तानाजी मालुसरे, सिंह नाम से भी जाने जाते थे। 1670 में कोंडाणा दुर्ग विजय में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई थी। वैसे तो भारत के इतिहास में काफी लड़ाईयाँ हुई हैं जो कई योद्धाओं ने वीरता से लड़ी और जीती भी। ऐसे में कई योद्धाओं ने अपनी जान भी गवाई हैं। इन्हीं योद्धाओं में से एक हैं तानाजी मालुसरे। हाल ही में तानाजी मालुसरे पर अजय देवगन अभिनीत प्रेरक फिल्म रिलीज हुई है और इसलिए ये नाम आजकल और भी चर्चा में है। (‘तानाजी’ एक पीरियड ड्रामा फिल्म है। ओम राउत द्वारा निर्देशित यह फिल्म भारतीय इतिहास के विस्मृत योद्धा, छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना के प्रमुख तानाजी मालुसरे की जिंदगी पर आधारित है।)
शिवाजी के अनन्य सहयोगी
तानाजी मालुसरे बहादुर और प्रसिद्ध मराठा योद्धाओं में से एक हैं और एक ऐसा नाम है जो वीरता का पर्याय है। वे छत्रपति शिवाजी के बालसखा थे। उनको 1670 में सिंहगढ़ की लड़ाई के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है, जहाँ उन्होंने मुगल किला रक्षक उदयभान राठौड के खिलाफ अपनी आखिरी साँस तक लड़ाई लड़ी थी, जिसने मराठाओं के जीत का मार्ग को प्रशस्त किया था।
उनकी वीरता और बल के कारण शिवाजी उन्हें ‘सिंह’ कहा करते थे। तानाजी मालुसरे का जन्म 1600 ईस्वी में गोडोली, जवाली तालुका, सतारा जिला, महाराष्ट्र में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार कोलाजी और माता का नाम पार्वतीबाई था। उनके भाई का नाम सरदार सूर्याजी था।
सिंहगढ़ की लड़ाई
तानाजी मालुसरे के पुत्र के विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं। चारों ओर उल्लास का वातावरण था। वे शिवाजी महाराज और उनके परिवार को शादी में आने का न्योता देने गए थे, तभी उनको पता चला कि माँ जीजा बाई की प्रेरणा से शिवाजी महाराज कोंडाणा किले को मुगलों से वापिस पाना चाहते हैं।
1665 में, पुरंदर की संधि के कारण शिवाजी महाराज को कोंडाणा किला मुगलों को देना पड़ा। कोंडाणा, पुणे के पास स्थित, सबसे भारी किलेबंदी और रणनीतिक रूप से रखा गया किला था। इस संधि के बाद मुगलों की तरफ से राजपूत, अरब और पठान की टुकड़ी किले की रक्षा किया करती थी। इसमें सबसे सक्षम सेनापति उदयभान राठौड था और दुर्गपाल भी, जिसे मुगल सेना प्रमुख जय सिंह प्रथम ने नियुक्त किया था।
शिवाजी के आदेश के बाद तानाजी लगभग 350 की सेना लेकर किले को जीतने के लिए चल दिए। उनके साथ उनके भाई तथा अस्सी वर्षीय शेलार मामा भी गए थे। किले की दीवारें इतनी ऊँची थीं कि उन पर आसानी से चढ़ना मुमकिन नहीं था,चढ़ाई बिलकुल सीधी थी।
यहीं आपको बता दें कि उदयभान के नेतृत्व में 5000 मुगल सैनिकों द्वारा किले की रक्षा की जा रही थी। एकमात्र किले का वो हिस्सा जहाँ मुगल सेना नहीं थी, वो एक ऊँची लटकती हुई चट्टान के ऊपर था।
मराठे उत्तुंग सह्याद्री की गोद में पले थे। उसके ऊँचे-ऊँचे स्कंधों पर चढ़कर उन्होंने भगवा लहराया था। ‘गनिमी कावा‘ माने छापामार युद्ध करते हुए ऊँचे दुर्गों पर साए की तरह चढ़ जाना उनके बाएँ हाथ का खेल था और इस खेल की बेजोड़ साथी होती थी उनकी ‘‘घोरपड़ अर्थात् गोह’’।
किले की दीवार के शीर्ष पर गोह एक बंधी रस्सी लेकर अपने शक्तिशाली नाखून पथरीली दीवारों में रोपती। उसकी पीठ पर बंधी रस्सी के सहारे कोई वजन में हल्का मावळा सरपट गढ़ चढ़ जाता और साथियों के लिए रस्सा बाँध देता और फिर गढ़ पर रणचंडी जो हुँकार भरती.. कि मुगल हों या आदिलशाही या कुतुबशाही… सब थर्राते। कहते हैं कि शिवाजी और उनके मावळे आसमान से अचानक प्रकट होते हैं.. हवा में गायब होना जानते हैं!
