जबलपुर से कुछ किलोमीटर दूर एक गांव है ‘‘बरेना’’। बरेना में श्वेत पत्थरों की एक समाधि बनी हुई है। वह समाधि देश की स्वतंत्रता पर बलिदान होने वाली वीर रानी दुर्गावती की है। जो भी मनुष्य उस ओर से निकलता है, वह समाधि के सामने मस्तक झुकाए बिना आगे नहीं बढ़ता। वह मस्तक झुकाकर समाधि के पास एक श्वेत पत्थर भी रख देता है। समाधि के पास अनगिनत श्वेत पत्थर रखे हुए है। जो श्रद्धालु मनुष्यों की श्रद्धा के प्रतीक है। अनन्य देशभक्त, वीर रानी दुर्गावती ने अपने देश की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अंतिम सांस तक युद्ध किया। उनके शौर्य और उनके साहस को देखकर मुगल सम्राट अकबर का सेनापति आसफ खां भी विस्मित हो उठा था। उसने दांतों तले उंगली दबाते हुए विस्मय भरे स्वर में कहा था, ‘‘कोई नारी भी इतनी शूरवीरा हो सकती है, मैंने तो सोचा तक नहीं था।’’
जबलपुर से कुछ दूर एक प्राचीन दुर्ग है ‘‘गढ़ा मंडला’’। गढ़ा मंडला के दुर्ग का निर्माण दलपतशाह ने अपने शासन काल में कराया था। रानी दुर्गावती दलपतशाह की पत्नी थी। दुर्ग के पास जो धरती दूर तक फैली दृष्टिगोचर होती है। उसे कभी गोंडवाना प्रदेश या गोंडवाना राज्य कहा जाता था। गोंडवाना राज्य में गोंडों की छोटी बड़ी अनेक बस्तियां थी। गोंड बडे शूरवीर और वैभव संपन्न थे। उनमें विविध कलाएं प्रचलित थी। वे धनुष बाण की विद्या में बडे दक्ष थे।
गोंडवाना राज्य की स्थापना दलपतशाह के पिता संग्रामशाह ने की थी। वे बडे शूरवीर थे। उन्होंने आसपास के स्थानों को जीतकर गोंडवाना राज्य को संगठित किया था। पहले गोंडवाना राज्य में केवल चार पांच दुर्ग थे, पर संग्रामशाह ने दुर्गों की संख्या बढाकर चालीस-पचास तक पहुँचा दी थी। उन दुर्गों में चौरा और सिंहौर के दुर्गों का महत्वपूर्ण स्थान था। संग्रामशाह की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र दलपतशाह सिंहासनासीन हुए। उस समय तक गोंडवाना राज्य बहुत दूर तक फैल चुका था। उनके शासनकाल में ही गढ़मंडला दुर्ग का निर्माण हुआ था।
रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को महोबा में हुआ था। दुर्गावती का जन्म दुर्गाष्टमी को हुआ था, इसलिए उनका नाम दुर्गावती रखा गया। उनके पिता का नाम कीर्ति सिंह था। वे चंदेल राज्य के नृपति थे। उस समय महोबा चंदेलों की राजधानी थी। बुंदेलखंड में चंदेलों का राज्य बहुत दूर तक फैला हुआ था। गोंडवाना राज्य की सीमा चंदेलों के राज्य की सीमा से लगी हुई थी।
कीर्ति सिंह दुर्गावती को पढ़ाना लिखाना चाहते थे। पर उनका मन पढ़ने लिखने में बिल्कुल नहीं लगता था। फिर भी कीर्ति सिंह ने उनकी पढ़ाई लिखाई के लिए एक पंडित को नियुक्त कर दिया था। पंडित जब उन्हें पढ़ाने लगता था, तो वे उससे कहती थी-‘‘मुझे क ख ग मत पढाओ! मुझे महाभारत के युद्ध की और रामायण व लंकाकांड की कहानियां सुनाओ।
पंडित बडी कठिनाई से दुर्गावती को पढ़ने के लिए बिठा पाता था। परंतु वे पढ़ाई छोडकर चली जाती थी, और धनुष बाण का अभ्यास करती थी, तलवार चलाती थी और कभी कभी घुड़सवारी भी करती थी। पंडित भय के कारण कुछ नहीं कह पाता था। कीर्ति सिंह समझते थे कि उनकी पुत्री पढ़ रही है। परंतु उनकी पुत्री तो धनुष बाण का अभ्यास करती थी और तलवार चलाती थी।
