बात साल 1978 की है, जब जर्मनी की एक युवती भारत घूमने आई थी, उसके पिता भारत में जर्मनी के राजदूत थे। युवती का नाम फ्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग था जो देश के कई हिस्सों को घूमते हुए कृष्ण की धरती मथुरा वृंदावन पहुंच गई। जहां उसकी दुनिया बदल गई, नाम बदल गया, धर्म बदल गया, अब वो सुदेवी दासी के नाम से जानी जाती हैं। उनका एक और नाम भी है, ‘‘हजार बछड़ों की मां।“ मथुरा में गोवर्धन परिक्रमा करते हए राधा कुंड से कौन्हाई गाँव की तरफ आगे बढ़ने पर गाय-बछड़ों के रंभाने की आवाज़ आती है। यहां पर धुंधले अक्षरों में सुरभि गौसेवा निकेतन लिखा है। ये वही जगह है जहां इस वक्त करीब 1800 गाय और बछड़े रखे गए हैं। देश की दूसरी गोशालाओं से अलग यहां की गाय ज्यादातर विकलांग, चोटिल, अंधी, घायल और बेहद बीमार हैं। इस गोशाला की संचालक सुदेवी दासी हैं। सुदेसी दासी 40 साल पहले टूरिस्ट वीजा पर भारत घूमने आईं थीं, फिर मथुरा में एक घायल गाय को देखकर वो उसे बचाने में जुट गईं। इसके बाद गोसेवा उनके जीवन का अभिन्न अंग हो गया। वो पिछले चार दशकों में हजारों गायों को नया जीवन दे चुकी हैं।
सुदेवी दासी कहती हैं, ‘‘एक गाय से इस काम की शुरुआत हुई। कोई गाय बीमार हो जाती है, किसी की टांग टूट जाती
है तो कोई सेवा करने वाला नहीं होता। मैंने उसी गाँव एक गाय से इस काम की शुरुआत की। फिर 10 गाय हुईं तो वो जगह कम पड़ गई। अब मथुरा में ये किराए पर जगह ली है, यहां पर 1800 गायों की सेवा हो रही है।“ जर्मनी की मूल निवासी फ्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग ने अपने देश से 7000 किलोमीटर दूर मथुरा में नया धर्म अपना लिया है। वो संन्यासियों सा जीवन जीती हैं। भगवान का भजन करती हैं और गायों की सेवा। इसके लिए उन्होंने कौन्हाई गाँव में 3 एकड़ जमीन किराए पर ली है। सुरभि गौसेवा निकेतन में आसपास कई जिलों से चोटिल, बीमार गाय और बछ़डे और गोवंश लाए जाते हैं। डॉक्टरों और सेवकों की टीम उनका इलाज करती है। ‘‘हमारे पास संसाधन बहुत कम हैं। रखने के लिए जगह भी पर्याप्त नहीं है। लेकिन कोई चोटिल गाय लेकर आ जाता है तो हम मना भी नहीं कर पाते। कई गाय इलाज के दौरान मर भी जाती हैं। हमने 9 लोगों को गायों की सेवा के लिए रखा है। जितना खर्च है उतना पैसा नहीं मिल पाता। काफी लोग डोनेशन देते हैं लेकिन सरकार से कोई मदद नहीं मिलती,“ सुदेवी दासी बताती हैं। वर्तमान में इस समय यहां पर 200 दृष्टिहीन, 600 से ज्यादा बछड़े और बैल हैं। गायों के इलाज और चारे-पानी के लिए न्यूनतम मेहनताने पर लोग तैनात किए गए हैं, जबकि कई लोग स्वयं सेवा भी करते हैं। सुरभि गौसेवा निकेतन में पिछले 9 वर्ष से काम कर रहे उमेश बघेल एक गाय के टूटे पैर को बताते हुए कहते हैं, ‘‘मथुरा में इस गाय को एक डंपर ने टक्कर मार दी थी, हमें फोन आया तो एंबुलेंस लेकर गए, इसे लाए। पैर टूट गया था।
यहां पर ज्यादातर गायें ऐसी ही होती हैं। तमाम गायें पुलिस और ग्रामीणों द्वारा गोकशों से छुड़ाई गई होती हैं। तो कुछ को किसान भी नुकीले हथियार मारकर घायल कर देते हैं, यहां सबका इलाज होता है।’’ गोशाला के एक अन्य कर्मचारी रामवीर कहते हैं, ‘‘हम यहां 15 सालों से काम कर रहे हैं। हमारी दीदी (सुदेवी दासी) को गायों से बहुत लगाव है। वो खुद उन्हें दवा देती हैं और सेवा करती हैं।“ फ्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग का नाम वर्ष 2019 की शुरुआत में एक बार सुर्खियों में तब आया जब भारत सरकार ने इस वर्ष के लिए देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में एक पद्म पुरस्कार की सूची में उनका नाम था। गायों के सेवा के लिए उन्हें पद्मश्री सम्मान दिया गया है। इरीना का काम इसलिए भी सराहनीय है क्योंकि पश्चिमी यूपी के इसी हिस्से में गायों को लेकर पिछले कुछ वर्षों से लगातार हंगामा मचा रहा है। भारत में गाय के चलते कई लोगों की जान गई है, सियासत हुई है।
लेकिन जिस देश एक बड़ा वर्ग गाय को माता बुलाता है, वहां पर गायों की दशा भी किसी से छिपी नहीं है। अपनी बाचतीत में इरीना अक्सर भारत में गायों की दशा पर भी बात करती हैं कि कैसे भारत में दूध न देने वाली गायों को छोड़ दिया जाता है। वो बताती हैं, ‘‘भारत में प्रवास के दौरान मुझे जीवन में आगे बढ़ते हुए ये अहसास हुआ कि आप को एक गुरु की जरुरत होती है। मैं उसी की तलाश में राधाकुंड गई थी। एक पड़ोसी के कहने पर खुद भी गाय की सेवा शुरु की। बाद में बीमार गायों की सेवा करने लगी। मैंने गायों पर कई किताबें खरीदी और हिंदी सीखी।’’ फ्रेडरिक इरीना ब्रूनिंग से सुदेवी दासी बनी वे खुद को हजार बछड़ों की मां कहलाना भी पसंद करती हैं। उनकी गौशाला में काम करने वाले भी उन्हें के रंग में रंगे नजर आते हैं। गौशाला की कई परंपराएं मानवता का पाठ पढ़ाती हैं।
गौशाला में दूध नहीं बेचा जाता है। कई बार जिन बछड़ों की मां मर जाती हैं, उनके लिए दूध बाहर से खरीद कर आता है। दूसरा जब कोई गर्भवती गाय बच्चा देती है तो पांच दिन बाद उसके दूध से जो खीर बनती है, उससे सबसे पहले ग्वालिया का भोग लगाया जाता है। ग्वालिया वो व्यक्ति होता है तो इन गायों की सेवा करता है। गौशाला के कर्मचारी बताते हैं, गोशाला में हम गायों को रामनाम भी सुनाते हैं। मरणासन्न गाय के मुंह में गंगा जल भी डालते हैं। हम अंत तक कोशिश करते हैं गाय बच जाए और खुद के पैरों पर चलने लगे।
तरुण शर्मा