श्रीकृष्ण को हम महान् क्रांतिचेता नायक के रूप में स्मरण करते हैं। वे दार्शनिक, चिंतक, गीता के माध्यम से कर्म और सांख्य योग के संदेशवाहक और महाभारत युद्ध के नीति निर्देशक थे किंतु सरल-निश्छल ब्रजवासियों के लिए तो वे रास रचैया, माखन चोर, गोपियों की मटकी फोड़ने वाले नटखट कन्हैया और गोपियों के चितचोर थे। गीता में इसी की भावाभिव्यक्ति है- हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस भावना से भजता है, मैं भी उसको उसी रूप में सुलभ हो जाता हूँ।
योगेश्वर श्रीकृष्ण हमारी संस्कृति के एक अद्भुत एवं विलक्षण महानायक हैं। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसकी तुलना न किसी अवतार से की जा सकती है और न संसार के किसी महापुरुष से।
श्रीकृष्ण ने मनुष्य जाति को नया जीवन-दर्शन दिया। जीने की शैली सिखलाई। उनकी जीवन-कथा चमत्कारों से भरी है, लेकिन वे मानवी सभ्यता के जितने करीब लगते हैं, उतना और कोई नहीं। वे ईश्वर हैं पर उससे भी पहले सफल, गुणवान और दिव्य मनुष्य है। ईश्वर होते हुए भी सबसे ज्यादा मानवीय लगते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण को मानवीय भावनाओं, इच्छाओं और कलाओं का प्रतीक माना गया है। वे अर्जुन को संसार का रहस्य समझाते हैं, वे कंस का वध करते हैं, लेकिन उनकी छवि एक सखा की है जिसे यमुना के किनारे ग्वालों के साथ शरारत या गोपियों के साथ रास रचाते देखा जाता है।
श्रीकृष्ण सच्चे अर्थों में लोकनायक हैं, जो अपनी दैवीय शक्तियों से द्वापर के आसमान पर छा नहीं जाते, बल्कि एक राहत भरे अहसास की तरह पौराणिक घटनाओं की पृष्ठभूमि में बने रहते हैं। दरअसल, श्रीकृष्ण में वह सब कुछ है जो मानव में है और मानव में नहीं भी है! वे संपूर्ण हैं, तेजोमय हैं, ब्रह्म हैं, ज्ञान हैं। इसी अमर ज्ञान की बदौलत उनके जीवन-प्रसंगों और गीता के आधार पर कई ऐसे नियमों एवं जीवन-सूत्रों को प्रतिपादित किया गया है, जो आज के घोर कलयुग में भी लागू होते हैं। जो छल और कपट से भरे इस युग में धर्म के अनुसार किस प्रकार आचरण करना चाहिए, किस प्रकार के व्यवहार से हम दूसरों को नुकसान न पहुँचाते हुए अपना फायदा देखें, इस तरह की सीख देते हैं।
श्रीकृष्ण का चरित्र एक लोकनायक का चरित्र है। वह द्वारकाधीश भी है किंतु कभी उन्हें राजा श्रीकृष्ण के रूप में संबोधित नहीं किया जाता। वे तो ब्रजनंदन है। समाज व्यवस्था उनके लिये कर्तव्य थी, इसलिए कर्तव्य से कभी पलायन नहीं किया तो धर्म उनकी आत्मनिष्ठा बना, इसलिए उसे कभी नकारा नहीं। वे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों की संयोजना में सचेतन बने रहे।
वास्तव में श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व भारतीय इतिहास के लिए ही नहीं, विश्व इतिहास के लिए भी अलौकिक एवम् आकर्षक है और सदा रहेगा। उन्होंने विश्व के मानव मात्र के कल्याण के लिए अपने जन्म से लेकर निर्वाण पर्यन्त अपनी सरस एवं मोहक लीलाओं तथा परम पावन उपदेशों से अंतः एवं बाह्य दृष्टि द्वारा जो अमूल्य शिक्षण दिया था वह किसी वाणी अथवा लेखनी की वर्णनीय शक्ति एवं मन की कल्पना की सीमा में नहीं आ सकता।
यूं लगता है श्रीकृष्ण जीवन-दर्शन के पुरोधा बनकर आए थे। उनका अथ से इति तक का पूरा सफर पुरुषार्थ की प्रेरणा है। उन्होंने उस समाज में आँखें खोलीं जब निरंकुश शक्ति के नशे में चूर सत्ता मानव से दानव बन बैठी थी। सत्ता को कोई चुनौती न दे सके इसलिए दुधमुँहे बच्चे मार दिए जाते थे। खुद श्रीकृष्ण के जन्म की कथा भी ऐसी है। वे जीवित रह सकें इसलिए जन्मते ही माता-पिता की आँखों से दूर कर दिए गए। उस समय के डर से जमे हुए समाज में बालक श्रीकृष्ण ने संवेदना, संघर्ष, प्रतिक्रिया और विरोध के प्राण फूँके। महाभारत का युद्ध तो लगातार चलने वाली लड़ाई का चरम था, जिसे श्रीकृष्ण ने जन्मते ही शुरू कर दिया था।