रानी दुर्गावती ज्यों ज्यों बड़ी होने लगी, त्यों त्यों घुडसवारी और धनुष बाण की ओर उनकी रुचि भी बढ़ने लगी। बड़ी होने पर वे घोडे़ पर सवार होकर दूर दूर तक निकल जाती थी। वे कभी कभी हाथी की सवारी भी किया करती थी।
एक बार एक हाथी बिगड़ गया। वह किसी भी तरह महावत के वश में नहीं आ रहा था। दुर्गावती ने महावत से कहा- तुम मुझे हाथी पर बैठने दो! पर महावत ने उसकी बात नहीं मानी। उसको डर था कहीं दुर्गावती को हाथी गिरा न दे। यदि ऐसा हुआ तो नौकरी तो जाएगी ही, उसे दंड भी मिलेगा।
परंतु दुर्गावती अपनी जिद पर अड़ गई। उन्हांने कहा चाहे जो हो, मैं हाथी पर अवश्य बैठूंगीं। यदि मुझे हाथी पर नहीं बैठने दिया तो मैं तुम्हारी शिकायत करूंगी।
महावत विवश हो गया। दुर्गावती हाथी की पीठ पर जा बैठी। महावत स्वयं घोडे़ पर बैठकर हाथी के पीछे पीछे चलने लगा। महावत को यह देखकर बडा विस्मय हुआ, बार बार अंकुश मारने पर भी, जो हाथी उसके वश में नही आ रहा था, वह रानी दुर्गावती के बैठते ही गाय बन गया! और महावत के मुह से निकल पड़ा- ‘‘बेटी रानी’’ तुमने तो इस बिगड़ैल हाथी को इस प्रकार अपने वश में कर लिया मानो वह तुम्हारा बहुत दिनों का पालतू हो!
दुर्गावती जब विवाह के योग्य हुई तो कीर्ति सिंह को उनके विवाह की चिंता हुई। वे उनके लिए राजपूत वर की खोज करने लगे।
दुर्गावती के रूप और गुणों की चर्चा दूर दूर तक फैल चुकी थी। बडे़ बडे़ राजाओं के पुत्र उनके साथ विवाह करने के लिए उत्सुक थे। परंतु कीर्ति सिंह उनका विवाह किसी ऐसे क्षत्रिय कुमार के साथ करना चाहते थे जो अपनी शूरवीरता का कोई चमत्कार दिखाए।
दुर्गावती की सुंदरता और उनके गुणों की प्रशंसा दलपतशाह के कानों में भी पड़ी। वे भी दुर्गावती की ओर आकर्षित हुए। और सोच लिया कि वे अपना विवाह दुर्गावती के साथ ही करेंगे। उन्होंने एक पत्र के द्वारा कीर्ति सिंह को अपना विचार प्रकट भी कर दिया।
कीर्ति सिंह ने दलपतशाह के पत्र के उत्तर में लिखा-”तुम गोंड जाति के हो! दुर्गावती एक राजपूत कन्या है। उसका विवाह किसी राजपूत के साथ ही होगा। यदि तुम दुर्गावती के साथ विवाह करना चाहते हो तो तुम्हें महोबा की सेना के साथ युद्ध करना होगा। यदि तुम युद्ध में महोबा की सेना को पराजित कर दोगे तो, तुम्हारा विवाह दुर्गावती के साथ हो सकता है।
गोंडवाना महोबा की अपेक्षा छोटा राज्य था। उसके पास सेना भी महोबा की सेना से कम थी। कीर्ति सिंह जानते थे, कि दलपतशाह वीर तो है, पर उसके पास सेना कम है। अतः वह महोबा की सेना से युद्ध करने का साहस नहीं करेगा। मेरे पत्र को पाकर दुर्गावती के साथ विवाह करने का विचार छोड़ देगा। परंतु दलपतशाह ने दुर्गावती के साथ विवाह करने का दृढ संकल्प कर लिया था। वह कीर्ति सिंह का पत्र पाकर महोबा पर आक्रमण की तैयारी करने लगा।
इधर कीर्ति सिंह ने एक राजपूत कुमार को दुर्गावती के वर के रूप में चुन लिया। वह उसके साथ दुर्गावती का विवाह करने की तैयारी करने लगा।
परंतु दुर्गावती को यह विवाह पसंद नहीं था। क्योकि वह मन ही मन अपने लिए वर चुन चुकी थी। दलपतशाह की वीरता पर उन्हांने अपने आप को न्यौछावर कर दिया था। उन्होंने निश्चय कर लिया था। कि वह दलपतशाह को छोड़कर और किसी से विवाह नहीं करेगीं।
