आजादी की लड़ाई में हिंदू और मुसलमान दोनों ही साथ थे, पर अंग्रेजों ने भावनाओं से खेलना शुरू किया। धार्मिक भावनाएं भड़काईं और वो सब होने लगा जो नहीं होना चाहिए था। बंगाल विभाजन के रूप में इसका पहला धमाका देखने को मिला और ये 1920 आते-आते बहुत बढ़ गया था। दंगे होने लगे थे। देश भर में सांप्रदायिक हिंसा फैलने लगी। इस हंगामें से एक पत्रकार बेहद परेशान था, जो ये सब बर्दाश्त नहीं कर पाया। और वो पत्रकार अमन का परचम थामकर दंगीली गलियों से गुजरने लगा। वो राष्ट्रभक्त निर्भीक पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी थे।
गणेश शंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार, समाज-सेवी और स्वतंत्रता सेनानी थे। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में उनका नाम अजर-अमर है। गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी लेखनी की ताकत से भारत में अंग्रेजी शासन की नींद उड़ा दी थी। इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसावादी विचारों और क्रांतिकारियों को समान रूप से समर्थन और सहयोग दिया। अपने छोटे जीवन-काल में उन्होंने उत्पीड़न, क्रूर व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ में हमेशा आवाज बुलंद किया चाहे वो नौकरशाह, जमींदार, पूंजीपति या उच्च जाति का कोई इंसान हो।
गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण एवं माता का नाम गोमती देवी था जो हथगाँव, (फतेहपुर, उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। उनके पिता गरीब और धार्मिक प्रवृत्ति पर अपने सिद्धान्तों के पक्के इंसान थे। वे ग्वालियर रियासत में मुंगावली के एक स्कूल में हेडमास्टर थे। गणेश का बाल्यकाल वहीं बीता तथा प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी हुई। उनकी पढ़ाई की शुरुआत उर्दू से हुई और 1905 ई. में उन्होंने भेलसा से अंग्रेजी मिडिल परीक्षा पास की। 1907 में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में एंट्रेंस परीक्षा पास की और आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला में दाखिला लिया।
लगभग इसी समय से उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और प्रसिद्ध लेखक पंडित सुन्दर लाल के साथ उनके हिंदी साप्ताहिक ‘कर्मयोगी’ के संपादन में सहायता करने लगे। आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण लगभग एक वर्ष तक अध्ययन के बाद सन 1908 में उन्होंने कानपुर के करेंसी आफिस में 30 रु. महीने की नौकरी की पर एक अंग्रेज अधिकारी से कहा-सुनी हो जाने के कारण नौकरी छोड़ कानपुर के पृथ्वीनाथ हाई स्कूल में सन् 1910 तक अध्यापन का कार्य किया। इसी दौरान उन्होंने सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) तथा हितवार्ता जैसे प्रकाशनों में लेख लिखे। गणेश शंकर विद्यार्थी का मन पत्रकारिता और सामाजिक कार्यों में रमता था इसलिए वे अपने जीवन के आरम्भ में ही स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़े। उन्होंने ‘विद्यार्थी’ उपनाम अपनाया और इसी नाम से लिखने लगे। कुछ समय बाद उन्होंने हिंदी पत्रकारिता जगत के अगुआ पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया जिन्होंने विद्यार्थी को सन् 1911 में अपनी साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में उप-संपादक के पद पर कार्य करने का प्रस्ताव दिया पर विद्यार्थी की रुचि सम-सामियिकी और राजनीति में ज्यादा थी इसलिए उन्होंने हिंदी साप्ताहिकी ‘अभ्युदय’ में नौकरी कर ली। सन 1913 में विद्यार्थी कानपुर वापस लौट गए और एक क्रांतिकारी पत्रकार और स्वाधीनता कर्मी के तौर पर अपना कॅरियर प्रारंभ किया। उन्होंने क्रन्तिकारी पत्रिका ‘प्रताप’ की स्थापना की और उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद किया। प्रताप के माध्यम से उन्होंने पीड़ित किसानों, मिल मजदूरों और दबे-कुचले गरीबों के दुखों को उजागर किया।
