फाल्गुन कृष्ण दशमी संवत् 1881 में जन्मे महर्षि दयानन्द सरस्वती के बारे में जब चिन्तन करने लगते है तो सामान्य मनुष्य अथवा महापुरूषों के व्यक्तित्व व कृतित्व के समान चिन्तन तो करना ही होता है किन्तु यहां पर एक विशेष चिन्तन की गहनता दिखती है, जो उनका ‘ऋषित्व’ होता है। गुजरात के पश्चिम में मोरबी रियासत के टंकारा गांव के धनाढ्य, कर्मकांडी, सामवेदी औदिच्य ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए बालक को उसके जन्म नक्षत्र के अनुसार मूलशंकर नाम मिला। किन्तु ठीक उन्हीं परिस्थितियों ने उन्हें वैराग्य से जोड़ा, जिन परिस्थितियों में गौतम बुद्ध व महावीर ने घर को छोड़ा था। बस अन्तर केवल इतना था कि बुद्ध व महावीर को महल से बाहर निकलने पर वो दिखा था, जो मूलशंकर को घर के भीतर ही दिख गया था। मूलशंकर ने तीन वर्ष के अन्तराल में अपनी बहन व चाचा की मृत्यु देखी तो हठात् बाल मन चित्कार कर उठा,’’ क्या मैं व मेरे सभी अपने भी उसी प्रकार मरेंगे’’? नही मुझे मृत्यु को जीतना है।
महाभिनिष्क्रमण:
दूसरा प्रसंग जो लोकश्रुत होने से लिखना आवश्यक नही है कि किस प्रकार उन्हें अपने परिवार के इष्ट देव महादेव के मंदिर में शिवरात्रि को सच्चे व साक्षात् शिव को जानने का बोध हुआ। बस उन्हीं दोनों प्रश्नों के यथार्थ व ताकिक उत्तर जानने को उद्यत होकर बालक मूलशंकर अपने सम्पन्न परिवार को छोड़कर, या कहें कि सरल, सुखद व सहज जीवन को अज्ञानान्धार की कैद में पराधीन होकर जीने के विरूद्ध ज्ञान के आलोक में कष्टकारक, संघर्ष युक्त जीवन को चुनकर केवल 22 वर्ष की उम्र में घर को छोड़कर बालक मूलशंकर ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था कि मुझे ‘‘सच्चे शिव को पाना है व मृत्यु पर विजय करनी है।’’ घर से निकलकर वे सिद्धपुर में कार्तिक मास में भरने वाले आध्यात्मिक मेले में गये, तब तक अनेक पाखण्डी व छली-कपटी साधु वेशी लोगों से पाला पड़ा। अनेक कपड़े-लत्ते, अंग-अलंकार व जो भी सामान थे वे लूट लिये गये किन्तु दृढ़ प्रतिज्ञ थे सो लक्ष्य से टले नही। यहां तक कि किसी परिचित के बताने पर उनके पिताजी, मेले से डांट-फंटकार कर दो सिपाहियों को साथ लेकर वापस घर लौट रहे थे किन्तु मुलशंकर, जो अब नाम बदलकर अब भगवा धारी ‘‘शुद्ध चैतन्य’’ बन चुके थे, मार्ग से ही सिपाहियों को चकमा देकर पुनः कण्टकाकीर्ण मार्ग पर दौड़ पड़े।
दीक्षा:
स्वामी पूर्णानन्द से गुजरात के चाणोद ग्राम के एक आश्रम में संन्यास दीक्षा लेकर अब वे ‘दयानन्द’ बन चुके थे। जहाँ चाह वहाँ राह की उक्ति के अनुसार दयानन्द को भी स्वामी शिवानन्द व ज्वालानन्द नामक दो साधु मिले, जिन से योगाभ्यास की बारिकियां सीखी और इस विद्याध्ययन के कठोर प्रवास में अच्छे-बुरे का अनुभव करते हुए निरन्तर भ्रमण करते हुए नर्मदा नदी के उद्गम तक प्राणघातक घटनाओ से दो-दो हाथ करते हुए भारत वासियों के स्वाभाविक आकर्षण अर्थात् हिमालय प्रदेश की ओर बढ चले। अनेक बार निराहार रहते हुए वन्य हिंसक जीवों व मनुष्यों के घात प्रतिघात सहते आगे बढते रहे। दयानन्द को सम्पन्न ‘‘उखी मठ’’ के मठाधीश ने पट्ट शिष्यत्व व उत्तराधिकार का आग्रह किया किन्तु दयानन्द ने लक्ष्य में बाधा जानकर अस्वीकार कर दिया। विद्या और सद्ज्ञान की भूख और व्याकुलता ने उनको मथुरा के प्रज्ञा चक्षु स्वामी विरजानन्द तक पहुंचाया व वो ही उनके जीवन का सबसे बड़ा पड़ाव था। तीन वर्ष पर्यन्त अनेक संकटों को सहन करके अष्टाध्यायी व्याकरण पढ़ी व वेद भाष्य करने में निपुण हुए। यहाँ पर गुरू ने उन्हे ‘‘कालजिह्न’’ व ‘‘कुलक्कर’’ दो नाम भी उनके विशेषणों
