। वे विद्या और कला प्रेमी भी थे। उनके दरबार में भांति भांति कलाओं के पंडित रहते थे। जिन्हें जीवन निर्वाह के लिए राज्य की ओर से वेतन मिलता था।
राजा मल्लसर्ज ने दो विवाह किए थे। उनकी बड़ी रानी का नाम रूद्रम्मा था। तथा छोटी रानी चेन्नम्मा थी। राजा दोनों रानियों का समान आदर व सम्मान करते थे। दोनों रानियों ने एक एक पुत्र को जन्म दिया था। परंतु दुर्भागयवश रानी चेन्नम्मा के पुत्र की मृत्यु बाल अवस्था में ही हो गयी थी।
राजा मल्लसर्ज कित्तूर को एक वैभवशाली राज्य बनाना चाहते थे। परंतु उनकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी। पूना के पटवर्धन ने उनके साथ विश्वासघात करके उन्हें बंदी बना लिया। बंदी जीवन में ही राजा मल्लसर्ज की मृत्यु हो गई।
राजा की मृत्यु के बाद रानी चेन्नम्मा ने रानी रूद्रम्मा के पुत्र शिवलिंग रूद्रसर्ज को गोद ले लिया।। वे उसमें मातृप्रेम को केंद्रित करके उसका पालन पोषण करने लगी। उसके पालन पोषण और प्रेम में चेन्नम्मा अपने सारे दुखों को भूल गई।
उन दिनों अंग्रेजी अफसर लार्ड डलहौजी देशी रियासतां को अंग्रेजी राज्य में मिलाने में लगा हुआ था। वह बड़ा कूटनीतिज्ञ व चालाक था। वह किसी भी दत्तक पुत्र को वास्तविक उत्तराधिकारी नहीं मानता था। इस तरह के राज्यां को वह बिना वारिस का मान हड़पता जा रहा था। कित्तूर राज्य की स्वतंत्रता भी उससे सहन नहीं होती थी। उसके वैभव पर वह अपनी नजरें गड़ाये बैठा था। अतः उसने रानी चेन्नम्मा के दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया। डलहौजी ने धारवाड़ के कलेक्टर को इस आशय की सूचना दे दी। कलेक्टर ने चेन्नम्मा को सूचित कर दिया।
परंतु रानी चेन्नम्मा के ऊपर कलेक्टर थैकरे की सूचना का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। थैकरे ने चेन्नम्मा को बहुत से प्रलोभन दिए, धमकी भी दी, परंतु फिर भी चेन्नम्मा अंग्रेजां की धमकी से जरा भी नही घबराई। चेन्नम्मा ने थैकरे को उत्तर दिया- ‘‘मैं कित्तूर राज्य की स्वतंत्रता को बेचने की अपेक्षा रणभूमि में मर जाना अच्छा समझती हूँ।’’
उन्ही दिनों मल्लपा शेट्टी और वैंकटराव नामक दो देशद्रोही थैकरे से जा मिले। उन्होंने थैकरे से कहादृ वह हर क्षेत्र मे उसकी सहायता करेगें। थैकरे ने भी उन्हे वचन दिया कि वह कित्तूर का आधा राज्य उन्हें दे देगा। वैंकटराव ने उन्हें समझाया जब तक चेन्नम्मा जीवित है उनकी दाल कित्तूर में नहीं गलेगी। अतः चेन्नम्मा को या तो किसी प्रकार मार दिया जाए या फिर बंदी बना लिया जाए। चेन्नम्मा अंग्रेजों की चाल से परिचित थी। वह बिलकुल भी नहीं घबरायी। इसका कारण यह था कि उनके दरबार में गुरू सिद्दप्पा जैसे अनुभवी दीवान और बालण्ण, रायण्ण, गजवीर तथा चेन्नवासप्पा जैसे वीर योद्धा थे। जिनके रहते रानी के मन में भय पैदा होने का कोई सवाल ही नही उठता था। रानी चेन्नम्मा ने अपने दीवान से परामर्श करके थैकरे को पत्र द्वारा सूचित किया कि- ‘‘चित्तूर एक स्वतंत्र राज्य है। यह सदा स्वतंत्र ही रहेगा। यदि आवश्यकता पड़ी तो हम कित्तूर की स्वतंत्रता के लिए युद्ध भी करेंगे। हम अंग्रेजों का गुलाम होने की अपेक्षा मृत्य की गोद में सोना पसंद करेंगे।’’ रानी के उत्तर से थैकरे क्रोधित हो गया। वह युद्ध के लिए तैयारियां करने लगा। उधर रानी भी बेखबर न थी वह भी गांव गांव घूमकर जनता को जगाने लगी कि-अंग्रेज हमारी मातृभूमि कित्तूर को अपना गुलाम बनाना चाहते हैं। पर हम उनके इस मंसूबे को पूरा नहीं होने देंगे। हम कित्तूर के लिए युद्ध करेंगे और अपनी अंतिम सांस तक अपनी मातृभूमि की रक्षा करेगें।
चेन्नम्मा के प्रयासो से पूरा कित्तूर जाग उठा। जनता ने तन मन धन से चेन्नम्मा की बहुत सहायता की। जिसके फलस्वरूप कित्तूर राज्य की एक बड़ी सेना तैयार हो गयी। तरह तरह के हथियार एकत्र हो गए। उधर थैकरे तो पहले से ही तैयार बैठा था। जब उसे रानी की गतिविधियों का पता चला तो वह और बड़ी सेना लेकर कित्तूर जा पहुंचा।
23 सितंबर 1824 को थैकरे की सेना और रानी चेन्नम्मा की सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ।
रानी ने स्वयं बड़ी वीरता और कुशलता के साथ अपनी सेना का संचालन किया। उन्हांने अपने सैनिकां को प्रोत्साहित करते हुए कहा कि- ‘‘कन्नड़ माता के वीर सपूतां’’ देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ते लड़ते मर जाओ। पर देश को गुलाम नहीं होने देना। आज मातृ भूमि तुम्हें अपनी रक्षा के लिए पुकार रही है। तुम्हें अपनी माटी का कर्ज अदा करना है।
रानी चेन्नम्मा की इस पुकार का परिणाम यह हुआ कि चेन्नम्मा के सैनिक काल का अवतार बन गए। उन्होंने इतनी वीरता से युद्ध किया कि अंग्रेज सेना के पैर उखड़ गए और अंग्रेज सेना भाग खड़ी हुई। स्वयं थैकरे ने भी धारवाड़ में जाकर सांस ली। पर थैकरे ने हारकर भी हार नहीं मानी। उसकी सहायता के लिए नई सेना आ पहुंची। उसने नई सेना के साथ दूसरी बार पुनः कित्तूर पर आक्रमण किया। चेन्नम्मा के सैनिकां ने दूसरे आक्रमण में भी अंग्रेज सेना के छक्के छुड़ा दिए। पर अंग्रेज कित्तूर का पीछा छोड़ने वाले नहीं थे। उन्होने तीसरी बार एक बहुत बडी सेना के साथ कित्तूर पर आक्रमण किया। रानी चेन्नम्मा ने तीसरी बार भी युद्ध में बड़ी वीरता से अंग्रेजों का सामना किया, परंतु इस बार उनकी सेना अंग्रेज सेना के मुकाबले बहुत कम थी। बार बार युद्द के कारण इस बार उनके पास साधनों की भी कमी थी। जिसका परिणाम यह हुआ कि तीसरे युद्ध में चेन्नम्मा की सेना को हार का सामना करना पड़ा।
दिसम्बर 1824 ई. में रानी चेन्नम्मा को बंदी बना लिया गया। उन्हें कैद कर बेलहोंगल किले में रखा गया और 21 फरवरी, 1829 ई. को जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई। कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व रानी चेन्नम्मा काशीवास करना चाहती थी पर उनकी यह चाह पूरी न हो सकी थी। यह संयोग ही था कि रानी चेनम्मा की मौत के छः वर्ष बाद काशी में ही लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। इतिहास के पन्नों में अंग्रेजों से लोहा लेने वाली प्रथम वीरांगना कित्तूर की रानी चेन्नम्मा को ही माना जाता है।