तो तानाजी ने कोंडाणा विजय की मुहिम हाथ में ली। वह माघ बदी अष्टमी की रात थी। तानाजी अपने साढ़े तीन सौ मावळों के साथ कोंडाणा की तलहटी पर खड़े थे। (कोंडाणा की ऊँचाई का अंदाजा ऐसे लगाइए कि आज उस पर चढ़ना माउंटेनियरिंग ट्रेकिंग में आता है।) सही जगह देखकर तानाजी ने यशवंती को आगे किया.. ‘‘जा बये! गढ़ चढ़ जा.. स्वराज्य के लिए, स्वाभिमान के लिए यश लेकर आ।’’
और इस बार यशवंती ने गढ़ चढ़ने से इनकार कर दिया! वह कुछ आगे बढ़ी, पलटकर लौट आई। गोह का यूँ लौट आना मामूली बात न थी। मान्यता थी कि ये मूक प्राणी अपने स्वामी की मृत्यु को पहले ही सूंघ लेती है और आगे बढ़ने से इनकार कर देती है! साथी मावळों ने अपशकुन जानकर तानाजी को चेताया.. मृत्यु का भय बताया पर भय से पीछे हट जाए वह तानाजी कैसे!
तानाजी ने फिर से यशवंती को पुचकारा। अपने सम्मान की आन दी, मगर वह जानवर तो अड़ा था अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा के लिए!
और तब सिंह दहाड़ा- ‘‘यशवंती! अगर इस बार लौटकर आई तो तेरा यह बाप अपनी तलवार से तेरे टुकड़े-टुकड़े कर तुझे पकवा देगा।’’ और फिर हताश यशवंती कोंडाणा चढ़ी। पीछे आए साढ़े तीन सौ मावळे उस ऊँची चट्टान पर चढ़ने में सफल हुए और गढ़ पर मौजूद 5000 मुगलिया सैनिकों पर टूट पड़े।
इस हमले के बारे में उदयभान और मुगल सैनिक बेखबर थे। लड़ाई में तानाजी और उदयभान के मध्य घनघोर युद्ध हुआ। दोनों ने एक दूसरे पर प्राण घातक प्रहार किए सपरिणामतः दोनों युद्ध के मैदान में काम आ गए। उनके शेलार मामा ने तानाजी के बाद लड़ाई की कमान संभाली। अन्ततः मराठाओं द्वारा किले पर कब्जा कर ही लिया गया। आखिरकार मराठाओं को तानाजी के अप्रतिम शौर्य और सूझ-बूझ के कारण विजय प्राप्त हुई और सूर्योदय होते-होते कोंडाणा किले पर भगवा ध्वज फहरा दिया गया।
जीत के बावजूद, शिवाजी अपने सबसे सक्षम कमांडर और दोस्त को खोने से काफी परेशान हुए और उनके मुख से अनायास निकल पड़ा- ‘‘गढ़ आला पण सिंह गेला’’ अर्थात् गढ़ तो हाथ में आया, परन्तु मेरा सिंह (तानाजी) चला गया। उन्होंने तानाजी के सम्मान में कोंडाणा किले का नाम सिंहगढ़ किले के रूप में बदल दिया क्योंकि वे तानाजी को ‘सिंह’ कहा करते थे।
तानाजी मालुसरे ऐसे योद्धा हुए जिन्होंने अपने पुत्र के विवाह और अपने परिवार की भी प्ररवाह न करते हुए शिवाजी महाराज की आज्ञा मानी और सिंहगढ़ किले की लड़ाई लड़ी और जीत भी हासिल करवाई। ऐसे महान योद्धा की वीरता को न केवल महाराष्ट्र अपितु सम्पूर्ण भारत वर्ष में आदर के साथ याद किया जाता है।
गिरीश चौबीसा