जब दुर्गावती ने विवाह की तैयारियां देखी तो उन्होंने दलपतशाह को पत्र द्वारा अपने विचार प्रकट कर दिए। ‘‘मैं स्वयं आपसे विवाह करना चाहती हूं। पिताजी मेरे विवाह की तैयारियां कर रहे हैं। आपको महोबा पर आक्रमण करके उनकी शर्त पूरी करनी चाहिए।’’
रानी दुर्गावती के पत्र को पाकर दलपतशाह की रगों में बिजली सी दौड़ गई। वह दुगुने उत्साह के साथ सेना का संगठन करने लगा। उसने शीघ्र ही एक संगठित सेना लेकर महोबा पर आक्रमण कर दिया।
दलपतशाह और महोबा की सेना में भयंकर युद्ध हुआ। महोबा की सेना संख्या में अधिक थी। पर दलपतशाह की वीरता और उसके शौर्य के सामने वह टिक नहीं सकी। उसे मैदान छोड़कर भागना पड़ा। युद्ध में दलपतशाह की विजय हुई। कीर्तिसिंह ने दलपतशाह के शौर्य पर मुग्ध होकर दुर्गावती का विवाह उनके साथ कर दिया।
विवाह के एक वर्ष के बाद ही दुर्गावती ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का नाम वीरनारायण रखा गया। वीरनारायण अभी चार ही वर्ष का था कि वह पिता के प्रेम से वंचित हो गया। दलपतशाह अपनी रानी और पुत्र को आंसुओं में डूबो कर दुनिया छोड़कर चले गए। दलपतशाह की मृत्यु के बाद दुर्गावती ने बडे़ साहस और धैर्य के साथ राज्य की बागडोर संभाली। वे अपने पुत्र वीरनारायण के प्रतिनिधि के रूप में सिंहासन पर बैठकर राज्य करने लगी। उन्होने अपनी प्रजा के कल्याण के लिए अनेक कार्य किए। उन्होने नई नई सड़कें बनवाई, खेतों की सिंचाई का प्रबंध किया। बाग-बगीचे लगवाए जगह जगह कुंए खुदवाए। जिसके फलस्वरूप कुछ सालों में गोंडवाना राज्य धन धान्य से पूर्ण हो गया और खुशहाल राज्य के रूप में अपनी चर्चा चारों ओर बटोरने लगा।
गोंडवाना राज्य के वैभव को देखकर आसपास के राज्यों को जलन होने लगी। उन्होंने सोचा-क्यो न गोंडवाना राज्य पर आक्रमण करके उस पर अधिकार किया जाए। एक नारी को आसानी से पराजित किया जा सकता है। यह सोचकर वह गोंडवाना राज्य पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगे।
रानी दुर्गावती को जब यह बात पता चली तो उसने दुश्मन राज्यों के संगठित होने से पहले स्वयं दुश्मन राज्यों पर आक्रमण करने शुरू कर दिए। उन्होंने एक एक करके अपने दुश्मन राज्यों को बड़ी वीरता के साथ पराजित कर अपने राज्य में मिला लिया। रानी की वीरता और सूझबूझ से गोंडवाना बहुत बडा राज्य बन गया।
गोंडवाना राज्य के वैभव की भनक मुगल सम्राट अकबर के कानों में भी पड़ी तो अकबर के मन में भी लोभ उत्पन्न हो गया। वह रानी दुर्गावती की सुंदरता और उनके गुणों के संबंध में भी बहुत कुछ सुन चुका था। वह उन्हें देखना चाहता था और उनसे मिलना चाहता था। उसने सोचा गोंडवाना राज्य पर चढ़ाई करके रानी को विवश किया जाए। विवश होकर रानी को आगरा आना ही पड़ेगा। परंतु आक्रमण करने से पहले अकबर ने अपनी बुद्धिमत्ता और वीरता की छाप दुर्गावती के हृदय पर डालनी चाही। उसने बहुत सोच विचार के बाद एक उपहार भेजा। उपहार बंद पिटारी में भेजा गया था।
दुर्गावती ने जब पिटारी खोलकर देखा तो उसके अंदर एक चरखा रखा हुआ था। रानी बड़ी बुद्धिमति थी। उन्होंने अकबर के उपहार का अर्थ लगाया-स्त्रियों को घर में बैठकर चरखा चलाना चाहिए। उन्हें राज काज के झगडे़ में नहीं पड़ना चाहिए। रानी दुर्गावती ने भी अपनी ओर से एक उपहार लकड़ी के बहुत बडे संदूक में अकबर के पास भेजा। अकबर ने जब संदूक खोलकर देखा तो उसके भीतर रूई धुनने की धन्नी और धुनने के लिए मोटा डंडा पाया।