उनका संपूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व धार्मिक इतिहास का एक अमिट आलेख बन चुका है। उनकी संतुलित एवं समरसता की भावना ने उन्हें अनपढ़ ग्वालों, समाज के निचले दर्जे पर रहने वाले लोगों, उपेक्षा के शिकार विकलांगों का प्रिय बनाया।
श्रीकृष्ण का चरित्र अत्यंत दिव्य है। हर कोई उनकी ओर खिंचा चला जाता है। जो सबको अपनी ओर आकर्षित करे, भक्ति का मार्ग प्रशस्त करे, भक्तों के पाप दूर करे, वही श्रीकृष्ण है। वह एक ऐसा आदर्श चरित्र है जो अर्जुन की मानसिक व्यथा का निदान करते समय एक मनोवैज्ञानिक, कंस जैसे असुर का संहार करते हुए एक धर्मावतार, स्वार्थ पोषित राजनीति का प्रतिकार करते हुए एक आदर्श राजनीतिज्ञ, विश्व मोहिनी बंसी बजैया के रूप में सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ, बृजवासियों के समक्ष प्रेमावतार, सुदामा के समक्ष एक आदर्श मित्र, सुदर्शन चक्रधारी के रूप में एक योद्धा व सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता हैं। उनके जीवन की छोटी से छोटी घटना से यह सिद्ध होता है कि वे सर्वेश्वर्य सम्पन्न थे। धर्म की साक्षात् मूर्ति थे।
अध्यात्म के विराट आकाश में श्रीकृष्ण ही अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों व ऊंचाइयों पर जाकर भी न तो गंभीर ही दिखाई देते हैं और न ही उदासीन दीख पड़ते हैं, अपितु पूर्ण रूप से जीवनी शक्ति से भरपूर व्यक्तित्व हैं। श्रीकृष्ण के चरित्र में नृत्य है, गीत है, प्रीति है, समर्पण है, हास्य है, रास है, और है आवश्यकता पड़ने पर युद्ध को भी स्वीकार कर लेने की मानसिकता। धर्म व सत्य की रक्षा के लिए महायुद्ध का उद्घोष है। श्रीकृष्ण के चरित्र में कहीं किसी प्रकार का निषेध नहीं है, जीवन के प्रत्येक पल को, प्रत्येक पदार्थ को, प्रत्येक घटना को समग्रता के साथ स्वीकार करने का भाव है। वे प्रेम करते हैं तो पूर्ण रूप से उसमें डूब जाते हैं, मित्रता करते हैं तो उसमें भी पूर्ण निष्ठावान रहते हैं, और जब युद्ध स्वीकार करते हैं तो उसमें भी पूर्ण स्वकृति होती है।
स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर जितना स्वस्थ खुलापन श्रीकृष्ण के यहां है वह ‘भूतो न भविष्यति’ के दर्जे का है। आज के समाज को इस पर चिन्तन करते हुए स्त्री-पुरुष संबंधों में बढ़ रही दूरियों को कम करने के प्रयास करने चाहिए। महिलाओं के लिए श्रीकृष्ण के विचार आज के तथाकथित प्रगतिशाली विचारों से कहीं ज्यादा ईमानदार और असरदार थे। उन्होंने अपनी बहन सुभद्रा का विवाह उनकी इच्छा के अनुरूप अर्जुन से कराया। नरकासुर नाम के अत्याचारी राजा को मार कर उसकी 16 हजार बंधक स्त्रियों को समाज में वापस सम्मानजनक दर्जा दिलाने के लिए उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकारा।
श्रीकृष्ण ग्रामीण संस्कृति के पोषक बने हैं। उन्होंने अपने समय में गायों को अभूतपूर्व सम्मान दिया। वे गायों एवं ग्वालों के स्वास्थ्य, उनके खान-पान को लेकर सजग हैं। उन्होंने जहां ग्वालों की मेहनत से निकाला गया माखन और दूध-दही को स्वास्थ्य रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया, वहीं इन अमूल्य चीजों को ‘कर’ के रूप में कंस को देने से रोका। वे चाहते थे कि इन चीजों का उपभोग गांवों में ही हो। श्रीकृष्ण का माखनचोर वाला रूप दरअसल निरंकुश सत्ता को सीधे चुनौती तो था ही, लेकिन साथ ही साथ ग्रामीण संस्कृति को प्रोत्साहन देना भी था।