के कारण दिये। भारतीय सभ्यता व संस्कृति का आधार स्तम्भ ‘वेद‘ है, इसे जाना तथा ऋषिकृत आर्ष ग्रन्थ व सामान्य मनुष्य कृत ‘‘अनार्ष ग्रन्थ’’ में भेद करने की गुरू कुंजी पाकर दयानन्द अभिभूत हो गये।
देशोकारक:
गुरू के आदेश पर ‘‘वेदोद्धार‘‘ ही भारत उद्धार हैं इसे जानकर व मानकर सम्पूर्ण जीवन उसी लक्ष्य साधने चल पड़े। इसी लक्ष्य में उन्हें निज कुमारावस्था के दोनो प्रश्नों के उतर भी दिख रहे थे। भारत पर अंगे्रजी राज के कारण जो गरीबी व अस्मिता विहीन दुःखद दारुण दशा दयानन्द ने देखी तो उनके लक्ष्य में स्वतंत्रता का एक अहम लक्ष्य और जुड़ गया। इतिहास साक्षी है कि जब भारत की आजादी के लिए संघर्षरत ‘‘कांग्रेस’’ की बैठक अंग्रजों के पिता तुल्य राज को अक्षुण्ण रखने की ईश प्रार्थना से शुरू होती थी’’, तब पहली बार बाल गंगाधर तिलक ने जब ‘‘स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है।’’ की बात बैठक में कही तो उन्हें अत्यन्त निर्लज्जता पूर्ण व्यवहार झेलना पड़ा था। जब उनसे पूछा गया था कि यह बात आपको कैसे सूझी? तो उन्होंने निःसंकोच कहा था कि दादा भाई नौरोजी से ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ पुस्तक के सदर्भ से जानने को मिली थी। दादा भाई मुम्बई में पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा के घर पर सत्यार्थ प्रकाश के सत्संग में जाया करते थे। महर्षि दयानन्द ने संसार को जो अवदान दिया है, उसे संक्षिप्त तो नही कर सकते किन्तु एक विचारक के शब्दों में कह सकते है कि, ‘‘वे गुण समुच्चय थे।’’ कोई व्यक्ति प्रभुभक्त है तो विद्वान नहीं, विद्वान-योगी है तो सुधारक नहीं, सुधारक है तो दिलेर नहीं, दिलेर है तो ब्रह्मचारी नही, ब्रह्मचारी है तो वक्ता नहीं, वक्ता है तो लेखक नहीं, लेखक है तो सदाचारी नहीं, सदाचारी है तो परोपकारी नहीं, परोपकारी है तो त्यागी नहीं, त्यागी है तो योद्धा नहीं, देशभक्त है तो वेदभक्त नहीं, वेदभक्त है तो सरल नहीं, सरल है तो सुन्दर नहीं, सुन्दर हेै तो बलिष्ठ नहीं बलिष्ठ है तो दयालु नहीं, दयालु है तो संयमी नहीं। किन्तु ये सभी गुण उनमें थे। वे दयानन्द ही थे जिनके कारण हम आज सोलह संस्कारों की चर्चा करते हैं, बाकी गृह सूत्रों में तो 3-10 व 13 संस्कार ही है। हम तीसरे दिन मृत्योंपरांत शोक निवृत्त होते हैं अन्यथा वर्ष पर्यन्त……।
‘गो करूणा निधि’ पुस्तक से, कन्या शिक्षा, विधवा विवाह, राष्ट्र गौरव, एवं भाषा, स्वधर्म, शुद्धि आन्दोलन, संस्कृत शिक्षा, एवं संस्कृति के उत्थान में महर्षि का अनुपन योगदान था। वेदाध्ययन कर स्त्री-शुद्र को समानाधिकार, जन्मना जातिवाद के विरूद्ध धर्म की प्रतिष्ठा इत्यादि के द्वारा केवल पाॅंच वर्षो में देश भर के राजाओं व प्रजा के दिल दिमाग को आन्दोलित करके जो जबरदस्त परिवर्तन की लहर महर्षि दयानन्द ने उठायी थी उससे विश्व के समस्त उन देशों में ऋषि के चाहने वाले आज भी गुणगान करते झूम उठते हैं। कार्तिक कृष्ण अमावस वि.सं. 1940, 30 अक्टूबर 1883 ई. दीपावली को जब महर्षि का प्राणांत हुआ तब कवि श्यामलदास (मेवाड़ के राजकवि) ने कविता लिखी-
योग को अगार गिरधार दृढ़ आसन को,
शिक्षक महीपन को त्रिदिव सिधा गयो।
कुटिल कुराहिन को वाम मत चाहिन को,
हाथ पशु हायन को उष्ट दिन आउगो।
कहें जयकरण चार वर्ण के विवरण को,
धर्म निज दयानन्द परम गति पाइगो।
तीन वेद शासन को सुमति प्रकाशन को,
आज सत्य भाषण को वासन विलायगो।
गिरीश जोशी