अकबर के दरबारियों ने उसका अर्थ लगाया-तुम तो जुलाहे हो। तुम्हारा काम रूई धुनना और कपडे़ बुनना है। तुम्हे राज काज से क्या लेना है।
यह सुनकर अकबर क्रोध से आग बबूला हो गया। उसने तुरंत अपने सेनापति को बुलाकर बड़ी से बड़ी सेना ले जाकर गोंडवाना राज्य पर आक्रमण कर दुर्गावती को बंदी बनाकर दरबार में पेश करने का आदेश दे दिया। सेनापति को हिदायत दी गई कि दुर्गावती को जिंदा दरबार में पेश किया जाए।
आसफ खां ने अकबर की आज्ञा का पालन किया। वह बहुत बड़ी सेना के साथ गोंडवाना पर आक्रमण करने जा पहुंचा। उसने बड़ी सूझबूझ के साथ मोर्चाबंदी की। परंतु युद्ध आरंभ करने से पूर्व उसने दुर्गावती को समझाना उचित समझा।
उसने रानी के पास संदेश भेजा-तुम बादशाह की अधीनता स्वीकार कर लो। और आगरा चलो। तुम्हारा राज्य तुम्हारे ही पास रहेगा। बादशाह तुम्हें बहुत सी जागीरें प्रदान करेंगे। आगरा में बड़ी धूम धाम से तुम्हारा स्वागत होगा। तुम्हारा सम्मान किया जाएगा।
रानी की यह बात सुनकर आसफ खां क्रोध से आगबबूला हो गया।उसने गढामंडला के दुर्ग पर चढ़ाई कर दी। रानी दुर्गावती घोडे़ पर सवार होकर अपनी सेना के साथ बाहर निकल पड़ी। उनके साथ उनका 18 वर्षीय पुत्र वीरनारायण भी था।
दोनों सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध होने लगा। रानी की सेना बड़ी वीरता के साथ आसफ खां की सेना का मुकाबला करने लगी। परंतु दुर्भाग्य वश नदी में अचानक बाढ़ आ गई। रानी की सेना बाढ़ में फँस गई। आसफ खां ने उस अवसर का लाभ उठाया। उसने फंसी हुई सेना पर आक्रमण कर दिया। रानी के बहुत से सैनिक या तो आहत हुए या मारे गए। स्वयं वीर नारायण भी घायल हो गए।
रानी दुर्गावती ने घायल वीरनारायण को विश्वास पात्र सरदारां के साथ चौरागढ़ के किले में भेज दिया। उस समय रानी की सेना में केवल 300 सैनिक रह गए थे। उधर आसफ खां की सेना की संख्या बहुत अधिक थी।
घोडे़ पर सवार रानी दुर्गावती अपने 300 सैनिकों के साथ आसफ खां की सेना पर बिजली की तरह टूट पड़ी। वे कालिका की तरह मुगल सेना का संहार करने लगी। परंतु अचानक एक सनसनाता हुआ बाण आकर उनकी दाहिनी आंख में घुस गया। रानी ने बाण को खीचंकर बाहर फेंक दिया। बाण की नोक टूटकर आंख में ही रह गई। फिर भी रानी ने हिम्मत नहीं हारी और वीरता के साथ युद्ध करती रही। थोड़ी ही देर बाद एक बाण और आया और रानी की दूसरी आंख में भी घुस गया। रानी ने उसको भी निकालकर बाहर फेंक दिया। रानी दुर्गावती की दोनों आंखें फूट चुकी थी वह अंधी हो चुकी थी। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और घोडे़ की लगाम दातों तले दबाकर दोनों हाथों से तलवार चलाती रही। और आसफ खाँ की सेना का संहार करती रही। फिर एक बाण ओर आकर रानी की गर्दन में घुस गया और वे घोडे़ से गिर पड़ी। शत्रु उनके शरीर को उनके जीते जी न छू सके। यह सोचकर रानी दुर्गावती ने अपनी कटार निकाली और अपने जीवन का अंत कर लिया।
स्वतंत्रा और अपनी मिट्टी की रक्षा के लिए लड़ते लड़ते दुर्गावती शहीद हो गई। उनके शौर्य और बलिदान ने उन्हें अमर बना दिया।
One Comment
Jithin
Queen Durgawati the great***