अपनी क्रांतिकारी पत्रिकारिता के कारण उन्हें बहुत कष्ट झेलने पड़े। सरकार ने उनपर कई मुकदमे किये, भारी जुर्माना लगाया और कई बार गिरफ्तार कर जेल भी भेजा। विद्यार्थी जी के जेल जाने के बाद प्रताप का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी और बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ जैसे बड़े साहित्यकार करते रहे। ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा’ गीत जो श्याम लाल गुप्त पार्षद ने लिखा था। उसे भी 13 अप्रैल 1924 से जलियांवाला की बरसी पर विद्यार्थी ने गाया जाना शुरू करवाया था। सन 1916 में महात्मा गांधी से उनकी पहली मुलाकात हुई जिसके बाद उन्होंने अपने आप को पूर्णतया स्वाधीनता आन्दोलन में समर्पित कर दिया। उन्होंने सन् 1917-18 में ‘होम रूल’ आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभाई और कानपुर में कपड़ा मिल मजदूरों की पहली हड़ताल का नेतृत्व किया। सन् 1920 में उन्होंने प्रताप का दैनिक संस्करण आरम्भ किया और उसी साल उन्हें रायबरेली के किसानों के हितों की लड़ाई करने के लिए 2 साल की कठोर कारावास की सजा हुई। सन् 1922 में विद्यार्थी जेल से रिहा हुए पर सरकार ने उन्हें भड़काऊ भाषण देने के आरोप में फिर गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। सन 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया पर उनके स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया था फिर भी वे जी-जान से कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन (1925) की तैयारी में जुट गए।
उस महान क्रांतिकारी ने ‘प्रताप’ जैसा जानदार अखबार निकाल कर क्रान्ति को प्राण फूंक दिए थे। उनकी कलम जब चलती थी तो अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें तक हिल जाती थीं। भगत सिंह, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सोहन लाल द्विवेदी, सनेही, प्रताप नारायण मिश्र जैसे तमाम देशभक्तों ने जिस ‘प्रताप प्रेस’ के माध्यम से राष्ट्रप्रेम को घर-घर तक पहुंचा दिया। वो महान क्रांतिकारी और पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ही थे।
सन् 1925 में कांग्रेस के राज्य विधान सभा चुनावों में भाग लेने के फैसले के बाद गणेश शंकर विद्यार्थी कानपुर से यू.पी. विधानसभा के लिए चुने गए और सन् 1929 में त्यागपत्र दे दिया जब कांग्रेस ने विधान सभाओं को छोड़ने का फैसला लिया। सन् 1929 में ही उन्हें यू.पी. कांग्रेस समिति का अध्यक्ष चुना गया और यू.पी. में सत्याग्रह आन्दोलन के नेतृत्व की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी। सन् 1930 में उन्हें गिरफ्तार कर एक बार फिर जेल भेज दिया गया जिसके बाद उनकी रिहाई गांधी-इरविन पैक्ट के बाद 9 मार्च 1931 को हुई। 25 मार्च 1931 में कानपुर में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए जिसमें कई लोग मारे गए। लोग मजहब के नाम पर एक-दूसरे को मार रहे थे। ऐसे मौके पर गणेश शंकर विद्यार्थी से रहा न गया और वो निकल पड़े दंगे रोकने। गणेश शंकर विद्यार्थी ने दंगा भड़काने वाले आतंकियों के बीच जाकर कई लोगों को बचाया पर खुद एक ऐसी ही हिंसक भीड़ में फंस गए, जिसने उनकी बेरहमी से हत्या कर दी।
एक ऐसा मसीहा जिसने हजारों लोगों की जाने बचायी थी खुद धार्मिक उन्माद की भेंट चढ़ गया। गणेश शंकर विद्यार्थी और उनका अखबार प्रताप आज भी पत्रकारिता का आदर्श माना जाता है।
गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम आज भी पत्रकारिता की दुनिया में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। वह न सिर्फ एक देशभक्त निर्भीक पत्रकार थे, बल्कि देश की स्वतंत्रता संग्राम में भी गणेश शंकर विद्यार्थी ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था। वह ऐसे चुनिंदा पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं, जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कलम और धारदार लेखनी को हथियार बनाकर आजादी की लड़ाई को जन जन की आवाज बना दिया था। सोचिए, आज के रिपोर्टर्स और एडिटर्स केवल रिपोर्ट करने और उसको मुहिम बनाने में, कभी कभी तो नॉन इश्यूज को भी मुहिम बनाने में काफी अग्रेसिव तरीके से जुटते हैं। लेकिन सड़क पर उतरकर उस अन्याय के खिलाफ अपनी जान की बाजी नहीं लगाते, जैसी कि गणेश शंकर विद्यार्थीजी ने लगाई थी
डॉ. अनिल कुमार दशोरा